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मुसलमानों को लेकर पूर्वाग्रह से आखिर कब तक ग्रसित रहेगा देश?

भारत जो कभी ऋषियों, मुनियो, सूफी संतो का देश कहा जाता था, आज अपनी उस पहचान को बचाने की लड़ाई लड़ रहा है। पिछले कुछ बरसों में लोगों की सेंटीमेंट बहुत ही रिकॉर्ड गति से कमज़ोर हुई है। सेंटीमेंट इतना कमज़ोर हो चुका है कि किसी के गाली भर दे देने मात्र से उसको मौत के घाट उतार दिया जाता है। सहनशक्ति लगभग खत्म हो चुकी है, रोज़ाना हम पांच-दस रूपये के लिए मौत की खबरें पढ़ते हैं।

संवेदनाएं मर चुकी हैं। सहनशीलता अपनी अंतिम सांसे गिन रही है। कल हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल दी जाती थी लेकिन आज लोग खुले तौर पर ऐसे शब्दों से गुरेज़ करते नज़र आते हैं। कभी सेकुलरिज्म पर भारत को नाज़ था, आज उसे कुछ लोग गाली समझते हैं, तो कुछ लोग गाली और आपत्तिजनक शब्द समझते हैं। वहीं, दूसरी ओर कट्टरवाद का लोग गर्व से समर्थन करते हैं।

प्रतीकात्मक तस्वीर, तस्वीर साभार-गेटी इमेजेज

सिस्टम का यह हाल है मानो उनको क्राइम से नहीं नाम से नफरत हो, अब हम उसमें भी हिन्दू, मुसलमान, प्रान्त और जाति ढूंढते हैं। पूर्वाग्रह इस कदर हावी है कि घटना होते ही हम जाति और धर्म का अंदाज़ा लगा लेते हैं।

खासकर मुसलमानों की एक ऐसी छवि बना दी गई है कि अगर कहीं कोई घटना होती है, तो लोग बिना सोचे या जाने गाली या आपत्तिजनक शब्दों के साथ मुसलमानों को गाली देना शुरू कर देते हैं। सहने के साथ-साथ हमारी सोचने की शक्ति भी शून्य होती जा रही है।

ऐसे माहौल में भारत में मुसलमान होना कितना कठिन और चुनौतीपूर्ण है?

ऐसा नहीं है कि माहौल, कम पढ़े-लिखे लोगों के बीच में ही बिगड़ा है, बल्कि पढ़े लिखे, वाइट कॉलर जॉब, डॉक्टर्स, रिटायर्ड पुलिस, फौजी यहां तक कि पत्रकारों में नफरत कूट-कूट कर भर दी गई है या भरी हुई है। टीवी खोलने के बाद ऐसा महसूस होता है कि देश में सारी मुसीबतों के जड़ मुसलमान ही हैं। मुसलमानों के खाने-पीने बोलने बात करने से लेकर हर चीज़ में लोगों के अंदर पूर्वाग्रह शामिल है।

इसे विडंबना कहें या कुछ और लेकिन यह सच है की देश के मुसलमानों ने हमेशा अपना रहनुमा या नेता किसी गैर-मज़हब, सेक्युलर सोच रखने वाले नेताओं को ही माना है।

प्रतीकात्मक तस्वीर

जवाहर लाल नेहरू, जयप्रकाश नारायण,  ममता बैनर्जी, लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव, के.सी.आर. और अरविन्द केजरीवाल जैसे नेता हों या इन जैसे ही कोई और नेता,  ऐसे नेताओं को ही देश के ज़्यादातर मुस्लिमों ने अपना नेता चुना है और माना लेकिन इन नेताओं में से किसी ने मुसलमानों के बारे में सही मायने में क्या किया सिवाय एक वोट बैंक समझने और तुष्टिकरण के?  शायद कुछ नहीं किया।

वैसे तो देश के नेताओं से उम्मीद करना ही बेईमानी होगी बावजूद इसके किसी ने भी कुछ सराहनिय काम नही किया। मेरी जितनी जानकारी है उसके अनुसार जवाहर लाल नेहरू के बाद सभी राजनेताओं ने मुसलमानों का इस्तेमाल ही किया है,  इंदिरा गाँधी के दौर में मुसलमानों के प्रति तुष्टिकरण की राजनीति की शुरुआत हुई जो राजीव गाँधी के ज़माने में चरम पर पहुंची।

यही वजह है कि कभी बाबर के नाम पर तो कभी सीरिया, लीबिया या ऐसे देशों के नाम पर ताने मारे जाते हैं जिसके बारे में ना तो बोलने वाले को पता होता है और ना सुनने वाले को पता होता है। जबकि सचाई यह है कि दुनिया की 60 फीसदी से ज़्यादा मुस्लिम आबादी मध्य पूर्व और पाकिस्तान के बाहर रहती है।

मुसलमानों को लेकर पूर्वाग्रह से ग्रसित क्यों है समाज?

मुसलमानों को हमेशा यह एहसास दिलाया जाता हैं कि इस देश में सरकार से सवाल मुसलमान नहीं पूछ सकता। मुसलमानों को प्रदर्शन करने का अधिकार नहीं है, अधिकारों और हकूक की बात मुसलमान नहीं कर सकता। लड़ने वाला कोई भी हो गाली मुसलमानों को ही दी जाएगी इसका जीता जागता उदाहरण सुशांत सिंह राजपूत और कंगना रनौत का मामला है।

कुछ पढ़ा-लिखा तबका इस बात की वकालत भी करता है कि मुसलमानों से मतों का अधिकार भी छीन लिया जाना चाहिे क्योंकि उनकी वजह से देश की सत्ता बहुत प्रभावित होती है, मुझे ऐसे लोगों से संवेदनाएं हैं। इनलोगो को यह बात भी कहनी चाहिए कि देश के मुसलमानों को टैक्स भी नहीं देना चाहिए और वोट भी नहीं जैसा कि कुछ तबका चाहता है।

प्रतीकात्मक तस्वीर

एक तरफ जहां एक अखंड भारत जिसमें बांग्लादेश और पाकिस्तान को शामिल करने की बात होती है, तो वहीं दूसरी ओर भारत के लगभग 15 प्रतिशत आबादी को आप देश के 85 फीसदी आबादी का दुश्मन घोषित करने के लिए जी जान से कोशिश कर रहे हैं।

मुसलमानों से नफरत इस तरह हमारी सोच में घुस चुकी है कि हम मुसलमानों को ना जाने किस-किस नाम से पुकारने लगे हैं। उनकी तरक्की पर सवाल करते हैं, उनके पढ़ने-लिखने से खाने-पीने तक पर सवाल किया जाता है।

ताल ठोक के किसी मुस्लिम बुजुर्ग से बदतमीज़ी करता है, तो प्रशासनिक सेवाओं के परीक्षा में मुसलमनो की कामयाबी खटकती है और फिर यही लोग बाद में यह भी कहते हैं कि यह कौम तरक्की करना ही नहीं चाहती है।

हालांकि आबादी के अनुपात में मुसलमानों की आबादी स्कूल कॉलेज से लेकर सरकारी नौकरी तक में कम है लेकिन बावजूद इसके अगर कुछ लोग मेहनत की बदौलत आगे बढ़ते हैं, तो इसके साथ जिहाद को जोड़कर ओछी और गिरी हुई सोच का प्रदर्शन किया जाता है।

टीवी और अखबारों के ज़रिए खुलेआम फैलायी जा रही है नफरत

अब टीवी और अखबारों के ज़रिए खुलेआम भेदभाव किया जाने लगा है। कुछ समय पहले का किस्सा आपको याद ही होगा जब मैसूर के एक अखबार ने एक धर्म विशेष के नरसंहार के लिए एक एडिटोरियल लिख दिया था, हालांकि बाद में उसे हटाया गया लेकिन नफरत फैलाई जा चुकी थी।

इनके जिहादों के सवरूप को देख के खुद मौलवी और इस्लाम के जानकार सदमे हैं, आखिर यह जिहाद कहां था, जिहाद एक अलग टॉपिक है जिस पर बात फिर कभी।

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देश का मुस्लिम होने की वजह से पहले सरकार आपको दूसरे दर्जे़ का नागरिक घोषित करने की कोशिश करती हैं। फिर आप विरोध करते हैं, तो सिस्टम आपको जेल में डाल देता है। मुसलमान होने की वजह से आपको दंगाई मारते हैं फिर पुलिस भी आपको ही पकड़ के जेल में डालती है।

टीवी डिबेट और सियासत में मुसलमानों की खास पहचान बना दी गई है। इस पहचान को बनाने में भारतीय सिनेमा भी पीछे नहीं है। पिछले एक दशक में अगर सियासत या राष्ट्रवाद पर आधारित फिल्मों को छोड़ दें, तो देश के मुसलमानों और उनकी एक आम-सी ज़िन्दगी पर कितनी फिल्मे बनाई गई हैं? दो चार फिल्मों को छोड़ दें, तो ऐसी कौन-सी फिल्म है जिसमें एक आम से भारतीय मुस्लिम फैमिली को दिखाया गया हो?

हमने देश की ज़्यादातर आबादी को मुसलमानों को खुद से समझने ही नहीं दिया है, उन्हें जालीदार बनियान, सर पर टोपी लाल दाढ़ी या पर्दे में लिपटी महिला तक समेत कर रख दिया है।

एक बिना कुरता पाजामा वाला मुस्लिम, बिना दाढ़ी टोपी वाला मुस्लिम भी उतना ही मुसलमान है जितना एक कुरता पाजामा और दाढ़ी टोपी वाला। हमारे अखबार, टीवी चैनलों और सियासत ने लोगों को कभी मुसलमानों को समझने का मौका ही नहीं दिया है।

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