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“संतोष गंगवार, क्या प्रवासी मज़दूर वोट बैंक नहीं हैं इसलिए उन्हें मुआवज़ा नहीं मिलेगा?”

“बम्बई में का बा” गाना आज पूरे देश के जनमानस को झकझोर रहा है। वहीं, अपनी जीविका के लिए अपने घर से कटा हुआ हर एक व्यक्ति अपने प्रवासी मन की पीड़ा को उन प्रवासी मज़दूरों के साथ जोड़ रहा है, जिन्हें इस तंत्र ने पैदल अपने घर लौटने पर मजबूर कर दिया।

उस वक्त भी प्रवासी मज़दूर सरकार की चिंता में नहीं थे और आज भी जब उनके आकड़े केंद्र और राज्य सरकार दोनों के पास हैं, तो भी सरकारों की प्राथमिकता में वे नहीं हैं।

लोकसभा में केन्द्रीय श्रम मंत्री, जो उस वक्त मीडिया के सामने बयान देने तक नहीं आ सके, वो अब हैरान करने वाला बयान दे रहे हैं कि जिन्होंने लॉकडाउन के दौरान अपनी जानें गवाई हैं, सरकार के पास उन प्रवासी मज़दूरों का कोई आकंड़ा नहीं है।”

क्या कहते हैं आंकड़े?

गौरतलब हो कि यह सवाल विपक्ष के बीजू जनता दल के सांसद भर्तुहरी महताब ने किया था कि देश में कोरोना लॉकडाउन के समय कितने प्रवासी मज़दूरों की जान गई? क्या सरकार ने उनके परिजनों को कोई मुआवज़ा दिया है? खैर, जब आकड़ा ही नहीं है, तो मुआवज़ा देने का सवाल ही नहीं उठता है।

हालांकि कुछ स्वयंसेवी संगठनों और मीडिया रिपोट्स के आधार पर बीबीसी ने एक आकड़ा जारी किया है। 24 मार्च से 1 जून तक कुल 304 प्रवासी मज़दूरों की जान गई, जिनमें 154 सड़क हादसों से, 33 थकान से मौत, 23 रेल हादसों में, 14 अन्य कारणों से और 80 श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में मौत को प्राप्त हुए।

अगर सरकार अपनी एजेंसियों से कोई डेटा नहीं ले सकी तो क्या स्वतंत्र संस्थाओ के आकड़ों से तत्काल राहत की व्यवस्था नहीं कर सकती थी? सरकार ने मीडिया या स्वयंसेवी संस्याओं के आकड़ों पर कभी कोई सवाल भी नहीं खड़ा किया है। फिर इन आकड़ों के आधार पर ही राहत क्यों नहीं पहुंचाई जा सकती है?

सेव लाइफ फाउडेशन अपनी रिपोर्ट में बताती है कि राज्यवार आकड़ों में उत्तरप्रदेश में 94, मध्यप्रदेश में 38, बिहार में 16, तेलंगाना में 11 और महाराष्ट्र में 9 लोगों की जान गई है। राज्यवार इन आकंड़ों का उल्लेख इसलिए जञरूरी है, क्योंकि कई राज्यों ने तुरंत राहत देने का ऐलान उस वक्त किया था। मसलन, महराष्ट्र में औरंगाबाद में रेल हादसे में 16 प्रवासी मज़दूरों के कटकर मर जाने की घटना के बाद मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र सरकार ने मुआवज़े की घोषणाएं भी की थी।

प्रवासी मज़दूर वोटर जो नहीं हैं!

संतोष गंगवार। फोटो साभार- सोशल मीडिया

अपने जवाब में श्रम मंत्री ने इतना ज़रूर माना कि लॉकडाउन के दौरान कमोबेश 1 करोड़ प्रवासी मज़दूर देश के सभी कोने से अपने घरों की ओर गए मगर मरने वाले मज़दूरों का आकड़ा सरकार ने छोड़ दिया। क्या  सरकार मृतक मजदूरों की संख्या इसलिए नहीं बता सकती है, क्योंकि मृतकों के परिजनों को मुआवज़ा देना पड़ेगा? या फिर जानती है कि प्रवासी मज़दूरो की मौत की वजह से आने वाले राज्यों के चुनाव में इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

ज़ाहिर है कि अधिकांश प्रवासी मज़दूर चुनाव में वोट नहीं करते हैं। वे जहां मज़दूरी करते हैं, वहां वोटर लिस्ट में उनका नाम शामिल नहीं होता है। यह संभव भी नहीं है उनके लिए कि उनके राज्य में चुनाव हों तो वे वहां जाकर वोट गिरा आएं या मतदान के दिन पहुंचकर अपना मतदान करें। शायद इसलिए भी सरकार ने उनकी मौत के आकड़ों को संग्रह करना ज़रूरी नहीं समझा होगा।

बहरहाल, इस विषय पर केंन्द्र सरकार के मौजूदा रवैया ने यह बता दिया कि प्रवासी मज़दूर और उनकी समस्याएं उनके लिए तभी मायने रखती हैं, जब वे अपने मतदान से सरकार को बनाने या गिराने का माद्दा रखते हों, नहीं तो वे उनके लिए कोई चुनावी मुद्दा नहीं हैं।

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