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कंगना रनौत के समर्थक फेमिनिस्ट्स के खिलाफ क्यों हैं?

महाराष्ट्र के मौजूदा सरकार के सबसे बड़े दल शिवसेना के साथ कंगना रनौत के तू-तू-मैं-मैं की अमर्यादित भाषा के बाद कंगना रनौत के अवैध निर्माण तोड़ने की कार्यवाही के बाद, जिसकी टाइमिंग राजनीतिक हो सकती है।

कंगना रनौत के स्टैड का समर्थन करने वाला एक बड़ा वर्ग सोशल मीडिया पर उनके फिल्मों के सीन काटकर शेयर करते हुए यह सवाल करना शुरु किया कि नारीवाद के पैरोकार लोग अब चुप क्यों है?

क्या महिला होना भर ही फेमिनिस्ट होना है?

सवाल है महिलाओं के जीवन के संघर्षों से जुड़े सवालों पर एकाध फिल्म करने से कोई नारीवाद का पुरोधा या नारीवादी  नहीं हो जाता है? न ही आपको यह लाइसेंस मिल जाता है कि महिला होने के नाम पर आपके गलत को भी सही ठहराया जाए?

नारीवाद एक विचारधारा है जो महिलाओं के स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के विचार के लिए संघर्ष करता है। क्या कभी जब नारीवादी महिलाओं ने महिलाओं के हक में मानव अधिकारों के लिए अपनी बात कही तब कंगना रनौत उनका समर्थन कर रही थी? या बस कंगना को अबला नारी साबित करके वह उनके पक्ष में नारीवादियों का समर्थन चाहते हैं?

कंगना रनौत की तस्वीर, तस्वीर साभार: सोशल मीडिया

अबतक मैंने यही देखा है सत्ता संरचना या सामाजिक संरचना में मौजूद व्यवस्था में असमानता के खिलाफ जब कोई महिला अपने संवैधानिक हक के दमन के खिलाफ मुखर हुई। पहले समाज और फिर महिला अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाला समूह उस महिला को न्याय दिलाने के लिए उसके साथ स्वयं खड़ा होता चला गया है।

भले ही महिला अधिकार के लिए संघर्ष करने वाला समूह उस महिला के व्यक्तिगत आस्था या उसके सामाजिक जीवन के अन्य सवालों से सहमत ना हो लेकिन वह उसके संवैधानिक हक के लिए उसके साथ संघर्ष करता है।

सवाल फिर चाहे भंवरी देवी ने उठाया हो या फिर फूलन देवी ने उठाया हो, सवाल इरोम शर्मिला ने उठाया हो या फिर सवाल निर्भया कांड के बाद सतह पर आया हो या फिर सवाल #Metoo के समय उठा हो। हर बार अकेली महिलाओं ने नारीवादियों को उनके समर्थन के लिए मज़बूर नहीं किया है।

आम महिला से नारीवादी महिलाएं इनके उठाए सवाल के साथ इसलिए जुड़ती चली गई, क्योंकि उनका खुद का सवाल भी उस सवाल से ही जुड़ा हुआ था। दुनिया के तमाम महिलाओं के समस्याओं के इसी एकरूपता को सिमोन द बोउवार ने अपनी किताब “सेकंड सेक्स” में दर्ज़ किया है। उसे पढ़कर यह एहसास होता है कि किताब हर एक महिलाओं के सवालों को बारीक तरीके से पकड़ती है और उसको दर्ज़ करती है।

पितृसत्ता का विरोध पितृसत्तात्मक तरीके से ही करना कितना ठीक है?

अब सवाल है कि क्या कंगना रनौत की मौजूदा समस्या जिससे जुड़ने के लिए नारrवादियों को तोहमत भेजी जा रही है। क्या आम महिलाओं के समस्याओं से जुड़ा हुआ है? मुझे तो व्यक्तिगत्त तौर पर यह नहीं लगता है। तमाम कथित नारिवादियों की गारंटी मैं नहीं ले सकता हूं।

इस बात पर एक बार सहमत हुआ जा सकता है कि सत्ता संरचना में मौजूद पुरुषवाद कंगना रनौत को परेशान कर रहा है? वह सार्वजनिक रूप से उनके बड़बोलेपन को बर्दास्त नहीं कर पा रहा है?

मगर यहां मजे़दार बात यह भी है कि कंगना रनौत सत्ता संरचना में मौजूद पुरुषवादी व्यवहार का जवाब भी पुरुषवादी भाषा सरंचना में देते हुए स्वयं भी पुरुषवादी पितृसत्ता की पैरोकार बनती चली जा रही है।

इस स्थिति में कोई भी नारीवादी पक्ष उनके नारी और अबला होने के बिंदु पर अगर बोले भी तो क्या वह उसी पुरुषवादी पितृसत्ता के साथ खड़ा हो जाए? क्या वह नारीवाद के मूलभूत थ्योरी के ही खिलाफ खड़ा रहे?

नारीवादी विचार में पक्षधरता रखने वालों ने अब तक न ही मौजूदा प्रसंग में कंगना रनौत के पक्ष का समर्थन किया ना ही सत्ता पक्ष के उनके साथ किए जा रहे व्यवहारों का।

उनकी समझ साफ है वे हर पीड़ित के पक्ष में खड़े रहना चाहते हैं लेकिन मैं पीड़िता, मैं अबला बोलकर हो-हल्ला मचाकर विमन कार्ड खेलने वालों के पक्ष में नहीं। वे महिला समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के साथ महिलाओं के संवैधानिक अधिकार के लिए सजग है और रहेगी भी।

सोशल मीडिया पर कंगना के पक्ष में जो सोशल सैनिक तोहमत और लानत भेज रहे हैं, वह कल भाजपा-शिवसेना गठबंधन पर सवाल खड़ा करने पर या उनके गलत फैसलों पर सवाल करने पर भी यही व्यवहार करते थे।

कल राजनीतिक मज़बूरियों में अगर भाजपा-शिवसेना साथ आ जाता है, फिर वे कंगना से पीछा छुड़ाते रहेंगे। जैसे वह कंगना के मुंबई को पाक अधिकृत कश्मीर कहने से पीछा छुड़ा रहे हैं। अफसोस सबसे अधिक इस बात का है कि बिका हुआ मुख्यधारा मीडिया कंगना के सवाल को मुख्य सवाल बनाकर देश के अन्य सवालों से मुंह चुरा रहा ह

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