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किसानों के प्रदर्शन पर सरकार का दमनकारी रवैय्या और मीडिया चुप, ऐसा क्यों?

हरियाणा के पीपली में गुरुवार को किसानों की रैली में शामिल लोगों पर पुलिस ने जमकर लाठियां बरसाईं। लाठीचार्ज में कई किसानों के सिर फूट गए और कई बुरी तरह घायल हो गए। सरकार और प्रशासन के इस रवैये से यह सवाल उठा है कि क्या किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में अब नागरिकों को प्रदर्शन करने, विरोध दर्ज़ करने की स्वतंत्रता भी नहीं है?

अन्नदाता किसान अगर सरकार से विरोध दर्ज़ करते हुए सड़कों पर उतरे, तो ज़िम्मेदार अधिकारियों और मंत्रियों को उनकी बात सुननी चाहिए थी लेकिन पुलिस ने तो बलपूर्वक प्रदर्शन को कुचलने की कोशिश की। क्या इसे सरकार और प्रशासन का किसान विरोधी रवैया नहीं कहा जाएगा?

मीडिया भी इस मामले पर चुप्पी साधे हुई है। खासकर मुख्यधारा के टीवी मीडिया को तो किसानों पर हुआ लाठीचार्ज खबर ही नहीं लगी। वह अभी भी रिया-सुशांत और कंगना पर ही हो हल्ला करने में मस्त है। ऐसे में सवाल मीडिया के रवैय्ये पर भी है।

क्या है पूरा मामला?

केंद्र सरकार की कृषि से जुड़े तीन अध्यादेशों के खिलाफ गुरुवार को कुरुक्षेत्र के पीपली में किसान बचाओ-मंडी बचाओ रैली बुलाई गई थी। रैली में शामिल होने के लिए हरियाणा के कई ज़िलों के किसान आ रहे थे। सैकड़ों किसानों को तो रास्ते में रोक दिया गया। जहां रोका गया, किसानों ने वहीं विरोध किया।

हरियाणा किसानों के विरोध प्रदर्शन के दौरान लाठीचार्ज, तस्वीर साभार: सोशल मीडिया

ध्यान रहे कि केंद्र सरकार की ओर से जारी तीन अध्यादेशों, “एसेंशियल एक्ट 1955 में बदलाव”, “कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग”, और “फार्मर प्रोड्यूस ट्रेड एन्ड कॉमर्स” को किसानों और खेती की समूची व्यवस्था के खिलाफ माना जा रहा है।

इस मसले पर पहले से ही किसानों के बीच असंतोष पनप रहा था कि सरकार ने अध्यादेश जारी करने से पहले किसान संगठनों के साथ विचार-विमर्श नहीं किया। किसानों का कहना है कि यह बड़े व्यापारियों के हित में लिया गया फैसला है।

क्या कहते हैं किसान संगठन?

किसान संगठनों जैसे अखिल भारतीय किसान संघर्ष समिति, भारतीय किसान यूनियन और किसान-मजदूर संघर्ष समिति का का कहना है,

“हमारे देश में 85 फीसद लघु किसान हैं, जिनमें से ज़्यादातर के पास लंबे समय तक भंडारण की व्यवस्था नहीं होती है। अब तमाम सुविधाओं से लैस बड़ी कंपनियां अपने कृषि उत्पादों का भंडारण करेंगी और बाद में उसका खमियाजा ग्राहकों को उठाना पड़ेगा। असली नुकसान किसानों का ही होगा।”

इसी तरह, किसानों का मानना है कि व्यावसायिक खेती से संबंधित अध्यादेश किसानों को अपनी ही जमीन पर मज़दूर बना देगा। किसान उपज व्यापार वाणिज्य संवर्धन और सरलीकरण अध्यादेश-2020 के अमल में आने के बाद व्यवहार में मंडी व्यवस्था खत्म होने की आशंका जताई जा रही है, जिसका फायदा बिचौलियों को होगा। जिन मुद्दों को सरकार कृषि सुधार के लिहाज से लाभदायक मानती है, उन्हीं पर किसानों के भीतर कई तरह की आशंकाएं हैं।

इससे पहले बीस जुलाई को पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के किसानों ने केंद्र सरकार की कृषि से जुड़े तीनों अध्यादेशों के खिलाफ ट्रैक्टर रैली निकाल कर एक बड़ा विरोध प्रदर्शन किया था। यह समझना मुश्किल है कि सरकार को किन वजहों से किसानों की मांग पर विचार करना ज़रूरी नहीं लगा। यही वजह है कि उसके बाद घोषित नियमों के अमल से चिंतित किसानों के भीतर असंतोष बढ़ता रहा।

समाधान की ओर क्यों नहीं देख रही सरकार?

अध्यादेशों को लेकर किसानों में जो आशंकाएं गहराई हैं सरकार उन्हें दूर करने के स्थान पर सवाल और मांग करने वालों पर ही लाठीचार्ज करवा रही है। जब भी देश में आर्थिक चुनौती सामने आई है, उससे उबरने में कृषि क्षेत्र ही सबसे मददगार साबित हुआ है।

यह स्थिति तब है, जब देश के किसान तमाम तरह के अभावों, कर्ज़ और संसाधनों की कमी से जूझते हुए किसी तरह कृषि क्षेत्र को संतोषजनक हालात में बचाए हुए हैं। सवाल है कि देश की अर्थव्यवस्था और आम जीवन को गति देने वाले अन्नदाता किसानों के प्रति सरकारों की अनदेखी की आखिर क्या वजह रही?

कृषि क्षेत्र में कोई भी सुधार करने से पहले किसानों से विर्मश किया जाना सबसे ज़रूरी है, उनकी आवश्यकताओं को समझना और मांगो को सुनना सरकार की ज़िम्मेदारी है। दमन से किसी भी तरह का समाधान सरकार नहीं निकाल सकती। ज़रूरत है कि सरकार, अपने और किसानों के बीच संवादहीनता को दूर कर उनकी मांगों को सुने और समस्याओं के निराकरण का विश्वास दिलाए।

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