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क्या नेहरू की यह नीति मौजूदा वक्त में देश को आर्थिक संकट से निकाल सकती है?

भारत की आज़ादी से लगभग 2 हफ्ते पहले पंडित जवाहरलाल नेहरू ने  राजगोपालाचारी को एक पत्र लिखा

प्रिय राजाजी, मैं आपको स्मरण करा रहा हूं कि आप षणमुखम शेट्टी से मुलाकात करें। यह काम जल्दी हो जाए। मैंने अंबेडकर से भी मुलाकात की और वो तैयार हैं।

दरअसल पंडित नेहरू ने यह पत्र तब लिखा था, जब भारत के होने वाले पहले प्रधानमंत्री अपने पहले मंत्रिमंडल की तैयारी कर रहे थे। नेहरू ने जो नाम पहले से सोच रखे थे, वह थे सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और राजेंद्र प्रसाद।

भारत बेहद खराब हालात में था, उसे बहुत सी परेशानियों से निपटना था और बहुत सी दिक्कतों का सामना करना था। खाद्य संकट उस वक्त की सबसे बड़ी परेशानियों में से एक था। इसके साथ ही अलग रहने की ज़िद्द पर अड़ी रियासतों से भी जूझना था।

बंटवारे के बाद यदि भारत में धार्मिक विवाद पनपते हैं, तो उन्हें भी देखना था और इसके साथ-साथ नए संविधान का निर्माण तो करना ही था। इसके लिए पंडित नेहरू एक ऐसा मंत्रिमंडल चाहते थे, जो प्रखर लोगों से मिलकर बना हो। लोग धर्म, क्षेत्र और जाति से ऊपर उठकर देश की समस्याओं के लिए काम करें।

काँग्रेस के बाहर के इन लोगों को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था

इसके लिए नेहरू ने काँग्रेस के बाहर के लोगों से भी बात की। अपने पत्र में नेहरू ने राजगोपालाचारी और आर.के. षणमुखम शेट्टी को अपने मंत्रिमंडल में शामिल करने के लिए लिखा था। षणमुखम जस्टिस पार्टी से ताल्लुक रखते थे और काँग्रेस के तीखे आलोचकों में से एक थे लेकिन वित्तीय मामलों में बेहद समझदार थे।

काँग्रेस के तीखे आलोचक होने के बावजूद भी नेहरू ने उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल होने का न्यौता भिजवाया था और उन्होंने भी शामिल होने के लिए हामी भर दी थी। इसी तरह अंबेडकर भी काँग्रेस के मुखर विरोधी थे। 1940 के दशक में वो काँग्रेस के मुख्य विरोधियों में थे एक थे।

उन्होंने 1946 में एक किताब भी लिखी थी “What Gandhi and Congress have done to the untouchables (गाँधी और काँग्रेस ने अस्पर्शयों के लिए क्या किया ?) इन सब बातों के बाद भी काँग्रेस जिस नए मंत्रिमंडल का गठन करने जा रही थी, उसमें अंबेडकर को संविधान की ज़िम्मेदारी दी गई और साथ ही कानून मंत्री का पद भी देने की पेशकश की।

इसी तरह से हिंदू महासभा के श्यामा प्रसाद मुखर्जी और अकाली दल के बलदेव सिंह को भी मंत्रिमंडल में जगह दी गई। ये लोग भी काँग्रेस के कटु विरोधी थे। काँग्रेस ने स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल में ना सिर्फ सियासी लोगों को जगह दी, बल्कि गैर सियासी लोगों को भी शामिल किया गया था।

व्यवसायी सी. एच. भाभा और गोपालस्वामी अयंगर को भी जगह दी गई। 1930 में अंग्रेज़ी हुकूमत में भारतीय नौकरशाह बी  एन राउवी.पी. मेनन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को दबाने में वॉइसराय का बहुत साथ दिया था। सुकुमार सेन तथा तरलोक सिंह अंग्रेज़ों के लिए ही काम करते थे लेकिन उनके इस किरदार के बाद भी मंत्रिमंडल में जगह दी गई।

बी.एन. राउ को संविधान का मसौदा तैयार करने की ज़िम्मेदारी दी गई, जबकि वी.पी. मेनन को रियासतों के एकीकरण की। सुकुमार सेन को आम चुनाव में मदद करने के लिए चुना गया। वहीं, तरलोक सिंह को पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को बचाने के लिए चुना गया।

अर्थव्यवस्था की हालत

मैं इतिहास की इन मिसालों का ज़िक्र आज इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि भारत अपने बंटवारे के बाद कोरोना वायरस के रूप में सबसे बड़ी त्रासदी का सामना कर रहा है। कोविड-19 के भारत आने से पहले से ही अर्थव्यवस्था प्रभावित थी लेकिन वायरस के बाद इसकी हालत और खस्ता हो गई।

यात्रा और पर्यटन को खासा नुकसान है। खेती की स्थिति भी बहुत खराब है। फसल खेतों में लहलहा रही है लेकिन बाज़ार तक नहीं पहुंच पा रही है। भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां की 60% से ज़्यादा आबादी खेती करती है। अर्थव्यवस्था की खराब हालत का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कोरोना वायरस महामारी की रोकथाम के लिए देशभर में जारी लॉकडाउन से देश की अर्थव्यवस्था को हर दिन करीब 4.64 अरब डॉलर का नुकसान हो रहा है।

रेटिंग एजेंसी एक्यूट रेटिंग्स एंड रिसर्च ने एक रिपोर्ट के हवाले से इसकी जानकारी दी। एजेंसी का कहना है कि लॉकडाउन के पूरे 21 दिनों के दौरान सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को 98 अरब डॉलर का नुकसान हुआ। एक्यूट रेटिंग्स के अनुसार, चालू वित्त वर्ष की अप्रैल-जून तिमाही में जीडीपी वृद्धि दर में पांच से छह फीसदी की गिरावट की आशंका है।

दूसरी तिमाही (जुलाई-सितंबर) में अगर वृद्धि होगी भी तो बहुत कम होगी। रिपोर्ट के अनुसार, 2020-21 में आर्थिक वृद्धि दर दो से तीन फीसदी ही रहेगी। आम आदमी पहले ही अपनी आमदनी से संतुष्ट नहीं था और अब उसके हालात बद से भी बदतर हो रहे हैं।

साल 2020 की शुरुआत में ही विश्व बैंक ने भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 6.5% से घटाकर 5% कर दी थी। यह 5% की विकास दर पिछले 11 वर्षों में सबसे खराब अनुमान दर्ज़ किया गया। विश्व बैंक से पहले भारतीय स्टेट बैंक ने भी विकास दर का अनुमान 5% से घटाकर 4.6% कर दिया था।

केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने भी वित्त वर्ष 2019-20 में जीडीपी में गिरावट के संकेत दिए थे। आने वाले वक्त इसके और खराब होने के संकेत दिए गए थे। वायरस की उठती रेखा समतल होने के बाद भी वैसे ही दिक्कतें होंगी जैसी 1947 में आज़ादी मिलने के बाद थीं।

सरकार के सामने दूसरी परेशानियां

एक तरफ भारत सरकार सीएए जैसे मुद्दों पर देशभर में विरोध झेल रही है, एक धर्म विशेष को नए कानून में जगह ना देने के कारण राजनीतिक और सामाजिक विरोध हर प्रदेश में देखा जा रहा है। इस विरोध में स्टूडेंट्स, बॉलीवुड कलाकार और यहां तक कि वैज्ञानिकों का एक समूह भी शामिल है।

दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था तो एक समस्या है। इसके अलावा भी और परेशानियों का भी सामना करना पड़ सकता है। प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को नेहरू और पटेल से सीख लेते हुए वैसा ही करना चाहिए जैसा उन्होंने पहले मंत्रिमंडल के निर्माण के समय किया था।

यह समय है राजनीतिक मतभेद भुलाते हुए एक साथ देश के लिए काम करने का। अगर कोई किसी दूसरी पार्टी से जुड़ा है और महारत रखता है, तो उसे साथ लेना चाहिए। यदि कोई विशेष क्षेत्र में अनुभवी है, तो उसकी सेवाएं लेने के लिए उससे आग्रह किया जाना चाहिए, चाहे वह अलग धर्म का हो या अलग विचारों का या कटु आलोचक।

इन काबिल लोगों को किया जाना चाहिए शामिल

मनमोहन सिंह। फोटो साभार- Getty Images

मैं इस फेहरिस्त में सबसे पहले नाम लेना चाहूंगा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का। मनमोहन सिंह एक जाने-माने अर्थशास्त्री हैं और एक दशक तक भारत के प्रधानमंत्री भी रहे हैं। उनसे अर्थव्यवस्था के विषय में मशवरा लेने से कुछ बुरा नहीं हो जाएगा।

चाहे वो कांग्रेस से ही क्यों ना जुड़े हों। देश की आर्थिक वृद्धि दर का आंकड़ा 2006-07 में 10.08 प्रतिशत रहा जो कि उदारीकरण शुरू होने के बाद का सर्वाधिक वृद्धि आंकड़ा है। यह आंकड़ा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल का है। वर्ष 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की अगुवाई में शुरू आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत के बाद यह देश की सर्वाधिक वृद्धि दर है।

अभिजीत बनर्जी से सलाह लें

अभिजीत बनर्जी। फोटो साभार- Getty Images

अभिजीत विनायक बनर्जी को 2019 का अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार, उनकी पत्नी इश्तर डूफलो और माइकल क्रेमर के साथ संयुक्त रूप से दिया गया। अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी से भी अर्थव्यवस्था की सेहत को ठीक करने के लिए संपर्क साधना चाहिए।

हालांकि अभिजीत बनर्जी समय-समय पर मोदी सरकार की नीतियों की खूब आलोचना कर चुके हैं। मोदी सरकार के सबसे बड़े आर्थिक फैसले नोटबंदी के ठीक पचास दिन बाद फोर्ड फाउंडेशन-एमआईटी में इंटरनैशनल प्रोफेसर ऑफ इकॉनामिक्स बनर्जी ने न्यूज़ 18 को दिए एक इंटरव्यू में कहा था, “मैं इस फैसले के पीछे के लॉजिक को नहीं समझ पाया हूं। जैसे कि 2000 रुपये के नोट क्यों जारी किए गए हैं?”

इतना ही नहीं वो उन 108 अर्थशास्त्रियों के पैनल में शामिल रहें जिन्होंने मोदी सरकार पर देश के जीडीपी के वास्तविक आंकड़ों में हेरफेर करने का आरोप लगाया था। फिर भी मोदी सरकार को अभिजीत बनर्जी को आर्थिक सलाहकारों में स्थान देना चाहिए।

अन्य लोग जिनसे सलाह ली जा सकती है

अनुभवी पूर्व वित्त सचिवों और रिजर्व बैंक के गवर्नरों जैसे रघुराम राजन इत्यादि से भी सलाह ली जा सकती है। ज्यां द्रेज और रितिका खेड़ा जैसे लोगों की भी सेवाएं ली जा सकती हैं, क्योंकि ये लोग सीधे तौर पर किसानों और मज़दूरों से जुड़े हैं।

नॉर्थ ब्लॉक के दफ्तरों में बैठे वित्त विभाग के सचिवों का किसानों और मज़दूरों से संपर्क कम ही रहता है। अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने के साथ-साथ स्वास्थ्य बजट को बढ़ाने पर भी सरकार को ध्यान देना चाहिए। इसके लिए स्वास्थ्य विभाग से जुड़े अन्य विशेषज्ञों की मदद ली जा सकती है। खासतौर से वह एक्सपर्ट जिन्होंने H1N1 को दूर करने और पोलियो को मिटाने में मदद की थी।

काँग्रेस से सीखें

जैसा कि अगस्त 1947 में काँग्रेस ने किया था, ठीक वैसे ही पहल मौजूदा सरकार के मंत्रियों को भी करनी चाहिए। पक्षपात, राजनीतिक-धार्मिक मतभेदों को अलग कर हर वर्ग, दल, पार्टी के लोगों को साथ लेकर आज़ाद भारत के सबसे बड़े संकट से निपटना चाहिए  लेकिन शायद आज की तारीख में यह मुमकिन नहीं!

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