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मज़दूरों का पलायन, बाढ़ और बेरोज़गारी जैसे मुद्दे क्या बिहार चुनाव पर डाल पाएंगे असर?

पिछले विधानसभा चुनाव की तरह इस बार भी बिहार चुनाव अपने टाइमिंग और देश की सियासत में चल रहे उथल-पुथल के कारण काफी महत्त्वपूर्ण हो चुका है। पिछली बार जहां नीतीश कुमार महागठबंधन का हिस्सा थे और बीजेपी के विरुद्ध ताल ठोक रहे थे, वहीं इस बार कहानी उल्टी है।

क्या होंगे इस बार चुनाव के मुद्दे?

बिहार के चुनावी मुद्दे क्या होंगे, यह तो आने वाला वक्त ही तय करेगा लेकिन फिलहाल सियासत काफी गर्म है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ताबड़तोड़ शिलान्यास पर शिलान्यास कर रहे हैं। जहां पिछली चुनाव में प्रधानमंत्री ने 30 रैलियों में हिस्सा लिया था, वहीं इस बार भी कुछ वैसा ही होता दिख रहा है, बस फर्क यह होगा की यह सब वर्चुअल होगा।

अगर बात पिछले चुनावी मुद्दों की जाए, तो प्रधानमंत्री का एक लाख 25 हज़ार करोड़ वाला पैकेज लोगों को अब भी याद है, पिछली बार रियासती vs बाहरी का मुद्दा भी खूब चला। उसके अलावा विकास के लिए किए गए कार्यों की चर्चाएं भी खूब थी, जबकि परिस्थिति इस बार भी नहीं बदली है बस खेमा बदला गया है और कुछ मुद्दे भी।

प्रतीकात्मक तस्वीर

निश्चित ही नीतीश कुमार से ज़्यादा फिक्र प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी को है तभी तो ग्रामीण सड़क, पुलिया और दूसरी छोटी से छोटी परियोजनाओं तक का शिलान्यास खुद ही कर रहे हैं। आमतौर पर ऐसी छोटी योजनाओं और परियोजनाओं का शिलान्यास राज्य के मंत्री या विधायक ही करते हैं।

कोरोना काल, बिहार में बाढ़, मज़दूरों का पलायन, भारत-चीन तनाव और बेरोज़गारी के अलावा बिहार की सवास्थ सेवाएं और सरकारी कर्मचारियों की बहाली में देरी, इत्यादि अहम मुद्दे हैं।

मज़दूरों का पलायन, कोरोना और बेरोज़गारी क्या डाल पाएंगे चुनाव पर असर?

मज़दूरों का पलायन, कोरोना और बेरोज़गारी तीनों एक-दूसरे से जुड़े हैं, तो वहीं स्वास्थ्य सेवाओं की भी कई बार पोल खुल चुकी है और विडम्बना ही है कि इसके लिए सरकार ने अब तक कोई ठोस कदम भी नहीं उठाया है, जो निश्चित रूप से सरकार के लिए एक सर का दर्द बना हुआ है।

बिहार में दो लाख से ज़्यादा शिक्षकों ने भी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। अपनी मांगों को लेकर वो लगातार सरकार के खिलाफ बोलते और आंदोलन करते रहे हैं।

प्रतीकात्मक तस्वीर

वहीं, दूसरी तरफ नीतीश कुमार अपने तरक्की के कार्यों के सहारे मैदान में होंगे, तो वहीं बीजेपी राम मंदिर और धारा 370 को एक बार फिर भुनाने की कोशिश करेगी। बीजेपी के पास बिहार में अपना कोई दमदार चेहरा भी नहीं है, इस बार भी पूरी कमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों में ही होगी।

हालांकि अगर बिहार का विकास दर देखें, तो केंद्र में बीजेपी की सरकार बनने के बाद बिहार के विकास की रफ़्तार धीमी ही हुई है। जहां 2014 से पहले बिहार का विकास दर देश में सबसे ज़्यादा हुआ करता था आज पिछड़ चुका है। पिछले पांच सालो में बिहार में लूट और मार-पीट की वारदातों में भी वृद्धि हुई है।

2015 के चुनाव में नीतीश को बीजेपी से नाता तोड़ने और मोदी का विरोध करने के कारण मुसलमानों का वोट भी मिला था लेकिन इस बार ट्रिपल तलाक़, CAA और एनआरसी की संसद में हिमायत करने की वजह से मुसलमानों का बड़ा तबका नीतीश से खफा है और उनकी तरफ देख भी नहीं रहा है। ऐसे में जेडीयू के लिए और ज़्यादा मुश्किलें होने वाली हैं।

दूसरी तरफ एमआईएम, पप्पू यादव, पुष्पम प्रिया और भीम आर्मी भी मैदान में है, गठबंधन ना होने की सूरत में यह भी खेल बिगाड़ और बना सकते हैं।

महिलाएं किस तरफ करेंगी वोट?

पिछले चुनाव में महिलाओं ने एक तरफा तौर पर महागठबंधन को वोट किया था और कारण था बिहार में शराब बंदी, अगर पिछले तीन विधानसभा के चुनावों के आंकड़े को देखें, तो बिहार में महिलाओं के वोट प्रतिशत में लगातार वृद्धि हुई है।

वहीं अगर 2019 के लोक सभा की बात करें तो महिलाओं की वोटिंग प्रतिशत 59.92 थी इसके अलावा पुरुषों में यह केवल 55.26 प्रतिशत ही थी। अगर जाती और धर्म के समीकरण को छोड़ दें तो ये तबका किसी की भी सरकार बनवा सकता है और गिरा भी सकता है।

प्रतीकात्मक तस्वीर

अपने 15 साल के कार्यकाल में नीतीश सरकार ने बिहार में महिलाओं के लिए कई सराहनीय काम किए हैं, जैसे कि बालिका साईकल योजना और पंचायत स्तर के चुनावों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण इत्यादि लेकिन क्या हर बार इनको बुनियाद बनाकर वोट लिया जा सकता है, यह देखना दिलचस्प होगा।

वहीं, अगर बात बीजेपी कि की जाए तो नवम्बर 2015 से फरवरी 2020 तक बीजेपी को 16 राज्यों में हार का सामना करना पड़ा है लेकिन बिहार, मध्य प्रदेश और कर्नाटक में वो हार के बावजूद सरकार बनाने में कामयाब रहे हैं। बावजूद इसके राज्य स्तरीय कार्यकर्ता और नेताओं के मनोबल पर इसका असर तो पड़ा ही होगा और यह बात भली-भांति बीजेपी के आला कमान महसूस भी कर रहे होंगे।

बीजेपी के लिए ज़रूरी क्यों है जीत?

दिल्ली में मिली करारी हार के बाद बीजेपी के लिए बिहार में अच्छा प्रदर्शन करना बेहद ज़रूरी हो जाता है। खासकर ऐसे समय में जब बंगाल चुनाव भी निकट है और देश कोरोना, चीन, बेरोज़गारी, जीडीपी में भारी गिरावट और किसान बिल समेत कई मुद्दों से जूझ रहा हो।

वहीं, अगर बात आरजेडी और कांग्रेस की करें तो निश्चित तौर पर लालू प्रसाद के जेल में होने का असर आरजेडी पर पड़ेगा। बिहार में अच्छी तादाद होने के बावजूद विपक्षी दलें मज़बूत नहीं दिख रही हैं। मुसलमानों का वोट आरजेडी और कांग्रेस की तरफ जा सकता है बशर्ते छोटी पार्टियों से इन्हें गठबंधन करना होगा। इन सब के इतर लालू प्रसाद के घर में आपसी मतभेद भी इन चुनावों के नतीजे पर असर डाल सकते हैं।

बिहार में 25-30 प्रतिशत आबादी की उम्र 18 से 29 के बीच की है और इन नौजवानों के लिए बेरोज़गारी सबसे बड़ा मसला भी है, ऐसे में यह देखना भी दिलचस्प होगा कि आखिर कौन-सी पार्टी उनको लुभा पाती है।

बिहार चुनाव में यह भी साफ हो जाएगा कि देश को पॉलिसी बेस्ड राजनीति जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, बेहतर योजनाएं, बेरोज़गारी और किसानों समेत आमजनों के मुद्दों की बात हो वैसी सियासत चाहिए या अब भी धर्म और जाति के आधार पर ही मतदान का सिलसिला जारी रहेगा।

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