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पीरियड्स को लेकर आज भी तमाम परम्पराओं और प्रथाओं से जूझती हैं महिलाएं

Periods, society, problem

पीरियड्स

सब कहते हैं ज़माना बदल गया है। सब दुनिया के तौर तरीके सब बदल गए हैं। सारी दुनिया सिमट गई है। टेक्नोलॉजी भी आसमान छूने लगी है। गंगनचुम्बी इमारतें भूकंपरोधी बन रही हैं। अब डाक और डाकिए नहीं ईमेल का ज़माना आ गया है।

अब परिवार से ज़्यादा लोग मोबाईल के दोस्त बन बैठे हैं। साधारण परिवार में भी अब एक रौब आने लगा है। लोगों की सोच बदली है। महिलाएं पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर चलने लगी हैं। अब स्त्री पुरूष एक समान समझे जाते हैं। यह बात सही है क्या? क्या सच में लोगों की सोच बदली है? महिलाओं को समानता मिलने लगी है?

मैं शायद इस बात से मुतासिर नहीं हूं। मुझे नहीं लगता कि सोच में बदलाव आया है। इंसान ने रहने के बसेरे में बदलाव कर दिया, पहनने ओढ़ने में बदलाव कर दिया। अब शायद सभी लोग खाना भी उत्तम कोटि का खाते हैं। यह सब बातें तो समझ में आती हैं।

मगर बात घूमकर फिर “सोच” की तरफ जाती है। इंसानों ने सारा चोला बदल लिया। यहां तक कि रहन-सहन बदल लिया। मगर सोच का जो तवा अपने शरीर पर हावी कर रखा है उसपर सिर्फ असमानता की रोटी सेकी जा सकती है।

सोच का एक ही उदहारण लेते हैं। सबरीमाला मंदिर की व्यथा से सब लोग परिचित हैं। सबकुछ बदल गया मगर सोच वहीं की वहीं आज भी महिलाओं, लड़कियों को “पीरियड्स” शब्द बोलने से हिचकिचाहट होती है। आज भी समाज में तरह तरह के नाम मशहूर हैं। कोड वर्ड तो शायद किसी अपराध में इस्तेमाल किए जाते हैं, मगर यहां तो लोग पूर्ण रूप से प्राकृतिक प्रोसेस को ही अपराध की श्रेणी में रख देते हैं।

समाज पीरियड्स को सामान्य क्यों नहीं रहने दे रहा है?

अगर आपके पीरियड्स हैं, तो आप भूल जाइए की समाज आपको चैन से बैठने देगा और तो और आप इन शब्दों का प्रयोग भी नहीं कर सकतीं, साथ के साथ पुरुषों से अगर यह सवाल पूछ लिया जाता है कि महिलाओं को होने वाले पीरियड्स या मासिक धर्म के बारे में आपके क्या विचार हैं? तो यक़ीन मानिए 90% पुरुष गुस्से से तिलमिला जाते हैं और बोलते हैं यह क्या पूछ रहे हैं आप? कुछ शर्म लिहाज है या नहीं?

प्रतीकात्मक तस्वीर

अब उनको कौन समझाए कि वे किस वजह से इतना गुस्सा हो रहे हैं? कई लोगों को तो यह भी नहीं पता होता कि उनके गुस्से का आधार क्या क्या है? पूछने पर बोलते हैं हमको अपनी लिमिट्स पता हैं। हमारे घर में ऐसी बातों को अच्छा नहीं माना जाता। इन्हीं सब बातों से आज भी समाज का एक भाग ऐसा है जिसको शायद आज़ादी नहीं मिली।

माहवारी कोई पाप नहीं होता। 3-4 दिन 50 महिलाओं के साथ रिसर्च के बाद मुझे यही पता चला कि 4% महिलाएं हैं देश में जो साफ शब्दों में माहवारी का नाम लेती हैं या पीरियड्स कहकर बुलाती हैं। बाकी बची कोई-न-कोई कोड वर्ड का इस्तेमाल करती हैं। जिनमें से मैंने 22-39 वर्ष के बीच की ग्रामीण/किसान औरतें, स्कूल गर्ल, कॉलेज गर्ल, गृहणी, आदि महिलाओं से बात की।

महीना आ गया: ग्रामीण इलाकों की महिलाओं ने कुछ बताया नहीं, हां मगर यह ज़रूर बताया कि घर में बड़े पुरुषों के सामने यहां तक कि अपने पति के सामने भी उनको साफ तरह से बोलने की इजाज़त नहीं। कितनी अजीब प्रथा है। बिल्कुल मानवता के उलट।

लाल चींटी ने काट लिया: शहरी औरतें जो जॉइंट फैमिली में रहती हैं। घर बच्चों और पुरुषों से घर भरा रहता। जिस घर में सास मुखिया है, तो उस घर में मासिक धर्म होने के पहले दिन ही उनको अपनी सास को यह बताना होता है कि अम्मा हमको लाल चींटी ने काट लिया। कैसा संजोग है कि महिलाओं से भी इस बात को बोलने के लिए कोड वर्ड इस्तेमाल करने पड़ते हैं।

बर्थडे आ गए: अपर प्राइमरी कक्षा की लड़कियों को भी इस प्रथा का शिकार बनना पड़ता है। घर पर मां पहले ही बोल देती है कि इसका कभी भी साफ तौर पर नाम नहीं लिया जाता। कई लड़कियों को तो पीरियड्स नाम ही नहीं पता था।

माहवारी या मासिक धर्म समझना तो दूर की बात थी। इतनी छोटी उम्र में ही उनको यह सब फेस करना पड़ता है। इस रूढ़ि को फिर वही लड़कियां आगे चलकर अपनी लड़कियों को भी यही सिखाएंगी।

टॉम टाइम: पीरियड्स के लिए यह शब्द काफी पॉपुलर है। कॉलेज में लड़कियों के बीच यह बातें बहुत आम हैं। टॉम “टाइम ऑफ मंथ” के नाम से लड़कियाँ एक-दूसरे को अपनी प्रॉब्लम्स बताती हैं। कॉलेज गर्ल्स को तो बहुत बोल्ड समझा जाता है। यदि वो कॉलेज में साधरण तौर पर बोलें कि “मुझे पीरियड्स हो रहे हैं”। इतना सुनना होगा और आधी क्लास उसकी दुश्मन हो जाएगी।

प्रथाएं महिलाओं के लिए ही क्यों हैं?

ऐसे ही ना जाने कितने नामों से लड़कियां, महिलाएं एक प्राकृतिक प्रथा के लिए ऐसे बात करती हैं कि जैसे उन्होंने कोई अपराध कर दिया हो। मिस्टर पी, लेडी फ्रेंड, बिस्तर से लड़ाई हो गई और भी ना जाने कौन-कौन से नाम। पितृसत्तात्मक समाज ने यह जो प्रथा चलाई है, यह महिलाओं के लिए ही क्यों है?

प्रतीकात्मक तस्वीर

कभी-कभी लड़को को स्वप्नदोष होता है, उसके लिए कोई नियम क्यों नहीं बनाए गए हैं? आप वाशरूम जाते हैं, तो आप कोड वर्ड क्यों इस्तेमाल नहीं करते? महिलाओं के साथ हो तो अपवित्रता और पुरुषों के साथ हो तो मज़ाक। जिनको स्वप्नदोष जीवन में एक बार भी नहीं होता, तो उसको नामर्द का खिताब दे दिया जाता है। वहीं महिलाओं को मासिक धर्म हो, तो यह पाप बन जाता है। सोच को तो बदलना ही होगा। आज के ज़माने में इस बात की बहुत ज़रूरत है।

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