हम अकसर यह कहते हैं कि हमारे देश में समानता की मिसालें दी जाती हैं मगर ये बातें सिर्फ कहने तक ही अच्छी लगती हैं। देश में वास्तविक स्थिति समानता की इन बातों से परे है। आइए बताता हूं क्यों? मैं दलित समुदाय से आता हूं और शायद मेरा दलित होना ब्राह्मणों के लिए ऐसा है जैसे मैंने कोई अपराध किया हो।
साल था 2007, मैट्रिक की परीक्षा की तैयारियां हम स्टूडेंट्स जमकर कर रहे थे। गणित हमेशा से बहुत कठिन विषय रहा है हम कुछ स्टूडेंट्स के लिए। गणित पढ़ने के लिए हम अपने ही गाँव के झा सर के यहां जाते थे।
आज भी मुझे याद है जब हम झा सर के यहां पहुंचते थे तो हम दलित स्टूडेंट्स को वो अपने सामने स्नान करने के लिए कहते थे। उनका मानना था सुबह-सुबह यदि वो हमें पढ़ाएंगे तो अशुद्ध हो जाएंगे। अब पूरे प्रखंड में झा सर एकमात्र ऐसे गणित के शिक्षक थे जिन पर हमारे पेरेन्ट्स को गर्व था।
हमारे लिए सर के यहां आकर कपड़े उतारकर तालाब में स्नान करना और फिर पढ़ने बैठना आम हो चुका था। हमें कोई फर्क नहीं पड़ता था कि हमारे साथ भेदभाव हो रहा है। आज जब समझने-बूझने की क्षमता हुई है, तो लगता है कि यह सब जो हमारे साथ हो रहा था उसे जातिवाद कहते हैं।
स्नान करना और वापस आकर सर से पढ़ना जैसे हम सब की आदतों में शामिल हो चुका था। एक दिन सर के यहां कोई उत्सव था और हम सारे दोस्त उनके यहां स्नान करके पहुंच गए और अपनी-अपनी जगह पर बैठ गए।
हम बैठे ही थे कि सर के घर के तमाम सदस्य बाहर आकर हमारे पेरेन्ट्स को जाति के नाम पर गालियां देने लग गए। वो हमारी तरफ देखकर कहने लगे कि इन कूड़ेदानों को हमारे यहां गंदगी फैलाने के लिए क्यों भेज दिया जाता है?
धीरे-धीरे हमारी परीक्षाएं खत्म हुईं और आगे की पढ़ाई के लिए हम गाँव से बाहर चले गए मगर जातिवाद ने हमारा पीछा शहर में भी नहीं छोड़ा। किराये पर मकान देखने जाने पर सबसे पहले लोग यही पूछते थोे कि हमारा सरनेम क्या है। जैसे ही हम कहते थे कि हमारा सरनेम रविदास है, वे पूछते थे चमार हो?
गाँव से लेकर आगे की पढ़ाई और नौकरी तक जातिवाद का यह संघर्ष आज भी जारी है। पता नहीं कब हमें हमारे देश में समानता का अधिकार मिलेगा।