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कोरोना काल में आखिर टीचर्स को क्यों नहीं दी जा रही है सैलरी?

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Representational image.

रोज़गार शब्द दिमाग में आते ही एक ही ख्याल आता है, वह है नाकामयाबी का। कोरोना काल से पहले भी जॉब की हालत कोई खास अच्छी नहीं थी। प्रताड़ना, शोषण, सब कुछ था। बस पेट के लिए यह सब झेलने के लिए ज़िन्दगी ने मज़बूर किया हुआ था।

विद्या के मंदिर में भी यही भेदभाव कि मुस्लिम टीचर है कहीं बच्चों का धर्मांतरण ना करवा दे। कहीं इस्लाम के तौर तरीके ना सिखा दे। ऐसी ही ना जाने कितनी बातों में मैं घिरा हुआ था।

युवा पुरुष भी कम शोषण नहीं झेलते हैं

मैंने हमेशा से मानवता के धर्म को प्राथमिकता दी है। धर्म के आडंबरों से तो वास्ता बहुत बाद में आता है। ऐसे में 2014 से मैंने बहुत सारे भेदभाव का सामना किया। कहीं कुछ कमी नहीं होती थी, तो सैलरी स्लिप पर ज़्यादा सैलेरी पर साइन करना पड़ता और मिलते आधे पैसे।

सवाल करने पर यही कहा जाता, “अभी आपके एक्सपीरियंस बहुत कम हैं। जबकि मेरे विषय में हमेशा से 100% रिज़ल्ट रहता था। यह सब भी मंज़र था, क्योंकि परिवार की रोटी का जो सवाल था।

इन सब के बीच अगर काम करना बंद कर दें, तो दुनिया वालों के ताने सुनो। इन तानों के एक-एक शब्द जैसे फ्री की रोटी तोड़ने की आदत हो गई है, कामचोर है, मेहनत करना नहीं चाहता आदि रात दिन कानों में गूंजते रहते हैं। इन सब बातों से बचने के लिए पुरुषों को शोषण के कुएं में कूद जाना पड़ता है। युवा पुरुष भी कम शोषण नहीं झेलते। उनके ऊपर जॉब करने का ज़्यादा प्रेशर होता है।

प्रतीकात्मक तस्वीर

जॉब तो करनी ही है, लेकिन इसी दौरान खबर आती है कोरोना की। हम सब स्टाफ रूम में नौंवी और ग्यारहवीं कक्षा के पेपर चेक कर रहे थे। तभी प्रिंसिपल ने टीचर ग्रुप में लॉक डाउन का एक लिंक शेयर कर दिया। तब तो हमने ज़्यादा गंभीरता से नहीं लिया, मगर घर जाकर पता लगा सब कुछ बन्द होने जा रहा है। उसको सुनकर भी मुझे लगा चलो कोई बात नहीं घर पर बैठ कर रिज़ल्ट बना लेंगे और पेपर चेक भी हो जाएंगे। इतने में 23 टीचर्स के व्हाट्सएप्प

ग्रुप में प्रिंसिपल मैम का मैसेज आता है, “फिलहाल के लिए सरकारी निर्देशानुसार आप लोगों को अवकाश दिया जा रहा है, अगला संदेश आने तक प्रतीक्षा करें।”

एक मैसेज ने सभी को विचलित कर दिया

यह मैसेज पढ़कर सभी टीचर परेशान होने लगे। मैंने हड़बड़ी में मैडम को फोन किया। उन्होंने कहा अभी के लिए आप लोगों को जॉब से हटाया जा रहा है। इतना सुनते ही मैंने फोन पर ओके बोल कर फोन काट दिया। मेरे दिमाग में ऐसा लगने लगा जैसे कोई कीड़ा चल रहा है। पूरा शरीर पसीने से भीग गया।

फिर मैंने यह बात घर में बताई तो उन्होंने कहा कि सैलेरी तो मिलेगी, चाहे आधी मिले। मैंने थोड़ी राहत की सांस ली। मैंने दूसरे दिन दोबारा मैडम को फोन किया। प्रिंसिपल ने झुंझला कर बोला “आपकी नौकरी अब नहीं है, तो सैलरी का भी कोई ऑर्डर नहीं आया।” तब तक मैं समझ गया था कि ज़िन्दगी का पासा पलट चुका है। हाथ से सब निकल चुका है।

जब बच्चों से फीस ली जा रही है, तो टीचर्स को क्यों निकाला जा रहा है?

कुछ दिन बाद मालूम हुआ कि स्कूल में बच्चों से फीस ली जा रही है लेकिन टीचर्स को निकाल दिया गया। जो लोग बच्चों की ऑनलाइन क्लास ले रहे थे वह प्रिंसिपल के बेटे, बेटी और रिश्तेदार थे। मुझे ऐसा लगा मैंने दोहरी मार खाई।

बहरहाल, मैं चुप हो गया। मेरी मानसिक स्थिति इतनी दयनीय हो चुकी थी जिसका कोई अंदाज़ा भी नहीं लगा सकता। मुझे 15-20 दिन तक तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। फिर मैंने अपने फैमिली डॉक्टर्स से बताया कि मुझे नींद भी नहीं आती, न भूख लग रही। मुझे सुसाइडल थॉट्स आ रहे हैं। ऐसा लगता है मर जाऊं। मेरी यह बात सुनकर डॉक्टर थोड़ा असहज हो गए और उन्होंने मुझे सख्त हिदायत दी कि मैं आज ही किसी मनोचिकित्सक से कंसल्ट करूं।

प्रतीकात्मक तस्वीर

डॉक्टर से बात की, उन्होंने मेरा साइको मैट्रिक टेस्ट लिया और पाया मुझे मेजर डिप्रेसिव डिसऑर्डर है। इसकी साफ वजह यही थी कि मुझे मेरी बेरोज़गार स्थिति काटने को दौड़ती थी। जैसे तैसे 5 दिन की दवाई ली। कुछ सेविंग्स थीं जो इसी इलाज में खत्म हो गईं। सरकारी अस्पताल के ओपीडी बिल्कुल पूरी तरह से बंद हो चुके हैं। मैं वहां से भी मदद नहीं ले पाया।

पता नहीं था यह महामारी दवाईयों से दोस्ती करवा देगी, जि सपने में भी नहीं सोचा था मैंने। पिछले 6 महीने से दवाई पर ही निर्भर हूं। जॉब तो दूर की बात है आज कल तो कॉल सेन्टर में भी जॉब मिलना नामुमकिन है। इस महामारी ने न जाने कितने ही लोगों को बर्बाद किया होगा। मेरी तरह सैकड़ों लोग होंगे। यह बीमारी हमने जानबूझकर तो नहीं बुलाई। बस अब यही सोचना होगा कि हालातों को कैसे सुधारें।

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