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पत्रकारिता का गला घोंटने वाले पत्रकारों के नाम एक खुला खत

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नमस्कार! प्रत्रकार साहब,

मेरा जन्म 90’s में हुआ। मैं उन खरबों लोगों में से ही हूं जिन्होंने दो शताब्दियों का जीवन देखा, जिन्होंने आंखें खुलते ही सुबह-सुबह छज्जे से अखबार उठाया है, विविध भारती सुना है, छत पर घंटों एंटीने को सही किया है ताकि डीडी नैशनल देख सकें।

आज भी याद है सुबह 7 बजे और रात 8 बजे की न्यूज़ और हां उसकी वो धुन जो आज भी कानों में ज़िंदा है, उनका शालीनता भरा अभिवादन, “नमस्कार…।” शायद ही कभी प्रभावहीन हुआ हो। दो वक्त की न्यूज़, दो वक्त की रोटी के साथ जो पापा शायद ही कभी सुनना भूले हों लेकिन पिछले कुछ दिनों से न्यूज़ चैनल नहीं देखते बस अखबार पढ़ते हैं।

जब भी मैं एंकर को देखता तो उनकी नकल करने की कोशिश करता, पापा कहते देखो कितना अच्छा लिखा है कितने कम समय में सब खबर सुना दी, एक भी शब्द व्यर्थ नहीं। मैं सोचता था कि कभी मैं भी ऐसे ही लिखूंगा। खैर, कोशिश जारी है।

हां, मैं कह रहा था कि पापा ने न्यूज़ देखनी कम, मानों बंद ही कर दी है। आधुनिक पत्रकारिता के नाम के मेमे रोज आते हैं और चुटकुले भी। पुराने समझदार बुज़ुर्ग हंसी उड़ाते हैं आधुनिक पत्रकारों की और युवा धीरे-धीरे आपकी सुनाई खबरों को चाय के खोखे में बजने वाला वह शोर समझने लगे हैं, जिसका होना तो ज़रूरी है लेकिन सुनता कोई नहीं!

विदेशी मीडिया को आप बहुत पसंद आ रहे हैं। वो आपके लिए अलग से बेइज़्जती करने वाली वीडियोज़ बना रहा हैं और आपको शर्मसार करने वाला चेहरा बता रहे हैं। साथ ही कार्टून चैनल देखने की जगह आपकी न्यूज़ सुनने का परामर्श भी दिया जा रहा है। आधुनिक नेताओं को आप इतने पसंद आ गए हैं कि बस आपको जमाई बनाना ही बाकी है। दामाद तो वो मान ही चुके हैं और आप भी बखूबी अपना फर्ज़ निभाते सामान्यतः नज़र आ ही जाते हैं।

दिनभर बिना सिर-पैर वाली खबरें, एक बात को दस तरह से बार-बार कहना, सिर्फ चीखने-चिल्लाने वाली बहसें (न्यूज़ डिबेट), हर दो मिनट की खबर के बाद तीन मिनट का प्रचार, स्वतंत्र मीडिया के नाम पर अभद्र शब्दों का प्रयोग। मन में प्रश्न आता है कि क्या आज की पत्रकारिता इसी धुरी पर जीवित रह गई है?

बड़े संविधान वक्ताओं ने मीडिया को लोकतंत्र का चतुर्थ स्तंभ माना और एक विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए आम जनमानस और प्राइवेट तथा सरकारी संस्थानों से इतर कई तरह की स्वतंत्रता दी ताकि आप उन मुद्दों को उठा सकें, जो लोक हित में नहीं हैं या जो सराहनीय कार्य हैं, उनको लोगों तक पहुंचा सकें।

किंतु यह तो अब कल्पना मात्र ही लगती है। हां, माना जा सकता है समय बदला है, कुछ परिवर्तन आएंगे, कुछ बाज़ारीकरण होगा खबरों का भी लेकिन मान्यवर क्या इतना बाज़ारीकरण जायज़ है कि खबर अपना अस्तित्व ही खो दे?

आप अर्थव्यवस्था, वैश्विक मुद्दे, नीति निर्माण, जनलोक के मुद्दे, खबरों का तार्किक प्रस्तुतीकरण, रोज़गार, देश-विदेश के मुद्दे और बहुत कुछ छोड़कर बस कुछ लोगों की निजी ज़िन्दगी को ही सबके प्राइम टाइम का हिस्सा बनाकर रख दें।

मैं व्यथित हूं आज के लिए और इससे भी ज़्यादा आने वाले कल के लिए। क्या आने वाली पीढ़ी आपको आपकी इसी ओछी पत्रकारिता के लिए जानेगी? क्या आप भविष्य के लिए इन्हीं मुद्दों को चर्चा का विषय बनते देखना चाहते हैं? क्या हमारा राष्ट्र अतुलित भारत, उत्कृष्ट भारत और विश्व गुरु बनने के सपने इन्हीं बेबुनियाद खबरें सुनकर, देखकर और इन्हीं बातों पर चर्चा करके बनेगा?

अगर आपका उत्तर हां है, तो इसका अर्थ है कि आपने पत्रकारिता का गला घोंट दिया है। आप सिर्फ मुंगेरीलाल के सुनहरे भारत के लिए भविष्य के बेबुनियादी सपने बुन रहे हैं। कहा जाता है कि किसी भी समस्या का समाधान एक स्वस्थ चर्चा से ही निकल सकता है, मनन से निकल सकता है मगर आज की इस तेज व्यवसायिक मीडिया में इन बातों का स्थान विलुप्त ही प्रतीत होता है।

मैं मानता हूं कि आप सभी महोदय अपने कार्य के प्रति बहुत ही योग्य और ईमानदार हैं। भारत का आज और कल, खबरों की गरिमा और इससे भी बढ़कर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर जनता का विश्वास आप सबके हाथों में है। कृपया हमें आप पर सिर्फ अभिमान करने का ही बार-बार मौका दें।

भारतीय पत्रकारिता के गरिमामय आज और कल के लिए चिंतित, एक सशक्त भारत की चाह में।

आपका मित्र

पीयूष

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