पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मन की बात को बोरा भरकर डिस्लाइक मिले, उसके बाद शिक्षक दिवस के दिन बेरोज़गारों ने थाली बजाकर अपना प्रतिरोध दर्ज़ किया।
बिहार के चुनाव में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पहली डिजीटल रैली को नरेन्द्र मोदी के मन की बात की तुलना में टोकरी भर कर डिस्लाइक मिले। अब उसके बाद हाल ही में 9 बजे से 9 मिनट तक देश के बेरोज़गारों ने मोमबत्ती और दिए जला कर अपना प्रतिरोध दर्ज़ किया।
बेरोज़गारों की थाली बजाओ अभियान की क्षमता को सरकार ने ही नहीं विपक्ष ने भी तेज़ी से पकड़ लिया। सरकार ने रेलवे की परीक्षा का शेड्यूल जारी करने की तिथी घोषित कर दी। विपक्ष ने खासकर बिहार के विपक्षी दलों ने बेरोज़गारी के विषय को लपक लिया।
हालांकि बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव “बेरोज़गार यात्रा” पर निकले थे लेकिन वह कोरोना महामारी के लॉकडाउन के कारण स्थगित हो गई थी।
चाहे बेरोज़गारों का थाली बजाओ अभियान हो या नौ मिनट का मोमबत्ती जलाओ अभियान जिसने कल दिनभर कंगना रनौत और बीएमसी की भिड़त के सोशल मीडिया ट्रेंड को अचानक से नौ बजे के बाद ज़मीन पर धड़ाम से पटक दिया।
जिसकी कवरेज मुख्यधारा मीडिया में नहीं के बराबर देखने को मिली। कोई भी राज्य सरकार या केंद्र सरकार इससे मुंह चुराकर नहीं बैठ सकती, क्योंकि उनको पता है कि देश में युवाओं की संख्या कितनी है और वह क्या भूचाल ला सकते हैं।
बेरोज़गारी की इस समस्या का शत-प्रतिशत समाधान किसी सरकार के पास नहीं है। मौजूदा मोदी सरकार के नेता मनमोहन सिंह के शासन के दौर में बेरोज़गारी पर बढ़-चढ़कर बोल रहे थे। वह युवाओं के दिल में जगह बनाने में कामयाब ज़रूर रहे लेकिन रोज़गार वह भी नहीं दे पाए।
देश के तमाम राजनीतिक दल बेरोज़गारी के सवाल पर युवाओं को भावनात्मक रूप से अपना मतदाता बनाने के गुणा-गणित में ही लगे रहते है। उनके पास इस समस्या का कोई समाधान नहीं है।
देश के बेरोज़गार युवाओं को अपनी समस्या के समाधान के लिए राजनीतिक दलों की भावनात्मक चालबाज़ियों से बाहर आना होगा। अगर राजनीतिक दल इन मुद्दों को अपने चुनाव जीतने का अभय-सूत्र मान रहे हैं, तो युवाओं को उनसे बेरोज़गारी को दूर करने का उनका ब्लू-प्रिंट मांगना चाहिए। इस ब्लू-प्रिंट पर उनसे खुलकर बहस होनी चाहिए कि यह कितनी प्रभावी हो सकती है।
यह सही है कि निजीकरण के कारण कई सेवाओं की नौकरी के अवसर घटेंगे और उसका विरोध होना ही चाहिए। खासकर उन सरकारी सेवा क्षेत्रों का जो जनता के टैक्स के पैसे से ही चलती है। कोई भी सरकार इन सेवा क्षेत्रों में अपना पैसा तो नहीं लगाती है फिर इनके निजीकरण का फैसला क्या वह बस इस आधार पर कर सकती है, क्योंकि वह असफल केयरटेकर रही है?
सच यह भी है कि तमाम सरकारी सेवाओं में लंबित नौकरियां भी कुल बेरोज़गारों की संख्या को कम नहीं कर सकती हैं। फिर मुख्य सवाल यही है कि हमें करना क्या होगा? मेरा मानना है कि इसका समाधान या तो देश के तमाम सेवा क्षेत्र को लगातार 24 घंटे काम करके निकालना होगा, या फिर तीन शिफ्ट में देश के तमाम सेवा क्षेत्रों मे काम बड़ी संख्या में रोज़गार देने का काम कर सकते हैं।
इसके साथ-साथ देश के युवाओं को अपने बेरोज़गारी का समाधान अपने समाजिक-सांस्कृति जीवन की ज़रूरतों को पूरा करने वाली वस्तुओं के उत्पादन और उसके सवर्धन में खोजना होगा। यह मांग-पूर्ति पर आधारित समाधान हो सकता है लेकिन इसमें निवेश एक बड़ा बाज़ार भी खड़ा कर सकता है।
साथ ही साथ देश के युवाओं को उन रोज़गार के साधनों को अच्छा या बुरा मानने के दायरे से बाहर आना होगा। जिनको अब तक वह अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार कम आंकते हैं। एक शिक्षित बेरोज़गार युवा होने के नाते युवाओं का संगठित होकर खड़ा होना सकून देता है लेकिन ज़रूरी यह भी है कि यह बस एक चुनावी मुद्दा बनकर अपना दम ना तोड़ दे।
यह तमाम राजनीतिक दलों को रोज़गार सृजन के उपायों पर रचनात्मक रूप से सोचने के लिए मजबूर कर दे, ना कि मौजूद सेवा क्षेत्रों को निजीकरण की तरफ धकेलकर देश के चंद पूंजीपतियों की झोली में मुनाफा ठेल दे। बेरोज़गारी की समस्या का समाधान निजीकरण में तो कतई नहीं है, हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन और नीति निर्माताओं के रचनात्मक और वैज्ञानिक चितंन में ज़रूर है।
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