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“आज हमारे पास ना तो चाणक्य जैसे गुरु हैं और ना ही चंद्रगुप्त जैसे शिष्य”

बदलते परिवेश में जहां हमारे व्यक्तिगत संबंधों में बड़ी तेज़ी से बदलाव आया है, वहीं दूसरी ओर गुरू-शिष्य संबंध भी इस हवा से अछूते नहीं रह पाए हैं। आज गुरू-शिष्य संबंध तो मात्र औपचारिक बनकर ही रह गए हैं। गुरू-शिष्य दोनों की मर्यादाओं पर उंगली उठ रही है।

यदि वर्तमान परिस्थितियों का हम गहनता से अध्ययन करते हैं, तो जो परिणाम सामने आए हैं और उनसे शिक्षा जगत से जुड़े गुरू-शिष्यों की जो तस्वीर सामने आती है, वह निश्चय ही क्षोभनीय है। शिष्य जगत का गिरता स्तर व उद्दंड होते विद्यार्थियों व अध्यापकों में पैसे के प्रति बढ़ती लालची प्रवृत्ति को देखकर लगता है कि आज हमारे पास ना तो चाणक्य और द्रोणाचार्य जैसे गुरू हैं और ना ही एकलव्य व चंद्रगुप्त जैसे शिष्य ही हैं।

आज के युग में प्रत्येक स्टूडेंट के समक्ष कोई ना कोई गंभीर समस्या है। वह कई बार तो इतने पशोपेश की स्थिति में पहुंच जाता है कि सही व गलत में फर्क नहीं महसूस कर पाता है। माता-पिता के बाद अध्यापक ही ऐसी आशा की किरण विद्यार्थियों के लिए हैं, जो उसका सही मार्गदर्शन कर सकते हैं लेकिन अफसोस यह है कि गुरू-शिष्य परंपरा में आए फर्क से विद्यार्थी भटकाव की ओर ही बढ़ रहे हैं। उनके जीवन में एक सफल मार्ग निर्देशक का अभाव होने से उनका हर क्षेत्र में पतन होता जा रहा है।

स्थिति यह बन गई है कि गुरू-शिष्य दोनों ही अपनी मर्यादाएं लांघकर एक-दूसरे को कोसने व नीचा दिखाने पर तुल गए हैं। प्राचीन काल से ही शिक्षा के पेशे को सम्मान की दृष्टि से देखा जा रहा है व आमजन में यह धारणा रही है कि नर को नारायण बनाने की असीम क्षमता केवल अध्यापक में ही है।

यहां तक कि माता-पिता से कहीं ज़्यादा सुरक्षित भविष्य बनाने वाले अध्यापक ही निर्विवाद ढंग स्वीकारे गए हैं मगर आज ये चीजें प्राय: लुप्त सी होती जा रही हैं, ऐसा क्यों? इस बात पर विद्यार्थी व उनके अभिभावक तथा स्वयं शिक्षक भी सोचने पर मजबूर हो गए हैं। जहां आज का विद्यार्थी विद्या की अर्थी उठाने पर तुला हुआ है, वहीं दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि अध्यापक भी अब अपने पेशे के प्रति ईमानदार व जवाबदेह नहीं रह गए हैं।

शिक्षण संस्थानों की ओर दृष्टि डाली जाए तो अधिकांश संस्थानों में कक्षाएं सूनी पाई जाती हैं। ना तो गुरू का पता है और ना ही शिष्य का! कारण कि ना तो शिक्षक कक्षा में जाना पसंद करते हैं और ना ही विद्यार्थी आना। ऐसी शिक्षा पद्धति को देखकर तो इसी बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि यदि विद्यार्थी स्कूल आते हैं, तो यह सोचकर कि उन्होंने फीस दी है जबकि अध्यापकों की सोच यही होती है कि पहली तारीख को वेतन तो मिलेगा ही! जब यही सोच दोनों पक्षों के दिमाग में रहती है, तो दोषी किसे और कितना ज़्यादा माना जाए?

शिक्षा का उद्देश्य आमतौर पर व्यक्ति के समग्र विकास से जुड़ा होता है, जिसकी वजह से ही स्टूडेंट्स अपनी प्रतिभा को उभारने के लिए विद्यालय में आते हैं। उनके जीवन में स्कूली शिक्षा उनकी मज़बूत बुनियाद होती है, जहां से उन्हें अपना सुनहरा भविष्य नज़र आता है।

कॉलेजों की शिक्षा से ना तो अध्यापकों को गर्ज है और ना ही स्टूडेंट्स को अध्यापकों से! वैसे आजकल देखा जाए तो रुपया फेंककर किसी भी अध्यापक को घर तक बुलाया जा सकता है लेकिन इससे अध्यापक-विद्यार्थी के आत्मीय संबंध मज़बूत नहीं हो सकते।

पढ़ाने वाला एक घंटा पूरा होते ही दूसरे के घर पहुंचना चाहता है, तब यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि दोनों के संबंधों में एकरूपता हो। शहरी क्षेत्रों में खुले स्कूलों में तो फिर भी विद्यार्थी व शिक्षक नज़र आ जाते हैं लेकिन दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्रों में सबसे बुरा हाल है, जहां अध्यापक हफ्ते में एक या दो बार ही बच्चों को दर्शन देते हैं।

तब यह कैसे मान लिया जाए कि विद्यार्थी, अध्यापक के प्रति समर्पित भाव से उन्हें आदर व अपनत्व दें। सवाल यह है कि क्या आज शिक्षक स्वयं को स्टूडेंट्स के सम्मुख इस तरह से अपने व्यक्तित्व व कृतित्व के ज़रिये आकर्षित करने की क्षमता रख रहे हैं?

यह माना कि आज हमारे विद्यार्थी शिक्षकों को बात-बात पर दोष देते हैं और उन्हें परेशान करने जैसी घटनाओं को भी बढ़ावा देते हैं। कक्षा में उनका उपहास उड़ाना, उनसे गलत आचरण करना या धौंस-धमकी देना उनकी आदत बन गई है।

हालांकि गुरू के बिना विद्यार्थी की शिक्षा अधूरी ही मानी गई है, क्योंकि कुछ भी सीखने के लिए किसी के भी प्रति समर्पण की भावना विद्यार्थी में नहीं होगी तो निश्चय ही ऐसे विद्यार्थी अंधकारमय जीवन ही व्यतीत करते हैं। हां, यदि शिक्षक चाहते हैं कि विद्यार्थी मन लगाकर अध्ययन करें, तो शिक्षक के लिए भी यह आवश्यक है कि वो पूरी तैयारी, निष्ठा व ईमानदारी के साथ स्कूल व कक्षा में आएं। विद्यार्थियों को जीवन मूल्यों की शिक्षा देकर अपनी उत्कृष्ट कला का प्रदर्शन करें।

तब क्या मजाल है कि विद्यार्थी मनमानी कर ले? गुरू शिष्य संबध प्रगाढ़ करने के लिए ज़रूरी है कि हमारी शिक्षा नीति में भी आमूलचूल परिवर्तन किए जाएं। चूंकि शिक्षा सिर्फ सिद्वांतों व आंकड़ों से ही प्राप्त नहीं की जा सकती है, बल्कि उसके साथ नैतिक मूल्यों व जीवन को जोडऩा ज़रूरी होता है।

यह हमारे विद्यार्थियों का दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि हमारी शिक्षण संस्थाएं केवल पाठयक्रम को ही अनौपचारिक तौर पर पूरा करवाती हैं और इनसे जुड़े अध्यापक ज़्यादा-से-ज़्यादा कमाने की प्रवृत्ति अपनाकर आजकल पूरे पाठयक्रम का ठेका कुछ हज़ार रुपयों में टयूशनों के ज़रिये पूरा करते हैं।

उन पर किसी का भी अंकुश नहीं है। तब लूट-खसोट के चलते यह कैसे उम्मीद की जाए कि विद्यार्थी शिक्षकों को आगे बढ़कर सम्मान दें? फिर भी कुछ शिक्षक व विद्यार्थी अपवाद भी हैं, जो समर्पित भावना से इस क्षेत्र में डटे हैं और सदैव धैर्यपूर्वक आपस में अच्छे संबंध बनाए हुए हैं। शिक्षा जगत में कई बार ऐसे भ्रष्ट आचरण व कुचरित्र वाले शिक्षक भी देखने को मिल जाते हैं, जो अपने ही स्टूडेंट्स का शोषण करते नज़र आते हैं। अब ऐसे अध्यापकों के प्रति आम समाज व विद्यार्थी की भावना कैसी होगी, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।

इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि शिक्षक अपने चरित्र को सबसे ऊंचा रखें। किसी भी राष्ट्र की निधि बैंकों में नहीं, बल्कि विद्यार्थियों में होती है। अत: शिक्षक व शिक्षार्थी के संबंध हर हालात में मधुर व प्रगाढ़ होने चाहिए। शिक्षक दिवस की गरिमा को बढ़ाने और एक-दूसरे के प्रति समर्पित होने की भावना से ही देश व समाज का निर्माण होता है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि केवल शिक्षक और विद्यार्थी ही नहीं, बल्कि बुद्धिजीवी भी ऐसी शिक्षा व्यवस्था के प्रति जागरूक हों जिससे विद्यार्थी व शिक्षक एक-दूसरे की अंतरंग गहराइयों में उतरकर समझने की कोशिश करें।

इस संबंध में समाज के विभिन्न वर्गो का भी दायित्व बनता है कि पुराने मूल्यों को पुनर्जीवित कर समाज में व्यापक बहस छेड़कर इन दो वर्गों के बीच सामंजस्य पैदा करने की शक्ति को बढ़ाएं। विद्यार्थियों को भी चाहिए कि वे अपनी अपार सृजन शक्ति का दुरूपयोग ना करें, बल्कि अपनी समग्र दृष्टि से अपने जीवन को बेहतर बनाने में जुटें। इससे निश्चित ही शिक्षक व विद्यार्थी के रिश्तों को नए आयाम प्राप्त होंगे और संबंधों में एकरसता बनी रहेगी।
एक अच्छे स्टूडेंट और टीचर के साथ-साथ एक अच्छा इंसान भी बनें।

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