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क्या इस बार भी बिहार में चुनाव जातीय समीकरण के आधार पर ही होगा या स्थिति बदलेगी?

an old person's hand being inked after voting

बिहार में कोरोना महामारी के साथ-साथ चुनावी बयार तेज़ है। जहां अचानक से कोरोना मरीज़ों की बढ़ती संख्या से संशय पैदा होता है, तो वहीं राजनीतिक दलों की तैयारी से लगता है चुनाव इस महामारी में ही होगा।

महामारी के कारण मौजूद समस्या को देखकर लगता है कि बिहार के चुनाव यहां की बेरोज़गारी, शिक्षा, स्वास्थ्य की दयनीय स्थिति पर होंगे। यह अर्धसत्य है। सत्य यह है कि बिहार के चुनाव में जातियों का गणित हावी रहेगा।

बिहार विधानसभा चुनाव में आखिर मुद्दा क्या होगा?

कभी चुनाव में दबदबा रखनेवाली सवर्ण ताकतें कमोबेश आज हाशिए पर हैं। लगभग सभी पार्टियों के चुनावी भाग्य का निर्धारण बिहार की वंचित और दमित चेतनाएं करेंगी या बाबरी मस्जिद आंदोलन से जन्मी वह चेतना जो संघ के मोदीनुमा मॉडल पर कदमताल करने वाली स्वर्ण जातियां।

राजद हो या लोजपा या फिर जेडयू या अन्य बनी छोटी पार्टी सभी दलों में वंचित और दमित चेतनाओं का राजनीतिकरण ही उफान पर रही है। जिसका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा और कांग्रेस पर भी प्रभाव पड़ता रहा है।

प्रतीकात्मक तस्वीर

इन दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को अब तक किसी न किसी क्षेत्रीय पार्टियों का सहारा लेना पड़ा है। बिहार के राजनीतिक क्षितिज पर लालू यादव के उदय से सवर्ण जातियों की राजनीतिक बेदखलीकरण की जो प्रक्रिया शुरू हुई वह आज भी बिहार में ज़िंदा है।

बिहार में राष्ट्रीय दलों का हाल

कांग्रेस लुंजपुंज हो गई है और भाजपा अगर स्वर्णों के स्मृतियों में ज़िंदा है, तो वह हिंदू चेतना के बीजारोपण के कारण ही ज़िंदा है। जिसको समय-समय पर वह हवा देती भी रहती है। बिहार में राष्ट्रीय पार्टियों के तमाम कार्यक्रम क्षेत्रीय पार्टियों के दबाव में बनते-बिगड़ते हैं। वरना पिछले चुनाव में कई नेता का दावा करने वाली भाजपा आज नीतिश कुमार को अपना नेता मानने को बाध्य नहीं होती।

साथ ही साथ कई दशकों से बिहार के सत्ता से वंचित कांग्रेस राजद का साथ देने को मजबूर है, क्योंकि उसने वंचित और दमित समुदाय यहां तक कि मुस्लिम समुदाय में अपना नेता तैयार नहीं किया। नब्बे के दशक के बाद से बिहार की राजनीति की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यहां की रैलियों में कोई भी राजनीतिक दल “मैं” कहकर बात नहीं करती है। सब को “हम” पर अधिक भरोसा है।

क्षेत्रीयता बिहार का स्वभाव नहीं

जबकि बिहार की संस्कृति, भाषा, व्यवहार और यहां तक कि आंदोलन भी कभी क्षेत्रीय नहीं रहे हैं। क्षेत्रीयता बिहार का स्वभाव नहीं रहा है लेकिन यहां क्षेत्रीय पार्टियों का विकास सबसे अधिक है। क्षेत्रीय पार्टियों के विकास का प्रमुख कारण राष्ट्रीय पार्टियों में वंचित और दमित चेतनाओं का सक्रिय ना होना मुख्य रहा है।

आज बिहार का राजनीतिक भविष्य यही है कि यहां वंचित और दमित चेतनाएं ही इस राज्य के पिछड़ेपन और मुक्ति का रास्ता खोल सकती है और नव बिहार का संकल्प पूरा कर सकती हैं। जिसमें नब्बे के बाद के दशक से वह स्थापित तो है लेकिन विकास की वह धारा बिहार के लोगों को नहीं दिख रही, जिसकी उनको उम्मीद रही है।

बिहार में वंचित और दमित चेतनाओं के प्रतीक लालू यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवास हैं। जिसमें उपेंन्द्र कुशवाहा, पप्पू यादव और मांझी ही नहीं शरद यादव भी अपनी नई भूमिका बनाने की तालाश में है।

समस्या यही है कि इन तमाम चेतनाओं के पास कोई बड़ा सपना बिहार के लिए नहीं है‌, ना ही वे उदार हैं। लालू यादव इन चेतनाओं के सबसे बड़े प्रतीक हैं लेकिन उनकी सीमा “यादव” जाति तक ही सीमित है। यादव जाति संख्या में अन्य जातियों की तुलना में बहुसंख्यक हैं और दबंग भी, उनका तात्कालिक और राजनैतिक गठजोड़ मुसलमानों के साथ है जिससे उन्हें राजनीतिक फायदा पहुंचता है।

दलित जातियों का क्या है समीकरण?

वंचित और दमित कि अन्य छोटी-छोटी जातियों को मिलाने और संगठित करने का राजद के पास कोई कार्यक्रम नहीं है। कभी वह निषाद को पुचकारते हैं तो कभी कोइरियों को। अपना कोई राजनीतिक आधार-विचार नहीं होने के कारण इन जातियों के पास अन्य कोई विकल्प भी नहीं है।

नीतीश कुमार को बिहार की राजनीति का चाणक्य कहा जाता है। वह पहले लालू यादव के साथ थे फिर राजनैतिक स्वार्थ और आकांक्षाओं ने दोनों को अलग किया, पिछले विधानसभा चुनाव में दोनों फिर साथ आए भी और अलग भी हो गए। नीतीश कुमार की सीमा भी उनकी जाति है, वह कुर्मियों के नेता हैं। उन्होंने भाजपा से रिश्ता जोड़ा-तोड़ा और अब फिर जोड़कर रखा है।

भाजपा के बारे में कहने की आवश्यकता नहीं है कि वह जाति-प्रथा को तोड़ने वाली ताकत नहीं है। उसने कभी भी हिंदुओं की एकता के लिए जाति तोड़ने की घोषणा नहीं की है। भाजपा से नीतीश कुमार की जुगलबंदी जाति-प्रथा के खिलाफ लड़ने वाली धारा को कुंद किया है।

क्या है लोजपा की राजनीति?

रामविलास पासवान दलित हैं और सामाजिक रूप से लालू यादव और नीतिश कुमार की तुलना से ज़्यादा पिछड़े हैं। उनके पास उनकी दलित सेना भी है, लेकिन उनकी सीमा भी उनकी जाति पासवान तक ही है। उनकी स्वाभाविक दोस्ती ना चर्मकारों के साथ है और ना ही अन्य दलित जातियों के साथ। वे कभी लालू से हाथ मिलाते हैं, कभी नीतीश कुमार से, कभी भाजपा से।

लोजपा का हाथ मिलाने के पीछे अपना राजनीतिक हित साधना है समानता और बंधुत्व उनका भी लक्ष्य नहीं है। शेष बचे कुशवाहा, मांझी और पप्पू यादव तो उनके पास भी अपने-अपने क्षेत्रों के मतदाताओं का एक वर्ग है लेकिन किसी के पास भी अपनी-अपनी जातियों के विकास के लिए समानता और स्वतंत्रता जैसा ब्लू प्रिंट नहीं है।

सवाल यह है कि आखिर ये वंचित और दमित चेतनाएं समाज-परिवर्तन की दिशा में सक्रिय क्यों नहीं हुई हैं? क्यों नहीं यह चेतनाएं व्यापक धर्म, संस्कॄति या राष्ट्रवाद के निर्माण में अपनी भूमिका निभा पाई? उनके पीछे बुद्ध, अंबेडकर, लोहिया और कर्पूरी ठाकुर जैसे चिंतक नेता और सामाजिक कार्यकर्ता रहने के बावजूद वे क्यों फिसल गई?

इसकी पहली वजह तो यह लगती है कि ये तीनों ही नहीं, बल्कि नए जन्में छत्रप भी अपने चरित्र में सामंती हैं। वे सामंतवाद के सर्वश्रेष्ठ मूल्य “दया” के पक्षधर हैं। वह “करूणा” के मूल्य के साथ नहीं हैं। यह सभी जाति-प्रथा तोड़ने में नहीं, बल्कि उसके राजनैतिक इस्तेमाल में रूचि रखती हैं।

वह वंचित और दमित चेतना का राजनीतिकरण कर रहे हैं लेकिन सांस्कॄतिकरण से उन्हें सख्त परहेज़ है, क्योंकि सांस्कृतिकरण समानता के मूल्य पर आधारित होगा। जिससे उन्हें नफरत है। यह सच है कि बिहार में वंचित और दमित जातियों में सजगता आई है लेकिन उनके अंतर्विरोध और अधिक गहरे भी हुए हैं।

सत्ता में वही हैं जिन जातियों की संख्या बढ़ी

आज जिन जातियों की जनसंख्या अधिक है उन्हें सत्ता में भागीदारी मिली और शेष अल्पसंख्यक जातियां उपेक्षित हैं। संख्या के खेल में यह जातियां एकांकी होती चली गई हैं। इसलिए इनकी कोई आवाज़ नहीं है। जो जातियां सबल हैं वह सवर्णवादी तत्त्वों से अपने स्वार्थ के लिए दोस्ती कर अपनी राजनीति को चमका रही हैं।

आगमी चुनाव में इन ताकतों में कोई जीते या कोई हारे अंत में हार उन वंचित और दमित चेतनाओं की होगी जिनका कोई राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं है। जनता इनकी हकीकत को समझ रही है लेकिन इसकी अभिव्यक्ति कहां करें? कोई नेता उनके पास नहीं है जिसका भरोसा लोकतंत्र, समानता और बंधुत्व में है।

इस स्थिति में वह वोट तो करेगी लेकिन उसकी धकड़नों में उसके अपने सवाल हैं और आने वाले दिनों में अगर उन सवालों के साथ काम करने वाला नेतृत्व होगा तो बिहार का चेहरा खिल उठेगा।

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