Site icon Youth Ki Awaaz

डिजिटल मीडिया से आखिर क्यों डर रही है सरकार?

देखोगे तो हर मोड़ पर मिल जाएंगी लाशें

ढूंढोगे तो इस शहर में कातिल ना मिलेगा।

सियासत, सियासत और सियासत! कितनी बेकार, बेमुरव्वत ज़ालिम शय है, शायद कहीं-कहीं बेहतर भी हो। लोगों को अपनी ज़ुबान खोलने पर जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया जाता है। अभिव्यक्ति की आज़ादी तो वैसे भी छिन चुकी है।

बहरहाल, भारत सरकार ने फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में अर्ज़ी दाखिल की है। सरकार की याचिका कहती है कि डिजिटल मीडिया पर शिकंजा कसा जाना चाहिए। इनके हाथ और ज़ुबानों को भी कंट्रोल किया जाना चाहिए।

क्या डिजिटल मीडिया राष्ट्रीय  सुरक्षा  के लिए खतरा है?

सरकार का कहना है कि डिजिटल मीडिया से ना केवल नफरत और हिंसा फैल रही है, बल्कि आतंकवाद को भी बढ़ावा मिल रहा है। सरकार इसको राष्ट्रीय सुरक्षा के तौर पर जोड़ रही है। असल में यह बात इस समस्या का आधार नहीं है, बल्कि कुछ दिन पहले सुदर्शन टेलीविज़न पर यह बताया गया था,

यूपीएससी की परीक्षाओं में मुस्लिम समुदाय का शामिल होना खतरे से खाली नहीं है। मुस्लिम सिस्टम में घुसने की कोशिश कर रहे हैं। जिससे मुस्लिम जासूसी कर सकें और देश को नुकसान पहुंचा सकें। जामिया के स्टूडेंट्स ज़िला अधिकारी बन जाएंगे, केंद्रीय सरकार के कुछ मुहकमों में घुसकर ये लोग “नौकरशाही जिहाद” फैलाने की कोशिश कर रहे हैं।

इस बात पर कोर्ट ने साफतौर पर कहा था कि मीडिया को रेगुलेट करने की ज़रूरत है। ऐसी बातों पर रोक लगाने की भी ज़रूरत है। वहीं, सरकार ने अपने एफिडेविट में यह लिखा है कि टेलीविज़न और अखबारों से कोई परेशानी नहीं है, बल्कि डिजिटल मीडिया पर लगाम लगाने की ज़रूरत है। उनका कहना है डिजिटल मीडिया को ना किसी रजिस्ट्रेशन की ज़रूरत होती है और ना ही किसी कागज़ी इजाज़त की। बस आपके पास फोन होना चाहिए और इंटरनेट। 

पिछले 5-6 साल से पहले जो पत्रकारिता होती थी, वह बहुत निष्ठावान और सच्चाई पर आधारित होती थी। अब डिजिटल मीडिया की पत्रकारिता से सरकार डरने लगी है, क्योंकि सभी को स्वतंत्र रूप से लिखने और बोलने की आज़ादी है। आप कितनों को जेल में डालेंगे?

‘नौकरशाही जिहाद’ को लेकर हुआ था मुकदमा लेकिन सरकार ने इसे डिजटल मीडिया की तरफ मोड़ा

सुदर्शन न्यूज़ के “नौकरशाही जिहाद” वाले एपिसोड को लेकर जो मुकदमा दायर हुआ था, वह दरअसल टेलीविज़न पर प्रसारिरत सामग्री थी लेकिन सरकार ने उसको डिजिटल मीडिया की तरफ मोड़ दिया।

वास्तव में यह एक बेबुनियाद आरोप है। सरकार की तरफ से डिजिटल मीडिया के खिलाफ जो एफिडेविट केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दिया है, उसमें साफतौर पर यही देखने को मिला कि सरकार सुदर्शन टेलीविज़न को सपोर्ट कर रही है।

बात का मौज़ू बदलने के लिए उसने एक नई चाल चली है, जिसका वास्तविकता से दूर-दूर तक कुछ लेना देना नहीं है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सबसे अधिक ज़हर उगलने वाला है। सुदर्शन टीवी भी उसी का एक हिस्सा है। हम देख सकते हैं देश की सरकार डिजिटल मीडिया को हमेशा के लिए नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है। 

जब स्मृति ईरानी इन्फॉर्मेशन ब्रॉडकास्टिंग मिनिस्टर थीं, तो उन्होंने एक कोशिश भी की थी कमेटी द्वारा फेक न्यूज़ को पकड़ने के लिए। पत्रकारों के सर्टिफिकेट को कैंसिल करने के लिए उन्होंने बहुत कोशिश भी की। सवाल यही खड़ा होता है कि आतंक फैलाना, दहशतगर्दी करना, सांप्रदायिक दंगो को सपोर्ट करना किसी भी तरह से भारतीय कानून के अंतर्गत नहीं आता है। किसी भी देश का कानून ऐसे कामों की कभी इजाज़त नहीं देता है।

मैं केंद्र सरकार से पूछना चाहूंगा कि क्या वह एक उदाहरण दे सकते हैं कि डिजिटल मीडिया ने कब और कहां पर आतंक फैलाया? क्या असर हुआ समाज का उस पर, कोई तो सुबूत होगा? आप केंद्र में हैं, आपके पास सैकड़ों नियमों को बनाने और उसको बदलने की आज़ादी है।

इस बात पर आमने-सामने बैठकर बहस की जा सकती है। सरकार ने ठेका लिया हुआ है बिना किसी आधार के मुद्दों को उठाने का। यहां सिर्फ सुप्रीम कोर्ट की अटेंशन को डाइवर्ट करने की कोशिश की जा रही है।

संविधान के कागज़ पर पत्रकारिता का विस्तार

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 A में साफतौर पर लिखा है कि सभी नागरिकों को किसी भी सूचना या अपने विचारों को बोलकर या लिखकर कहीं भी व्यक्त करने का अधिकार है। यहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता यानि “Freedom of Expression” लागू होता है।

तो यह हर भारतीय का हक है जिसे छीना नहीं जा सकता है। यह अपने भावों और विचारों को व्यक्त करने का एक राजनीतिक अधिकार है। इसके अंतर्गत व्यक्ति अपने विचारों का प्रचार-प्रसार कर सकता है और साथ ही साथ सूचना का आदान-प्रदान भी। यहां कुछ नियम और कानूनों का पालन करना होता है। 

याद रहे भारत में किसी व्यक्ति विशेष के ऊपर आरोप-प्रत्यारोप लगाने का काम कानून व्यवस्था का है, मीडिया का नहीं।

सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 19 में इंटरनेट को भी जोड़ा है लेकिन केरल में मूलभूत अधिकार जैसे पानी, भोजन और शिक्षा की तरह 2017 में ही मूलभूत अधिकारों की श्रेणी में इंटरनेट को रख दिया था। अनुच्छेद 19 (2) में लिखा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से किसी भी तरह देश की सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता को नुकसान नहीं होना चाहिए।

इन तीनों के संरक्षण के लिए अगर कोई कानून है या बन रहा है, तो उसमें भी बाधा नहीं आनी चाहिए। यदि हम आज के भारत की बात करें तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इस समय सबसे ज़्यादा आतंक फैला रही है, जिसमें प्रमुख हैं सुदर्शन टीवी और रिपब्लिक भारत आदि। इन चैनलों पर कोई एक्शन क्यों नहीं लिया गया? जबकि जितने भी आपराधिक मामलों के मानक होते हैं, ये चैनल्स उन सभी पर खरे उतर रहे हैं।

अब सवाल यह उठता है कि केंद्र सरकार ने जो एफिडेविट कोर्ट में जमा किया है ,इसका सीधा मतलब तो यही है कि अब हर इंटरनेट यूज़र को अपने मन की बात रखने के लिए सरकार की इजाज़त लेनी पड़ेगी। दूसरे शब्दों में डिजिटल मीडिया के जितने भी प्लेटफार्म हैं, उनको अब सरकार ही इजाज़त देगी कि आपको कौन सी न्यूज़ दिखानी है और कौन सी नहीं दिखानी है। भारत सरकार के इस कदम से तो यही लग रहा है कि इस क्षेत्र का भूगोल बदलने वाला है।

अखबार और टेलीविज़न पर सरकार ने काबू पा लिया है। अब बचा है डिजिटल मीडिया, जिसके सहारे ना जाने कितने ही लोगों को बोलने का मौका मिलता है। उदाहरण के लिए अगर मैं इस लेख को किसी न्यूज़ चैनल या अखबार में दूं तो क्या वह मेरी इसे छापेंगे? नहीं, कभी नहीं लेकिन “Youth Ki Awaaz जैसे महत्वपूर्ण प्लेटफॉर्म के ज़रिये देश के युवाओं को बहुत कुछ सीखने और बोलने का मौका मिल रहा है। ऐसे संस्थानों का तरीका वाक‍ई में काबिल-ए-तारीफ है, क्योंकि यह संस्था हमको सिखाती है,

बोल! कि लब आज़ाद हैं तेरे

जिस्म ओ ज़बां की मौत से पहले

बोल कि सच ज़िंदा है अब तक

बोल जो कुछ कहना है कह ले।

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे

Exit mobile version