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क्यों हो रही है 10वीं सदी के तुमान मंदिर की सुरक्षा में लापरवाही?

छत्तीसगढ़ के कई मशहूर मंदिरों में से एक है तुमान मंदिर। यह छत्तीसगढ़ के महत्वपूर्ण स्मारकों में से एक माना जाता है। तुमान शिव मंदिर छत्तीसगढ़ स्थित बिलासपुर के कटघोरा-पेंड्रा रोड राष्ट्रीय राज मार्ग पर स्थित है।

यहां आदिवासी समाज के लगभग 2000 से अधिक लोग निवास करते हैं। खेती-बाड़ी और पशु-पालन इनका प्रमुख व्यवसाय है। 

तुमान मंदिर का निर्माण 1015 से 1045 सालों के बीच में कलचुरी राजवंश के राजा पृथ्वी देव ने करवाया था। इस प्राचीन मंदिर के उत्खनन से बहुत से पुरातात्विक अवशेष पाए जाते आ रहे हैं, जो इस मंदिर के सुनहरे इतिहास को साक्षित करते हैं।

यह मंदिर पूरी तरह से पत्थरों को उकेरकर बनाया गया है और छत्तीसगढ़ की 1000 साल पुरानी महान ऐतिहासिक विरासत को दर्शाता है। कलचुरी राजाओं द्वारा निर्मित अनेक मंदिरों में से एक तुमान मंदिर छत्तीसगढ़ की कलचुरी कला का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।

इसमें आठवीं सदी से चौदहवीं सदी तक के मूर्तिकला के नमूने मिलते हैं। इनमें रतनपुर के कंठी दाऊद से प्राप्त खंड तथा रतनपुर किला में अवशिष्ट प्रवेश द्वार शामिल हैं। इन खंडों में से एक पर देवी पार्वती की प्रतिमा उत्कीर्णित है। यह अब रायपुर संग्रहालय में है। यहां दो अन्य ज्योतिर्लिंग के साथ-साथ ब्रह्मा, विष्णु और बुध की भी स्मृति बनी हुई है।

जब तुमान से हटाकर रतनपुर में राजधानी बसाई गई, तो पुरानी राजधानी तुमान वैभवहीन हो गया। यहां राजधानी बसाने के पीछे एक ऐसी जन श्रुति है कि त्रिपुरी के कलचुरी राजा पोकल प्रथम के पुत्र शंकरगढ़ द्वितीय ने इस क्षेत्र को जीतकर दक्षिण कौशल की राजधानी तुमान में बनाई और अपने सामाजिक और जन हितैषी कार्यों के चलते यहां के राजवंश ने बहुत नाम कमाया।

यहां के राजा देवी के उपासक थे और धार्मिक प्रवृत्ति के थे। इसलिए उन्होंने अपने किले में भव्य मंदिर का निर्माण करवाया। 1000 साल बीत जाने के बावजूद भी यह मंदिर इसकी स्थापत्य कला के लिए जाना जाता है। इसकी प्राचीन महत्ता को देखते हुए मंदिर व किले के संरक्षण का काम भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को दिया गया है। वर्तमान में तुमान कोरबा ज़िले के कटघोरा तहसील के अंतर्गत स्थित है।

तुमान मंदिर कोरबा ज़िले के अंतर्गत ऐतिहासिक नगरी ग्राम पंचायत तुमान में स्थित है, जहां विश्व का सबसे प्राचीन छोटा शिवलिंग सदियों से विराजमान है। तुमान कटघोरा से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर है। तुमान ऐतिहासिक नगरी है और अपने अंदर प्राचीन इतिहास को समाया हुआ है।

इस मंदिर की कला कृति लोगों को मंत्र मुग्ध कर देती है जिसे देखने के लिए बहुत दूर-दूर से लोग आते हैं। यह मंदिर ऊंचे चबूतरे पर बना हुआ है और इसके गर्भ गृह में शिवलिंग स्थापित है। मंदिर के द्वार पर द्वारपालों के साथ गंगा जमुना की मूर्तियां भी स्थापित हैं।

प्रमुख मंदिर के आसपास और भी कई छोटे-बड़े मंदिरों के अवशेष भी दिखाई देते हैं, जिसमें कई छोटे शिव मंदिर शामिल हैं। मंदिर के अंदर का अंधेरा इतना अधिक है कि अंदर कुछ भी दिखाई नहीं देता है। इसकी बनावट कुएं के समान है।

कलचुरी कालीन छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था

इस काल में लोगों की आय का प्रमुख गतिविधियां कृषि पशुपालन, व्यापार, वनोपज को एकत्रित करना और खनन थी। द्वी फसल क्षेत्रफल को बेहतर माना जाता था। भूमिमापन की इकाइयां सभी भूमि राजा की मानी जाती थी और राजा खेती के लिए उसे किसानों में वितरित कर देता था।

किसान अपनी फसल में से राजाओं को राजस्व देते थे। व्यापारियों को भी चुंगी कर देना होता था। कभी-कभी फसल उगाने के लिए राजा खुद हाई पैसे देते है और जो फसल प्राप्त होती थी, उसे बेचकर मिले हुए पैसों को गाँव वालों में हाई बांट देते थे। किसान की मृत्यु हो जाने पर भूमि उसके उत्तर अधिकारियों को मिल जाती थी।

तहान कापर के ताम्रपत्र में कुछ गाँव से प्राप्त होने वाले राजस्व का मौद्रिक मूल्य लिखा है। दंतेवाड़ा के खंब पर राजकुमारी मस्का देवी का आदेश अंकित है, जिसमें कहा गया है कि कर जमा करने की अंतिम तिथि के पूर्व किसानों को कर वसूली के लिए तंग ना किया जाए। 

क्षतिग्रस्त होने की संभावना अधिक

ऐतिहासिक मंदिर व मूर्तियों का अस्तित्व खतरे में पड़ता देख शासन के निर्देश द्वारा राज्य के पुरातत्व विभाग ने तुमान के आसपास निर्माण हुई खुदाई पर प्रतिबंध लगाया था। इसके बावजूद भी इसकी स्थानीय निवासियों के रवैये की वजह से इस अनमोल खज़ाने को बिखरता देखा जा रहा है।

सुरक्षा के नाम पर इस क्षेत्र को चार दीवारों से घेर दिया गया है। मौसम में परिवर्तन के साथ यह मंदिर साल दर साल क्षतिग्रस्त होते जा रहे हैं। 10वीं शताब्दी में कलचुरी शासन के शिल्प कलाकारों के द्वारा पत्थरों में गढ़ी गई कलाकृतियों के अवशेष जीवित रखने में लापरवाही बरती जा रही है।


नोट: यह जानकारी मुझे तुमान मंदिर से उनके अधिकारियों द्वारा प्राप्त हुई है। यह लेख ‘Adivasi Awaaz’ प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है। इसमें ‘प्रयोग समाज सेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।

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