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बिहार चुनाव में आखिर कहां खड़ी है भाजपा?

बिहार भारतीय जनता पार्टी के लिए वह अभेद चक्रव्यूह है जिसको आज तक अपने दम-खम से नहीं भेद सकी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लहर में भले ही लोकसभा के अधिकांश सीटों पर भारतीय जनता पार्टी का कब्जा हाल के दो लोकसभा चुनावों में रहा है लेकिन बिहार विधानसभा चुनावों में पिछली बार जब भारतीय जनता पार्टी अकेले अपने विजय रथ पर सवार थी तब उनको मुंह की खानी पड़ी थी।

जबकि पिछली विधानसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तबातोड़ 35 विशाल जनसभाएं की थीं, केंद्रीय मंत्रीमंडल के अधिकांश सदस्य बिहार में ही अपना रैन बसेरा बसा लिया था। तमाम कोशिशों के बाद भी भारतीय जनता पार्टी मात्र 50 सीटों पर ही सीमट गई।

उस समय भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष और भारतीय जनता पार्टी के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह ने एड़ी-चोटी का जोड़ लगा दिया था। भारतीय जनता पार्टी के लिए उत्साहजनक बात बस यही थी कि उनके वोट प्रतिशत में पहले के लिहाज़ में बढ़ोत्तरी ही हुई थी।

बिहार भाजपा के लिए अभेद दुर्ग क्यों है?

बिहार में अपनी स्थापना के बाद से भारतीय जनता पार्टी लंबे समय तक सवर्णों और पूंजीपतियों की पार्टी बनी रही। पहले कांग्रेस से मोहभंग हुए लोगों का रूझान भारतीय जनता पार्टी के तरफ हुआ और फिर उनके ऊपर से राजनीतिक रूप से अछूत पार्टी का तगमा 1998 में जार्ज फर्नांडिश, शरद यादव और नीतिश कुमार जैसे लोगों ने तोड़ा और उन्हें सर्व स्वीकार्य बनाया।

इसके एक साल बाद तो भाजपा के अछूत होने का सबाल बौना हो गया और पार्टी कांग्रेस विरोधी राजनीति की धुरी बन गई। बिहार में चूंकि एक चुनावी समीकरण के लिहाज़ से सवर्ण राजनीति हाशिए पर जा चुकी थी, तो पहले सवर्ण बहुल वोट के बीच में अपनी राजनीतिक पहचान स्थापित की।

प्रतीकत्मक तस्वीर

आज देशभर में अपना विस्तार करने के बाद भी भारतीय जनता पार्टी बिहार में आत्मनिर्भर नहीं है, उसकी मजबूरी है कि वह बिहार में किसी क्षेत्रीय दल के साथ खड़ी रहे। दूसरे राज्य की तरह बिहार में भी भाजपा के कार्यकत्ता चाहते हैं कि उनकी अपनी स्वतंत्र सरकार बने।

कार्यकत्ताओं का मन रखने के लिए बीच-बीच में शीर्ष नेता बयानबाजी कर देते हैं जिसको केंद्रीय नेतृत्व लीपपोत कर बार-बार कहने को मजबूर होते है कि नीतिश के नेतृत्व में एनडीए एकजुट है।

क्या भाजपा के पास बिहार में कोई विकल्प है?

2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भाजपा को यह लगने लगा था कि वह बिहार में अपने दम पर सरकार बना सकती है। जब राज्य के पिछड़े-दलित-अल्पसंख्यक एक साथ हो गए और उनको तीसरे नंबर पर ढ़केल दिया तब से भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व का आत्मविश्वास खो चुका है।

भाजपा जान चूंकि है कि वह अपने दम पर बिहार में कुछ नहीं कर सकती है इसलिए नीतिश कुमार के हर शर्त को मानने को तैयार है। भारतीय जनता पार्टी की इस मजबूरी को चिराग पासवान भी जान चुके हैं, इसलिए वह बार-बार अधिक सीटों का दवाब भारतीय जनता पार्टी पर डाल रहे है। संभवत: वह उसमें कामयाब भी हो जाए और भाजपा स्वयं को कम सीटों पर समेट भी ले।

भाजपा की मुख्य मजबूरी यह भी है कि वह बिहार में 15 साल से शासन में साझीदार होने के बाद भी अपना कोई मजबूत नेता तैयार नहीं कर सकी है। उनके पास कोई चमत्कारी चेहरा नहीं है जिसको वह नीतीश के मुकाबला खड़ा कर सके।

राजनीतिक पंडितो का मानना है संभवत: नीतिश कुमार का यह चुनाव उनकी आखरी पारी हो इसलिए वह चिराग पासवान को भी नाराज नहीं करना चाहती है। भारतीय जनता पार्टी जानती है कि 2025  में उनको चिराग पासवान की जरूरत पड़ सकती है।

भाजपा को मौजूदा चुनाव में क्या फायदा है?

मौजूदा विधानसभा चुनाव में भाजपा स्वयं को फायदे में देख पा रही है, क्योंकि बिहार के लोगों का गुस्सा नीतीश कुमार पर ज़्यादा दिख रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर उनका भरोसा अभी कम नहीं हुआ है। तमाम विपक्षी दल भी नीतीश कुमार पर जनादेश के वादा खिलाफी और कई तरह के आरोप लगा रहे हैं। एक बड़ा वर्ग सत्ता परिवर्तन भी चाहता है।

इन परिस्थितियों में भाजपा स्वयं को कम नुकसान में देख रही है। भारतीय जनता पार्टी 2025 के विधानसभा चुनाव के पूर्व तैयारी के तौर पर इस चुनाव को देख रही है। जिन भी विधानसभा सीटों पर वह दूसरे और तीसरे स्थान पर रहेगी, वहां पांच साल मेहनत करके उसको जीतने की कोशिश ज़रूर करेगी, इसलिए वह अधिक परेशान नहीं है।

यह कह सकते हैं कि जहां एक तरफ नीतीश कुमार के पास अपनी सियासत को बचाने की चुनौती है, तेजस्वी यादव के पास अपनी विरासत को बचाए रखने की चुनौती है। वहीं, दूसरी तरफ चिराग पासवान के पास नई उम्मीद को यकीन में बदलने की चुनौती है और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के पास भी स्वयं को साबित करने की चुनौती है।

वह भी भाजपा के अध्यक्ष बनने के बाद अपनी पहली चुनावी परीक्षा दे रहे हैं। लोकसभा चुनावों के अपार सफलता के बाद सात राज्यों में सत्ता गंवाने के बाद अब उनको फूंक-फूंक कर ही अपने कदम रखने हैं, वह इतना तो जानते हैं।

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