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समाज कब तक लड़कियों के कपड़े देखकर उन्हें कैरेक्टर सर्टिफिकेट बांटता रहेगा?

मौजूदा भारतीय समाज में महिलाओं की वास्तविक स्थिति का मूल्यांकन तीन घटनाओं के संदर्भ में करें, तब जो तस्वीर उभरकर हमारे सामने आती है वह यही बताती है कि आज भी महिलाओं की स्वतंत्र उपस्थिति सार्वजनिक जीवन में सामान्य नहीं है।

तीनों घटना महिलाओं की खबरों में, सार्वजनिक जगहों पर और घरों में उनकी उपस्थिति और उनकी सुरक्षा के सवाल को तार-तार कर देते हैं।

एक महिला के आरोपी होने पर मीडिया का व्यवहार बेहद डरावना है

सोशल मीडिया पर महिलाओं से जुड़ी तीन घटनाएं तेज़ी से वायरल हो रही हैं। पहला, मीडिया की भीड़ में धक्के खाती हुई बॉलीवुड अभिनेत्री और अब आरोपी रिया चक्रवती पूछताछ के लिए जाती हुई>

इस तस्वीर को अगर बॉलीवुड के कई अन्य मामलों में पुरुष अभिनेता के आरोपी तय होने के बाद मीडिया ट्रायल के तस्वीरों के साथ जोड़कर देखे जाए, तो एक साथ कई सवाल सतह पर उठकर खड़े हो जाते हैं कि मीडिया का व्यवहार महिलाओं के आरोपी होने पर किस तरह का है और क्यों है?

दूसरी घटना भारतीय समाज की तंग मानसिकता है। जब संयुक्त्ता हेगड़े जो साउथ इंडियन फिल्म की अभिनेत्री है, अपनी दोस्त के साथ स्पोर्ट्स ब्रा पहनकर वर्कआउट कर रही थी, तभी काँग्रेस की नेता कविता रेड्डी और उनकी दोस्त शर्म, हया और लाज-लज्जा का पाठ पढ़ाने लगीं।

वहां भीड़ इकठ्ठा करके पार्क के मेन गेट पर ताला लगवाकर संयुक्ता और उसकी दोस्तों को कैद कर दिया। संयुक्त्ता ने लाइव वीडियो बनाया और लोगों को पूरी घटना से अवगत कराया। यहां तक कि उन्हें “नंगा नाच करने वाली” तक कहा गया।

संयुक्ता ने पुलिस शिकायत दर्ज की। जब सोशल मीडिया पर कविता रेड्डी की काफी खिचाई हुई तब कविता ने संयुक्ता से सार्वजनिक माफी मांगी।

लड़कियों के कपड़े देखकर कब तक सर्टिफिकेट बांटेगा समाज

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

यहां महत्वपूर्ण यही है कि समाज और अपना देश भी कब तक लड़कियों के कपड़े देखकर उसको कैरेक्टर सर्टिफिकेट बांटता रहेगा? कब तक लड़कियां मोरल पुलिसिंग बर्दाश्त करती रहेंगी? कब लड़कियों के साथ सार्वजनिक हिंसा बंद होगी?

तीसरी घटना बिहार के मुज़फ्फरपुर शहर ही है, जहां नकाबपोश अपराधी चहारदीवारी फांदकर व्यवसायी के घर में घुसे और डकैती करने के साथ-साथ व्यवसायी की बेटी को भी उठाकर ले गए। अभी तक उस नाबालिग बच्ची का कोई सुराग नहीं मिला है। बिहार सरकार और पुलिस प्रशासन मौन है।

गौरतलब है कि इसी मुज़फ्फरपुर के शेल्टर होम्स में मासूम बच्चियां सुरक्षित नहीं थीं साल भर पहले। अब घरों में भी नाबालिग बच्चियां सुरक्षित नहीं हैं।

तीनों घटनाओं में समाज और सामाजिक संस्थाओं का व्यवहार यह बता देता है कि भारतीय समाज में आधी आबादी का जीवन ना घर में सुरक्षित है और ना ही घर के बाहर। वे ना केवल अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं, बल्कि वे सामाजिक सुरक्षा की भी लड़ाई लड़ रही हैं। परिवार, समाज और सरकार तीनों ना ही उनके अस्तित्व को सम्मान दे सके हैं और ना ही उनकी सामजिक सुरक्षा को सुरक्षित कर सके हैं।

इन सवालों को लेकर आधी आबादी जब भी मुंह खोलती है, तो मर्दवादी समाज, सरकार और सामाजिक संस्थाओं के पुरुषवादी चरित्र की आंखें बाहर आ जाती हैं। महिलाओं की मौजूदा स्थिति को देखकर भगवान ब्रह्मा का वह वरदान याद आता है जो उन्होंने हिरणकश्यक को दिया था और कहा था, “तू ना घर में, ना बाहर में, ना दिन में, ना रात में, ना ही किसी स्त्री और ना ही किसी पुरुष के हाथों मारा जाएगा।” 

इसी तरह आधी आबादी, “ना घर में सुरक्षित है, ना घर के बाहर, ना ही दिन में, ना ही रात में, ना ही पुरुष से सुरक्षित है और ना ही स्त्री से।”

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