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भारत में दलित महिला आंदोलनों की क्या स्थिति रही है?

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घरेलू हिंसा के खिलाफ आवाज़ उठाती महिलाएं (प्रतीकात्मक तस्वीर)

पश्चिम के महिला आन्दोलन बनाम स्त्री मुक्ति या नारीवाद से बिल्कुल भिन्न स्वरूप में भारत में महिला आन्दोलन की नींव रखी गई। आर्यों के आगमन के बाद से ही भारत मे पुरूष प्रधान सामाजिक व्यवस्था विकसित होने पर पुरूष प्रभुत्व के कारण महिलाओं को समता मूलक अधिकार स्वाभाविक रूप से नहीं मिल पाए।

दूसरी ओर विषमता पर आधारित मानव जनित जाति-व्यवस्था के कारण दलित मानव अधिकारों से वंचित रहे हैं। चतुरवर्णीय जाति व्यवस्था जो धर्म और कर्म के युगल सिद्धांत पर आधारित है।

इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का यह परम कर्तव्य है कि वह प्रचलित सामाजिक व्यवस्था को अक्षुण रखे और उक्त व्यवस्था के अनुसार निर्धारित कर्म करते हुए बिना प्रतिवाद के धर्म की रक्षा करे, क्योकि इसका उल्लंघन भगवान को नाराज़ करने के बराबर है।

महिलाएं जाते व्यवस्था के अलावा पुरूषवादी मानसिकता का भी थी शिकार

इस व्यवस्था के अनुसार दलित वर्ग को निम्नतम सामाजिक स्तर के साथ ऊपर के वर्णों की सेवा का दायित्व निर्धारित किया गया और इसके अलावा उन्हें शिक्षा प्राप्त करने की पूर्ण मनाही थी। भारतीय महिलाएं लिंग, वर्गभेद जनित समस्याओं के अलावा पुरूष प्रभुत्व के कारण उत्पन्न समस्याओं को झेलने को अभिशप्त थीं।

वहीं दलित महिलाएं सामाजिक व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर स्थित होने के कारण दलित महिलाओं की स्थिति अत्यंत खराब थी, वे चार प्रकार के उत्पीड़न का दंश झेलने को अभिशप्त रही हैं। इसी कारण से दलित महिलाओं को “दलितो में दलित” की भी संज्ञा दी गई और समाज में उनकी स्थिति बद से बदतर ही रही है।

प्रतीकात्मक तस्वीर

भारत में दलित महिलाओं की समस्या आम महिलाओं से अलग होने के कारण यहां दलित महिला आंदोलन की अलग से आवश्यकता पड़ी।यद्यपि दलित महिलाएं उत्पीड़न के विरोध में सदैव एक्टिव रही हैं लेकिन दुर्भाग्यवश भारत में सदैव से साहित्यकारों और इतिहासकारों के द्वारा इनकी समस्याओं को अपनी लेखनी मे उचित स्थान ना दिए जाने के कारण दलित महिला समस्या तथा उनके आंदोलन की सही स्थिति रेखांकित कर पाना दुरूह एवं अधिक श्रमसाध्य रहा है।

दलित महिला उत्पीड़न की जडे़ं व्यवस्था जनित हैं

प्राचीन इतिहास के सूक्ष्म विश्लेषणात्मक अध्ययन से पता चलता है कि दलित महिला उत्पीड़न की जडे़ं व्यवस्था जनित प्रतीत होती हैं, क्योंकि दलितों और महिलाओं को शिक्षा और अन्य मानव अधिकारों से वंचित करके उन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से धीरे-धारे कमज़ोर होने को मजबूर किया गया तथा दूसरी ओर धार्मिक प्रथाओं के द्वारा उन्हें अव्यवहारिक प्रथाओं और अंधविश्वासों को मानने के लिए अभ्यस्त किया गया।

‘देव दासी प्रथा’ एक ऐसी ही प्राचीन प्रथा है, जिसके द्वारा भारत के कुछ क्षेत्रों खासकर दक्षिण भारत में गैर-ब्राह्मण महिलाओं को भगवान या देवताओं की सेवा के नाम पर मंदिर में खुद को समर्पित कर मंदिर के ब्राह्मण पुजारियों की सेवा करनी पड़ती थी।

प्रतीकात्मक तस्वीर

इस प्रथा में शामिल महिलाओं के साथ मंदिर के पुजारियों ने यह कहते हुए शारीरिक संबंध बनाने शुरू कर दिए कि इससे उनके और भगवान के मध्य सम्पर्क स्थापित होता है। धीरे-धीरे यह उनका अधिकार बन गया, जिसको सामाजिक स्वीकार्यता भी मिल गई। उसके बाद राजाओं ने अपने महलों में देवदासियां रखने का चलन शुरू किया।

मुगल काल में जब इनकी संख्या काफी अधिक हो गई और इनके भरण-पोषण में राजाओं को असुविधा होने लगी, तब देवदासियां सार्वजनिक सम्पत्ति बन गईं। इस प्रकार दलित महिलाओं को धर्म और आस्था के नाम पर वैश्यावृत्ति के दलदल में धकेला गया।

वर्ण-भेद पर आधारित एक प्रचलित कुप्रथा

वर्ण-भेद पर आधारित इसी प्रकार की एक अत्यंत घृणित प्रथा त्रावणकोर राज्य में प्रचलित थी, जिसके अनुसार निम्न वर्ग की महिलाओं को सार्वजनिक रूप से शरीर का ऊपरी भाग अनावृत रखना होता था, साथ ही कुछ उच्च समुदाय यथा-नायर आदि की महिलाएं अछूतों के सामने शरीर का ऊपरी वस्त्र धारण कर सकती थीं लेकिन नम्बूदरीपाद ब्राह्मण समाज के सामने शरीर के ऊपरी हिस्से का वस्त्र धारण करने की अनुमति नहीं थी।

वहीं नम्बूदरीपाद ब्राह्मण केवल और केवल भगवान की मूर्ति के सामने ऊपरी वस्त्र नहीं पहनते थे। 19वीं सदी के प्रारंभ में त्रावणकोर राज्य में अवर्ण-अछूत महिलाओं द्वारा उक्त प्रथा के विपरीत शरीर के ऊपरी हिस्से पर वस्त्र धारण करने की दशा में “मुलाक्करम” नामक टैक्स लगा दिया गया।

लड़कियों के स्तन विकसित होते ही वहां की दलित महिलाओं को लोक-लाज से बचाव हेतु येनकेन प्रकारेण इस कर को चुकाना पड़ता था या अनेक तरह के उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता था।

इस कुप्रथा के प्रति विरोध शुरू से ही आरंभ हो गया था लेकिन सन् 1803 में यह विरोध चरम पर पहुंच गया जब चेरथला गाँव में अछूत ‘एजवा’ जाति की नंगेली नामक साहसी महिला ने मुलाक्करम (brest tax) का डटकर विरोध किया और अपने शरीर के ऊपरी हिस्से को अनावृत रखने से इंकार किया। जब राज्य के कर अधिकारियों ने कर के लिए दवाब बनाया तो उसने स्तन काटकर पेड़ के पत्तों पर रख कर उसे सौंप दिया।

अधिक रक्त स्राव के कारण उस महिला की मौत हो गई, जिससे दुखी होकर इस कुप्रथा एवं पत्नी वियोग मे उसके पति चिरूकंदन ने भी पत्नी की चिता में कूदकर प्राण त्याग दिए। इस घटना के बाद इस घृणित प्रथा के विरोध में कई आंदोलन हुए, जिसके परिणाम स्वरूप राजा ने स्तन टैक्स समाप्त कर दिया लेकिन स्तन ढंकने पर रोक जारी रही।

अछूत महिलाओं को ऊपरी वस्त्र धारण करने के अधिकार के लिए निम्न जाति के लोगों को कई वर्षो तक लडा़ई लड़नी पड़ी। इस आंदोलन के लिए लोगों को संगठित कर तत्कालीन दलित समाज सुधारक अयंकली (1863 -1941) ने सशक्त तरीके से इस कुप्रथा का विरोध किया तथा सामाजिक जागरूकता के लिए स्कूलों की स्थापना पर भी ज़ोर दिया।

इन सभी के परिणामस्वरूप आखिरकार मद्रास के तात्कालिक गवर्नर ने सन् 1865 के अपने आदेश द्वारा सबको ऊपरी वस्त्र पहनने की आज़ादी प्रदान की।

इस प्रकार की विषमता मूलक प्रथाओं के भारत में प्रचलन से यह कहने में अतिश्योक्ति ना होगा कि भारत में दलित और दलित महिलाएं पिछड़ी नहीं थीं, बल्कि उन्हें जान बुझकर पिछाड़ा गया है। उन्हें समुचित अवसर ही नहीं दिया गया, जिसके वे हकदार थे और संभवतया इन्हीं विषमताओं के सुधार हेतु उत्पन्न हुए सामाजिक आंदोलन के दौरान ही समान अधिकारों की प्राप्ति हेतु दलित महिला आन्दोलन की उत्पत्ति हुई।

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