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धोती-कुर्ता और गमछे वाले आखिरी नेताओं में से एक थे रघुवंश बाबू

यह बात 1974 की है, जब बिहार में छात्र आंदोलन तेज़ हो रहा था। रिटायर हो चुके जेपी को बेटिंग करने के लिए फिर से एक नई पिच दिखाई देने लगी थी। बिहार से पहले जेपी गुजरात में खेल कर चुके थे, चिमनभाई पटेल की कुर्सी जा चुकी थी। जेपी ने आंदोलन को राज्य स्तर की सीमा से बाहर निकालते हुए सीधे लुटियंस दिल्ली पर धावा बोलने की मंशा बना ली थी।

एक गणित का मास्टर जो बन गया राजनेता

यह सियासत ही थी, जिसने जेपी जैसे बूढ़े शेर में फिर से नया जोश भर दिया था। यह सियासत ही थी, जिसने देसाई और चंद्रशेखर को बागी बना दिया था। यह सियासत ही थी, जिसने बिहार के छात्रों को आंदोलनकारी बना दिया था। जी हां, सियासत ही थी जिसने सीतामढ़ी के एक कॉलेज मास्टर को समाजवादी नेता बना दिया था।

सीतामढ़ी में छात्र आंदोलन का नेता कोई छात्र नहीं था, बल्कि कॉलेज के गणित के मास्टर ‘डॉ रघुवंश प्रसाद सिंह’ थे। जब सरकारी महकमे को खबर लगी कि मास्टर साहब आंदोलन में जुटे हैं, तो गिरफ्तारी तो हुई ही लेकिन इसके साथ-साथ नौकरी से भी निकाल दिए गए।

रघुवंश प्रसाद सिंह, तस्वीर साभार: सोशल मीडिया

इमरजेंसी के समय मास्टर जी जेल में रहे और जब इमरजेंसी हटी तो वो सीतामढ़ी का मास्टर “समाजवादी नेता डॉ रघुवंश प्रसाद सिंह’ हो चुका था। 1977 में चुनाव हुए, जेपी का खेल काम कर गया। जनता पार्टी आई और 295 सीटों के भारी अंतर के साथ आई, मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। मोरारजी ने नौ राज्यों की सरकारें बर्खास्त की और फिर चुनाव करवाए।

बिहार की सीतामढ़ी की बेलसंड सीट से मास्टर रघुवंश प्रसाद को टिकट मिला, उन्होंने छह हज़ार के अंतर से जीत दर्ज़ की। जातीय समीकरण को तोड़ते हुए मास्टर जी ने जीत दर्ज़ की, मंत्री बने और कर्पूरी ठाकुर की सरपरस्ती मंजूर की। आखिर करते भी क्यों नहीं, कर्पूरी ठाकुर ही तो मास्टर रघुवंश प्रसाद के राजनीतिक गुरु थे।

लालू और रघुवंश की राजनीति

सन् 1988 में कर्पूरी ठाकुर चल बसे, अब राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में लालू यादव उभरे। हालांकि नाम मास्टर रघुवंश प्रसाद का भी आगे था लेकिन लालू के हाथ बाज़ी लगी। लालू के साथ हमसाया बनकर रहे, दोनों ने ऊंच-नीच को झेला लेकिन साथ नहीं छूटा।

1996 में लालू के कहने पर वैशाली से सांसदी का पर्चा भरा, सामने थे समता पार्टी (जॉर्ज – ‘द जॉइंट किलर’ का दल) के वृषन पटेल। रघुवंश प्रसाद भारी मार्जिन से चुनाव जीते, फिर बिहार के कोटे से दिल्ली में राज्य मंत्री बनाए गए।

1999 में शरद यादव से लालू यादव हार गए और आरजेडी की तरफ से अकेले रघुवंश बाबू ने संसद तक का सफर तय किया, उसी समय उन्हें “वन मैन ओपोजिशन” कहा गया।

2004 में फिर चुनाव हुए, कांग्रेस जीती। गठबंधन के कारण लालू और रघुवंश बाबू को केंद्रीय मंत्री का ओहदा दिया गया। प्रसाद को ग्रामीण विकास मंत्रालय मिला और उन्होंने वो कर दिखाया जिसकी वजह से 2009 में कांग्रेस को फिर से सत्ता हासिल हुई। कड़े विरोध के बाद भी डॉ. रघुवंश प्रसाद सिंह ने ‘मनरेगा’ चलाई, जिसके लिए सीतामढ़ी के इस मास्टर को हमेशा याद रखा जाएगा।

तस्वीर साभार: सोशल मीडिया

सहमति-असहमति के बीच डॉ. रघुवंश प्रसाद सिंह और लालू प्रसाद यादव की यारी कायम रही। 2014 और 2019 में रघुवंश बाबू वैशाली से चुनाव हार गए। संगठन की कमान लालू ने तेजस्वी यादव को सौंप दी लेकिन रघुवंश बाबू की पटरी इस युवा लड़के के साथ नहीं बैठ पाई। पार्टी के उपाध्यक्ष पद से भी इस्तीफा दे दिया था और पार्टी से उनको दूर किया जाने लगा।

जाते-जाते दे दिया पार्टी से इस्तीफा

10 सितंबर को पार्टी से इस्तीफा दे दिया, लालू यादव को अपनी यारी याद रही और मनाने की कोशिश की गई लेकिन कुछ हो उससे पहले ही रघुवंश बाबू चले गए।

भारत में दो तरह के नेता होते हैं, एक वो जो नेपथ्य में राजनीति करते हुए ओहदा हासिल करते हैं और दूसरे वो जो जनता के बीच ठौर बनाकर अपना हक हासिल करते हैं। रघुवंश बाबू दूसरे टाइप के नेता थे।

एक नेता जो दिखने में ठेठ देहाती था और बोलने में अव्वल दर्जे़ का बिहारी था लेकिन गणित में पीएचडी होल्डर था। मैं अक्सर सोचता था ‘हमारे समय के आखिरी समाजवादी नेता हैं रघुवंश बाबू’, समाजवाद की अंतिम आवाज़ जो मानो खामोशी में डूब गई। लोहिया और कर्पूरी ठाकुर का सच्चा शागिर्द अब हमारे बीच नहीं है, ऐसे जाएंगे इसकी उम्मीद ना थी। धोती-कुर्ता और गमछे वाले आखिरी नेताओं में से एक थे रघुवंश बाबू।

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