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‘पिछले 70 वर्षों में आपने क्या किया’ कहने से क्या युवाओं को रोज़गार मिल जाएगा?

बेरोज़गार युवा

बेरोज़गार युवा

कोरोना वायरस का प्रकोप जिस गति से बढ़ रहा है, वह अत्यंत कष्टदायक है। देश में प्रतिदिन नए मामलों की बढ़ोतरी हो रही है मगर अब भारतवासियों ने कोरोना के साथ जीना सीख लिया है। जन जीवन एक बार फिर से सामान्य हो गया है। वैसे भी कोई भी आपदा मनुष्य को अधिक दिनों तक भयभीत नही कर सकती है।

हर आपदा अपने साथ आकस्मिकता और व्याकुलता लेकर आती है, जो कि प्रारम्भ में भय की उत्पत्ति तो करती है मगर अधिक दिनों तक नहीं! आपदा चाहे प्राकृतिक हो या मानव निर्मित, उसका सबसे संजीदा पक्ष है उसकी आकस्मिकता। इसी आकस्मिकता से एक नाटकीयता का पहलू भी जुड़ा है जो कि पुनः इसे सामान्यता से जोड़ता है।

हमने महामारी के साथ जीना सीख लिया है

प्रतीकात्मक तस्वीर।

मसलन, आपदा आने पर हम पहले भयभीत होते हैं, धीरे धीरे हमारा यह डर बढ़ने लगता है। फिर डरते-डरते हमारा मस्तिष्क हमें डर के एहसास से इतना रूबरू करा देता है कि डर का प्रभाव कम होने लगता है और हम वापस सामान्य होने लगते हैं। घटते-घटते यह डर इतना घट जाता है कि हमें हमारा न्यू नॉर्मल मिल जाता है और एक बार फिर से रूटीन लाइफ की शुरुआकत हो जाती है।

रूटीन वापस आते ही लोग एक बार फिर से व्यस्त हो जाते हैं। इस व्यस्तता का भी हमारे जीवन में बहुत गहरा प्रभाव है। मनुष्य अगर व्यस्त ना हो तो वो अपने जीवन में असामान्य चीज़ों की ओर आकर्षित होगा और जीवन में कुछ विचित्र की तलाश करेगा।

इस असमान्य को वो अपने दैनिक जीवन के हर पहलू में ढूंढेगा। वो काम पर ध्यान देने की बजाय चमत्कार की उपेक्षा करेगा, दिन भर परपंच का द्वार खोजने की कोशिश करेगा, वो जादू खोजेगा, वो कहानियों में जियेगा और लोगों की सुनी-सुनाई बातों को बिना परखे विश्वास करेगा। वो सवाल उठने की बजाय अपनी पसंद की सरकार का मुफ्त में प्रचार करेगा और अपने वैचारिक विरोधियो को देशभक्ति के दस्तावेज़ बांटेगा, वो फेसबुक और व्हाट्सप्प पर धर्म गुरु भी बनेगा और अपने धर्म की रक्षा हेतु फेसबुक पर क्रांति लाने की बात भी करेगा।

वो काटने की भी बात करेगा और उखाड़ने की भी, वो सुशांत के न्याय की भी बात करेगा और कंगना के घर की भी, वो रिया की भी बात करेगा और प्रिया की भी। वो सबके बारे में सोचेगा सिवाय खुद के। उसके पास शिकायतों का पुलिंदा तो है मगर वास्तविक समस्याओं का नहीं, बल्कि बेफिज़ूल के परपंच का।

वो ना तो बढ़ती बेरोज़गारी से डरता है और ना ही बढ़ती भुखमरी से। वो ना तो गरीबी और अमीरी की असमानता से डरता है और ना ही धार्मिक कट्टरता के मायाजाल से। वो अपनी मनपसंद नौकरी नहीं चाहता, बस मनपसंद सरकार चाहता है जिसके लिए वो मुफ्त में सोशल मीडिया पर  इंटर्नशिप करने के लिए तैयार रहता है।

वो पूरी सत्यनिष्ठा के साथ सरकार के अवैतनिक प्रवक्ता का पद संभाले हुए है, उसके पक्ष विपक्ष में प्रचार-प्रसार करता रहता है मगर इतने परिश्रम के बाद भी उसे रोज़गार की प्राप्ति नही हो रही है।

चौंकाते आंकड़ें

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

यह एक अत्यंत दुःख का विषय है कि आज भारत की युवा पीढ़ी बेरोज़गारी का जो स्तर देख रही है, वो उसे विश्व गुरु बनने से रोकने के लिए पर्याप्त है। इंटरनेट के इस दौर ने युवाओं के अंदर बहुत से व्यापक बदलाव कर डाले हैं। इंटरनेट से जितनी क्रांति नहीं पैदा हुई है, उससे कहीं ज़्यादा अशांति पैदा हो गई है। वैसे वस्तुएं कभी व्यसन नहीं होती, उनको इस्तेमाल करने के तौर तरीके उन्हें व्यसन बनाते हैं।

यही हाल इंटरनेट का भी है। इंटरनेट का ज्ञान लेकर हर कोई खुद को बैरिस्टर समझता है। इक्का-दुक्का को छोड़ दें तो अधिकांश आबादी तो उस ज्ञान की सत्यता तक नहीं जांचती है। मुफ्त में मिले इंटरनेट से उपजी आदत का नतीजा है कि आज के युवा फेसबुक, यूट्यूब, इंस्टाग्राम, पबजी, टिक टॉक (जो की कुछ युवाओं का रोज़गार था मगर अब सरकार ने छीन लिया है) के इतने शौकीन हो गए हैं कि सबकी 12 घंटे की शिफ्ट तो इसी में लगती है।

पिछले 45 वर्षो में पहली बार बेरोज़गारी दर ने 8 फीसदी के आंकड़े को पार किया है, जो कि लॉकडाउन के मई महीने में ऐतिहासिक और उच्चतम 23.5 फीसदी पर चला गया था। सरकार भले ही इसका ठीकड़ा कोरोना पर फोड़े मगर कोरोना तो मात्र एक मुखौटा है, बेरोज़गारी की असली नज़ीर तो सरकार ने युवाओं को पकौड़े बेचने वाली नसीहत पेश कर दे दी थी।

एक करोड़ नौकरियों का वादा करके सत्ता में आने वाली सरकार की नाकामी आज किसी से छुपी नहीं है, बिगड़ती अर्थव्यवस्था के बीच नौकरी की वार्षिक उत्पत्ति लगातार गिर रही है। सरकार के 1 करोड़ नौकरी के चुनावी वादे अब जुमले ही लग रहे हैं।

सबसे विस्मित करने वाले आंकड़े. तो एनएसएसओ ने पिछले वर्ष प्रस्तुत किये थे जिसके अनुसार भारत की आबादी की 50 फीसदी से अधिक वर्किंग पॉपुलेशन (यानि 15 वर्ष या उससे अधिक) श्रम शक्ति से बाहर है और किसी भी तरह की आर्थिक गतिविधि में उसका कोई योगदान नहीं है।

हमारा वोट ले लीजिए और हमें रोज़गार दे दीजिए

चुनावी रैली के दौरान लोग। फोटो साभार- Getty Images

सरकार भले ही असंगठित क्षेत्र की बेरोज़गारी का ठीकड़ा कोरोना पर डाल दे मगर प्रकाश के वेग से बढ़ती शिक्षित बेरोज़गारी का ठीकड़ा किसके सर पर फोड़ेंगे? क्या “पिछले 70 वर्षों में आपने क्या किया” कहने से हमारे युवाओं को आने वाले 70 वर्षों में बेहतर रोज़गार मिल जाएगा?

एक बार अपने दिल से यह सवाल कीजिए! क्या “सर्वाइवल ऑफ डी फिटेस्ट” के इस दौर में हमारे शिक्षित युवाओं के साथ न्याय हो रहा है? पीएचडी करने वाले स्टूडेंट्स क्लर्क की नौकरी के लिए आवेदन दे रहे हैं! 1 लाख रेलवे पदों के लिए करोड़ों में आवेदन प्राप्त हो रहे हैं!

ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट युवाओं के पास पढ़ाई पूरी होने के उपरांत नौकरी नहीं है! क्या यही इस युवा पीढ़ी का भविष्य है? रोज़गार से वंचित युवा पीढ़ी को लगातार बरगलाया जा रहा है! कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति के नाम पर तो कभी लिंग के नाम पर!

क्या इसी युवा पीढ़ी की परिकल्पना स्वामी विवेकानंद और गाँधी ने की थी? कल तक जिनके कंधों पर भारत को विश्व गुरु बनाने का उत्तरदायित्व था, आज वही युवा पीढ़ी राजनीतिक रूप से इस्तेमाल हो रही है और आज़ाद देश में उसके विचार आज भी गुलामी कर रहे हैं।

सीएमआइई के सर्वेक्षण के अनुसार, देश में शिक्षित युवाओं की आबादी का छठा हिस्सा बेरोज़गार है। कारण कई हो सकते हैं जैसे कि डिग्री तो है मगर हुनर की कमी है। लेकिन वो डिग्री भी इसी देश के विश्वविद्यालय या कॉलेज की है इसलिए जवाबदेही भी सरकार की ही बनती है, फिर चाहे वो कोई भी सरकार हो।

अब या तो सरकार शिक्षा के स्तर में सुधार करे या इन शिक्षित युवाओं को उनकी शिक्षा के अनुसार कौशल प्रदान करके उनको रोज़गार दिलाए। इसका फैसला सरकार को करना है लेकिन सरकार को यह याद रखना चाहिए कि सरकार कौन सी रहेगी इसका फैसला हम करेंगे!

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