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क्या भारतीय मीडिया अब भी लोकतंत्र का चौथा खम्भा कहलाने लायक है?

भारतीय मीडिया हमारे संविधान का चौथा स्तंभ कहा जाता है। यानी यदि तीनो स्तंभ अपना काम ढंग से ना करें,  मतलब विधायिका, कार्यपकलिका और न्यायपालिका अपना कार्य ईमानदारी से ना करें, तो निश्चित ही पत्रकारिता इन्हें इनके कर्तव्य के प्रति जागरूक करेगी।

पत्रकारिता की मनोदशा जनादेश के हक के खातिर लड़ना है। जनादेश के मुद्दों से बाकी के स्तंभों को अवगत कराना है। पत्रकारिता  130 करोड़ लोगों के खातिर आवाज़ उठाने की एक ज़िम्मेदारी है, आम जन पर हो रहे अत्याचार को उनकी आवाज़ बन के सामने आने की लेकिन क्या आज भारतीय मीडिया या पत्रकारिता अपने कर्तव्यों का निर्वहन करती दिख रही है?

प्रतीकात्मकत तस्वीर, तस्वीर साभार: सोशल मीडिया

शायद नहीं, क्योंकि आम जन की समस्या के लिए उनकी आवाज़ बनने से उसे टीआरपी नहीं मिलती। मीडिया आज के समय में केवल प्रॉफिट और लॉस की महत्वाकांक्षा बनके रह गई है। मीडिया आम मुद्दों पर बात करने के बजाय केवल राजनीतिक महत्वाकांक्षा, उनके हितों, उनके निजी चैनल के तौर पर अपने आप को प्रेषित करती दिख रही है। इस प्रकार मीडिया के व्यवहार से आम जन की समस्या, उनके मुद्दे गायब हैं।

मीडिया पूर्णतया स्वतंत्र है लेकिन उसे अब उसके कर्तव्यों का भान कौन कराए। कौन बताए उन्हें की उनका कर्तव्य ही आम जन में एक आत्मविश्वास लाता है, अपने हक के लिए लड़ने और बात करने की शक्ति देता है।

जब तक मीडिया राजनीतिक व्यक्तित्व को संवारने के कार्य करने की ज़िम्मेदारी निभाएगी, वह आम जन की ओर ध्यान नहीं देगी। राजनीतिक मीडिया कहलाने की बजाय जन समर्थक मीडिया ही अपने कर्तव्य को सही ढंग से निभा सकती है ।

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