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क्या आपको पता है भारत में सालाना कुल कितने टन प्लास्टिक कचरा निकलता है?

आज के वैज्ञानिक युग में ना केवल मानव विकास की रफ्तार बढ़ी है, बल्कि विज्ञान ने इंसान के जीवन को और भी अधिक सरल और सुविधाजनक बना दिया है। हालांकि नई तकनीक के प्रयोग ने कई बिमारियों से लेकर चुनौतियों और समस्याओं को भी जन्म दिया है।

विज्ञान और आधुनिक तकनीकों के प्रयोग ने प्राकृतिक वातावरण को दूषित ही नहीं किया, बल्कि मानवीकृत वैज्ञानिक वातावरण का जाल भी बिछा दिया है। तकनीक के इसी अंधाधुंध प्रयोग ने धरती के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। इस संबंध में जो सबसे
बड़ी समस्या उत्पन्न हुई, वह प्लास्टिक का अत्याधिक प्रयोग है।

प्लास्टिक 100 सालों तक भी नहीं होती है नष्ट

वर्तमान में देखा जाए तो प्लास्टिक का उपयोग मनुष्य के जीवन में लगभग सभी जगहों पर किया जा रहा है। बाज़ार में सामान खरीदने और बेचने के लिए भी पॉलीथीन के रूप में प्लास्टिक का धड़ल्ले से उपयोग किया जाता है।

जबकि विज्ञान के अनुसार प्लास्टिक एक ऐसा पदार्थ है जो जलाने पर भी पूर्ण रूप से नष्ट नहीं होता है। ऐसे में, आम लोगों द्वारा इसका उपयोग करने के बाद आम रास्तों, नालियों या खुले स्थानों पर फेंक देने से गन्दगी तो होती है, इसके पूर्ण रूप से नष्ट नहीं होने के कारण वातावरण भी प्रदूषित होता रहता है। 

विशेषज्ञों के अनुसार प्लास्टिक 100 सालों तक भी नष्ट नहीं हो पाती है। पॉलीथीन का उपयोग खाद्य वस्तुओं को रखने और लाने ले जाने में किया जाता है। जिसे बाहर फेंक देने पर जानवर उसको खा लेते हैं और वह उनके पेट में ज्यों की त्यों पड़ी रहती है जो उनमें गंभीर बीमारियों को जन्म देती है।

इस संबंध में राजस्थान में पर्यावरण पर काम कर रही संस्था सिकोईडिकोन के सदस्य सत्यनारायण योगी और गिरवर सिंह राजावत कहते हैं कि पॉलीबैग के ज़्यादा प्रयोग होने का प्रमुख कारण इसका सस्ता, हल्का और जलरोधक होना है। लोग आसानी से इसमें कोई भी सामान ले जाते हैं। यही कारण है कि यह हमारे दैनिक जीवन में बहुत अधिक प्रयोग में लाई जा रही है। 

पॉलीथिन जितनी सस्ती है, पर्यावरण के लिए उतनी ही खतरनाक भी है

आज लोग कपड़े, जूट और पेपर के बने बैग की जगह पॉलीबैग के प्रयोग को प्राथमिकता देते हैं। गिरवर सिंह राजावत के अनुसार, पॉलीथीन जितनी सस्ती और हल्की होती है, उससे कहीं अधिक पर्यावरण के लिए खतरनाक है। क्योंकि यह कभी नष्ट नहीं होती है।

यदि इसे मिट्टी में गाड़ा जाए तो इससे ना केवल भूमि की उर्वरक शक्ति समाप्त हो जाती है, बल्कि पेड़-पौधों को भी नुकसान पहुंचता है। यहां तक कि इसे जलाने पर भी पूरे वातावरण को नुकसान पहुंचने का खतरा बढ़ जाता है। 

प्रतीकात्मक तस्वीर

गिरवर सिंह कहते हैं कि अपनी थोड़ी-सी सुविधा और लालच के लिए इंसान ना केवल अपनी ही सेहत, बल्कि वातावरण और समूची सभ्यता से खिलवाड़ कर रहा है। पाॅलीबैग का उपयोग पर्यावरण को लगातार नुकसान पहुंचा रहा है। लाखों की मात्रा में पाॅलीबैग का उपयोग कुछ मिनटों से लेकर कुछ घंटो तक किया जाता है।

इसके बाद बिना किसी सुरक्षात्मक उपाय के उन्हें खुले में ही फेंक दिया जाता है। इससे जहां नालियां और सीवर जाम होते हैं, वहीं जानवर भी कूड़े-करकट के साथ उन्हें खा कर मौत का शिकार हो रहे हैं। सबसे बड़ी चिंता की बात इससे मिट्टी की उर्वरक क्षमता चली जाती है।

जयपुर नगर निगम के उपायुक्त नवीन भारद्वाज के अनुसार,

जयपुर में प्रतिदिन 1340 मीट्रिक टन कचरा निकलता है। जिसमें अकेले 200 मीट्रिक टन प्लास्टिक का कचरा होता है। जिसे उचित प्रक्रिया के माध्यम से निस्तारित करने का प्रयास किया जाता है लेकिन अन्य अपशिष्ट पदार्थों की तुलना में प्लास्टिक जल्दी नष्ट नहीं होता है। ऐसी परिस्थिति में जनता को स्वयं आगे आकर पर्यावरण की खातिर प्लास्टिक के उपयोग का त्याग करना चाहिए।  

वर्तमान में कोरोना की गंभीर स्थिति को देखते हुए जयपुर में 14 क्वारेटांइन सेंटर बनाए गए। जहां से मरीज़ों के इलाज के बाद बेकार प्लास्टिक कचरे को जयपुर से 13 किमी दूर मथुरादास गाँव में डंप किया जाता है। इससे वहां रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ने की आशंका बढ़ गई है। ऐसे में इस वैश्विक समस्या पर काबू पाना नितांत आवश्यक हो गया है।

प्लास्टिक बन रहा है धीरे-धीरे हमारा सबसे बड़ा दुश्मन

पाॅलिथीन से केवल पर्यावरण ही दूषित नहीं हो रहा है, बल्कि यह इंसान के स्वास्थ्य का भी सबसे बड़ा शत्रु साबित हो रहा है लेकिन मनुष्य इससे अनजान होकर जीवन के हर क्षेत्र में इसका उपयोग कर रहा है।

विशेषज्ञों के अनुसार गर्म खाद्य पदार्थों को पाॅलीबैग में रखने या सग्रहिंत करने से खाद्य पदार्थ भी पूरी तरह से रसायानिक हो जाता है। जिसका उपयोग करके मनुष्य स्वयं बीमारियों से घिर जाता है। प्लास्टिक के गिलासों में चाय या फिर गर्म दूध का सेवन करने से उसका केमिकल लोगों के पेट में चला जाता है। इससे डायरिया और कैंसर जैसी गंभीर बीमारियां हो रही हैं। 

पत्रकार गिरिराज प्रसाद बताते हैं कि भारत में सालाना लगभग 6 करोड़ टन कचरा निकलता है, जिसमें 25940 टन प्लास्टिक का कचरा होता है। वहीं लगभग 50 प्रतिशत प्लास्टिक सिंगल उपयोग वाला है। इनमें करीब 60 प्रतिशत का रिसाइकिल ही नहीं होता है। इनके अत्यधिक उपयोग की सबसे बड़ी वजह सस्ता और आसानी से उपलब्ध होना है।

सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि महिलाओं के लिए बनाए जा रहे सेनेट्री नेपकिन में भी परोक्ष रूप से प्लास्टिक का उपयोग किया जाता है। इस संबंध में स्त्री रोग विशेषज्ञ डाॅ. अनुराधा कपूर और आनंदी शर्मा के अनुसार नैपकिन बनाने में कॉटन के साथ-साथ प्लास्टिक और केमिकल का प्रयोग किया जाता है। जिससे यौन अंगों और बच्चेदानी में संक्रमण का खतरा बना रहता है। 

देश के शहरी क्षेत्रों की तकरीबन 77 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्रों की लगभग 40 प्रतिशत महिलाएं माहवारी के दिनों में प्लास्टिकयुक्त नैपकिन का प्रयोग कर संक्रमित हो रही हैं। वहीं, किशोर बालिका दीक्षिता शर्मा के अनुसार,

अशिक्षा के कारण अधिकतर महिलाएं सेनेट्री नेपकिन का इस्तेमाल करने के पश्चात इसे सुरक्षापूर्ण तरीके से नष्ट करने की जगह खुले में फेंक देती हैं। इससे संक्रमण का काफी खतरा होता है।

बहरहाल देश को प्लास्टिक मुक्त करने के लिए केंद्र की ओर से लगातार ठोस योजनाएं भी बनाई जा रही हैं। इसी कड़ी में 2022 तक देश को प्लास्टिक मुक्त बनाने का संकल्प लिया गया है लेकिन कोई भी योजना उस वक्त तक धरातल पर सफल नहीं हो सकती है। जबतक इसमें जनता की पूर्ण भागीदारी न हो।

हालांकि इस योजना में भागीदारी से अधिक संकल्प करने और उसे शत प्रतिशत अमल में लाने की ज़रूरत है। यदि हम सच में आने वाली पीढ़ी को नया भारत देना चाहते हैं, तो हमें दृढ़तापूर्वक प्लास्टिक की गिरफ्त से बाहर आने और इसका त्याग करने की आवश्यकता है। 

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