न्यायसंगत जांच और उचित कार्यवाही की गुहार लिए आज फिर हम सड़को पर हाथ में मोमबत्ती लिए चल रहे थे। मन में गुस्सा और निराशा थी, आखिरकार कब तक हम मोमबत्ती को हाथ में लिए नारे लगाते रहेंगे। वो दिन कब आएगा जब ये घटनाएं नही होगी और लोगों के जेहन में संविधान होगा।
क्या हमारा भारत देश महिलाओं के लिए असुरक्षित है?
लैंगिक भेदभाव से जन्मे पुरुषत्व ने फिर से इस बात को साबित किया है कि हमारा देश लडकियों और महिलाओं के लिए सुरक्षित नही हैं। यह घटना 14 दिसंबर को उत्तरप्रदेश के जनपद हाथरस के एक गांव की है, जहां पर एक दलित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया।
अपराधियों ने सामुहिक बलात्कार के साथ ही महिला की जीभ को काट दिया और रीढ़ की हड्डी भी तोड़ दी। दिल्ली के एक अस्पताल में दलित लड़की ने दम तोड़ दिया। इस सारे मामले में उत्तरप्रदेश पुलिस और प्रशासन ने इस घटना को झूठा करार देते हुए बलात्कार की पुष्टि से ही इन्कार कर दिया है।
उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था घुटने के बल है
हाथरस में घटित घटनाक्रम में इस तरह का रवैया कानून व्यवस्था और प्रशासन की जड़ो में बैठी पितृसत्तात्मक और ब्राम्हणवादी सोच को दर्शाता है। जो हमेशा महिलाओं और लड़कियों के शोषण को अनदेखा करता आया है या फिर गांव और परिवार का आपसी मामला बता कर उसे दबाने की कोशिश करता आया है।
ऐसे में अगर लड़की दलित परिवार से हो तो फिर उसे मनगढ़ंत कहानी बता दिया जाता है। विडंबना की बात तो यह है कि एक तरफ महिला होने की वजह से उनसे साथ उत्पीड़न होता है और अगर महिला दलित, आदिवासी या मुस्लिम है तो शोषण की परत ओर भी गहरी हो जाती है।
मीडिया सिर्फ सेलिब्रिटीज की चौखट की रखवाली में लगा है
गौरतलब हैं कि लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माने जाने वाला मीडिया सिर्फ सेलेब्रिटीज़ से जुड़ी ख़बरों में लगा है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि दलित और आदिवासी महिलाओं के साथ होने वाला शोषण कभी मुख्यधारा मीडिया की खबर नहीं बन सकें।
इस बात से मतलब यह बिल्कुल भी नही है अन्य जातियों से जुड़ी महिलाओं के साथ हो रहे शोषण ख़बरों में ना आये। जब – जब किसी दलित और आदिवासी लड़की के साथ बलात्कर होता है तो यह अक्सर सुनने में आता है कि बलात्कर तो बलात्कर है फिर जाति को क्यों बताया जा रहा है।
अक्सर लोग यह कहते है कि जाति के नाम पर राजनीति की जा रही है। लेकिन किसी भी महिला या लड़की के साथ उसकी जाति, धर्म, आर्थिक स्थिति शोषण ओर गहरा बना देता है । इसका अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि उत्तरप्रदेश पुलिस और प्रशासन ने इस केश में FIR लिखने में आना कानी की थी।
रातों रात बिना परिजनों की उपस्थिति और सहमति के लड़की के शव को जला दिया गया। गौरतलब है की सुरक्षा की दुहाई देकर पूरे गांव को पुलिस ने छावनी बना दिया। हरियाणा में एक कहावत है कि “गरीब की बहू सबकी भाभी” जिसका अर्थ है कि अगर कोई आर्थिक रूप से कमजोर है या फिर तथाकथित नीची जाति कहे जाने वाले परिवार से है तो उन घरों की लड़कियों और महिलाओं के साथ यौन शोषण को सामान्य बात समझा जाता है।
इसलिए बहुत जरूरी हो जाता हैं जब दलित, मुस्लिम या आदिवासी महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न के मामले में उनकी जाति का दर्ज होना। यह अपराध की गंभीरता को दर्शाता है।
अब बात सिर्फ दोषियों को सजा मिलने तक सीमित नहींं है। जिस तरह सवर्ण कहे जाने वाली जातियों के लोग दोषियों को बचाने के लिए आगे आ रहे है, ऐसे में सवाल इस बात पर भी उठता है कि दलितों के साथ उस क्षेत्र में कैसा व्यवहार भविष्य में होने वाला है।
क्या महिला को वास्तविक न्याय मिल पायेगा?
जिस तरह से उस क्षेत्र के अधिकारियों ने पीड़ित परिवार पर मानसिक रूप से दबाव बनाया हैं। इस परिस्थिति में जंग सिर्फ लड़कियों और महिलाओं के अधिकारों की नहीं है बल्कि जातिवाद के लिए भी है।
एक तरफ जातिवाद के कड़े निर्देश और दूसरी तरफ लैगिंक भेदभाव की गहरी खाई है। ठाकुरों का खून गर्म होता है, उनसे गलती हो जाती है या लड़के है गलती हो जाती है। जैसी टिप्पणियों से अपराध करने वालो को ओर बढ़ावा मिलता है, इसलिए बहुत जरूरी है कि कानून व्यवस्था में विराजमान पितृसत्ता से लेकर गांव-शहरों में जातिवाद के कड़े नियम तक हर क्षेत्र पर सोच विचार करने की जरूरत है।
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