प्रिय गोयल सर
सितंबर माह यूं तो कई वजहों से मेरे लिए खास रहा है लेकिन अनायास जब मुझे चिट्ठी लिखने को कहा गया तो आपके अलावा मेरे ज़हन में कोई नाम कोई चेहरा आया ही नहीं।
शिक्षक तो सभी होते हैं लेकिन आपके होने में जैसे एक मज़बूती थी, मैं कभी कह नहीं पाई या शायद कहा जा भी नहीं सकता मगर आज मौका मिला है तो ये कह देना ही चाहिए कि आपने शिक्षक के साथ-साथ बेहद खूबसूरती से एक अभिभावक और मित्र की तरह मुझे अपनी छाया दी।
आप उस वरगद की तरह रहें जिसे मालूम था उसकी छांव किसी और की है लेकिन उसने कभी खुद को धूप से बचाया नहीं। मैंने जब-जब महसूस किया कि मैं हार रही हूं, तब तब आपका कहा अपने अंदर ज़िंदा रखा कि मैं कभी नहीं हार सकती। मैं अपने मुकद्दर से लड़ तो सकती हूं लेकिन समझौता नहीं कर सकती।
जहां एक ओर हम महामारी के दौर से गुज़र रहे हैं, जो तकलीफदेह होने के साथ-साथ भीतर से तोड़ देने वाली परिस्थतियों की मार लिए भी खड़ा है। इस दौर ने हमें स्वास्थ्य के साथ-साथ रिश्तों की अहमियत का भी मतलब समझाया है।
मुझे मौका मिला ही है तो मैं कहना चाहूंगी या कहिए आपसे एक नादानी के लिए माफी ज़रूर मांगूंगी। आप भूल भी गए हों तब भी! मुझे याद है जब एक प्रॉजेक्ट के सिलसिले में आपने सारी क्लास के सामने खीझते हुए कहा था, “आज तुम यही बैठकर इसे पूरा करोगी।”
तब शायद सबके सामने आपके खीझने पर सारे कॉलेज के खाली होने पर भी मैं गुस्से में बैठकर देर तक लिखती रही थी लेकिन मैं जानती हूं कि आप मेरी फिक्र में घर नहीं गये थे। तब समझी नहीं लेकिन आज समझ सकती हूं अपनी निश्चित क्लास टाईम से चार घंटे ज्यादा आपका खाली कॉलेज में बैठना यूं ही नहीं था।
वजह थी आपकी एक स्टूडेंट अकेले इतने बड़े खाली कॉलेज में प्रोजेक्ट के पन्ने भर रही थी। उस गुस्से के लिए कभी माफी तलाश नहीं पाई लेकिन आज लफ्ज़ मुझे मिल गए हैं और ये खत आज भी आप तक पहुंचे तो मैं जानती हूं आप हमेशा की तरह मेरी लिखावट को पढ़कर ही कह देते, “यह तुमने ही लिखा है।”
आपका हर मुश्किल पर कहना कि हम ही कर सकते हैं, वह औरों से ना सिर्फ अलग था बल्कि सुकूनदेय भी! मैं नहीं जानती आप अभी कहां पदस्थ होंगे या शायद जैसा आप कहते थे रिटायरमेंट के बाद अपने गाँव लौट जाएंगे। चाहती हूं कोई पता हो तो बस यह बात आप तक ज़रूर पहुंचे या कहिए ये माफीनामा जो पांच साल कॉलेज में रहते कभी लिखा ही नहीं गया।
सप्रेम
आपकी विद्यार्थी
सृष्टि तिवारी