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पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं की बराबरी से इतना डरता क्यों है

एक महिला की पूरी ज़िन्दगी हमेशा अधीनता में गुज़रती है। जब एक लड़की छोटी होती है, तो वो अपने पिता के अधीन होती है, जब वो किशोरी अवस्था में आती है तो भाई के अधीन और शादी के बाद अपने की पति अधीन हो जाती है। जब मां बन जाती है तो बेटों की अधीनता में ज़िन्दगी जीती है। पितृसत्ताक सोच के कारण महिलाएं अपनी ज़िन्दगी के छोटे बड़े  निर्णय स्वयं नहीं ले सकती और इसी वजह से उन्हें अपनी खुशियों, सपनों का गला घोंट देना पड़ता है।

महिलाओं को अपनी इच्छा, अपने सपने, अपनी पसन्द और नापसंद के किसी भी तरह के कोई मायने नहीं रहते हैं। जो महिलाएं इस अधीनता को स्वीकार ना करके अपनी इच्छा से जीने की कोशिश करती भी हैं, उनकी ज़िन्दगी तीसरे विश्व युद्ध जैसी हो जाती है। ऐसी बहुत महिलाएं हैं, जिन्होंने अपने अधिकारों के लिए बहुत कड़े संघर्ष किये हैं और सामाजिक दवाब  के कारण ऐसी महिलाओं का संघर्ष जब तक बढ़ता रहता है, जब तक की वो अधीनता को स्वीकार नहीं कर लेती।

अगर वो इस अधीनता को स्वीकार नहीं करती तो उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता है। संघर्ष और अधीनता के इस युद्ध को हम महिलाओं व लड़कियों की एक सच्ची कहानी के माध्यम से समझने की कोशिश करेंगे, जोकि बहुत  महिलाओं से प्रेरित हैं।

एक लड़की जिसने कड़ी मेहनत और लगन से अपनी पढ़ाई पूरी करके नौकरी करना शुरू किया। अपनी पढ़ाई के दौरान भी उसकी समस्या कम नहीं थी, गरीबी से लेकर यौनिक हिंसा तक हर तरह की समस्या से लड़कर वो नौकरी करने लगी थी। नौकरी  करते हुए वो अपने सपनों और इच्छाओं के लिए जगह बनाने लगी। जब-जब वो अपने लिए जीने की कोशिश करती तो उसके ऊपर पितृसत्ता के सवालों की बारिश शुरू हो जाती। एक लड़की जो अपने अधिकारों के दायरों को और ज़्यादा बढ़ाने की कोशिश कर रही होती है वो समाज के सवालों की वजह से उन दायरों को उतना नहीं बढ़ा पाती, जितना वो सोच रही थी।

हमारे संविधान ने हम सभी को अधिकार दिए हैं, लेकिन हमारा समाज महिलाओं के मामले में उन अधिकारों को स्वीकार नहीं करता। एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्या कोई भी समाज संविधान से ऊपर है ?

जैसे-जैसे ज़िन्दगी आगे बढ़ रही थी उसके दायरों और पितृसत्ता की नोंकझोक हर मोड़ पर हो रही थी। उसने अपनी ज़िन्दगी में शादी ना करने का निर्णय लिया, लेकिन निर्णय लेने का अधिकार तो महिलाओं के पास होता ही नहीं है, फिर वो कैसे अपने निर्णय पर स्टैंड ले सकती थी।

समाज और परिवार शादी के लिए बार-बार उसके ऊपर दवाब बनाने लगा, यहां तक बाते होने लगी कि उसका तो चरित्र ही खराब है। हर कोई उससे एक ही सवाल पूछता था,  शादी क्यों नही करना चाहती?  इन सवालों का उसके पास ऐसा कोई जवाब नहीं था जिसको सुनकर सवाल बन्द हो जाते।

कुछ महीने और कुछ साल वो अपने निर्णय पर कायम रही, लेकिन जब किसी का सहयोग नहीं मिला तो उसने हार मान ही ली और शादी करने के लिए मजबूर हो गई। अपनी ज़िन्दगी को अपने तरीके से जीने का लड़कियों और महिलाओं को अधिकार क्यों नही है? आखिर क्यों शादी को ही ज़िन्दगी के मुख्य लक्ष्य के रूप में देखा जाता है ?

अब वो वक्त आ गया था जब उसके लिए दूल्हा /लड़का देखा जाने लगा। ज़िन्दगी के इस मुकाम पर उसके पास लड़के को पसंद करने या ना करने का अधिकार तो आ ही गया था, लेकिन बहुत सारी पढ़ी लिखी, नौकरी करने वाली लड़कियों को तो ये अधिकार नहीं होता कि वो  परिवार द्वारा देखे गए लड़के को इन्कार कर सके।

उसके पास शादी के रिश्ते आने लगे थे वो लड़के से मिलने भी जाती थी। लेकिन, अभी तक कोई भी लड़का उसे इस लायक नहीं मिला जिसे वो अपने जीवन साथी के रूप में स्वीकार कर सके। उसके परिवार वाले भी अब परेशान होने लगे थे और दवाब बनाने लगे कि किसी रिश्ते को तो स्वीकार कर ले। वो इस दवाब को ज़्यादा दिन झेल नहीं सकी और एक रिश्ते के लिए बिना सोचे समझे उसने स्वीकार कर ही लिया। यह वो पल था जब वह आत्मविश्वास और हिम्मत दोनों हार चुकी थी। लेकिन फिर भी उसने हिम्मत करके अपनी एक बात मनवाई कि वो शादी के बाद भी नौकरी करेगी। यहां सवाल आता है कि लड़कियों को ना कहने का भी अधिकार क्यों नहीं है ?

शादी के बाद उसका पति चाहता था कि पहला बच्चा जल्दी हो जाये, लेकिन वो बच्चा पैदा करना नहीं चाहती थी। हमारे समाज में एक महिला को संपूर्ण महिला तब माना जाता है जब वो मां बन जाती है।

आज के दौर में भी मातृत्व को ही महिला होने का प्रमाण मानकर महिलाओं को बच्चे पैदा करने पर मजबूर किया जाता है। यहां तक कि एक महिला कितने बच्चे पैदा करेगी वो भी निर्णय उसके हाथ में नहीं है।

जल्दी बच्चा पैदा करने के दवाब से  वह  दो-चार हो रही थी और अपने पति को समझाने के लिए रोज़ अलग-अलग तरीके इस्तेमाल कर रही थी। लेकिन उसका पति उसकी बात समझने को तैयार ही नहीं था।

हमारे समाज में मातृत्व को इतना अनिवार्य क्यों माना जाता है ? मातृत्व  का अनुभव करना या नहीं करना वैकल्पिक होना चाहिये ना की अनिवार्य।

वो बच्चा पैदा करने के दवाब से अभी निकली भी नहीं थी कि अब बात उसकी नौकरी पर भी आ गई थी। पति को लगता था कि पत्नी का काम तो सिर्फ घर और बच्चों तक ही सीमित है। महिलाओं द्वारा घरो में आर्थिक सहयोग को कभी भी मुख्य नहीं माना जाता। हमारे समाज में यह मान्यता है कि महिलाओं के आर्थिक सहयोग से घर नहीं चलते, घर तो मर्द की कमाई से ही चलते हैं।

इसी सोच को लेकर उसका पति उसके ऊपर नौकरी छोड़ने का दवाब बनाने लगा। यहां तक कि उसके माता-पिता और  रिश्तेदार भी चाहते थे कि वो नौकरी छोड़ दे और अब घर सम्भाले। एक महिला कब कैसी नौकरी करेगी या नहीं करेगी यह अधिकार भी सामाजिक रूप से नहीं है। संघर्ष और अधीनता की लड़ाई में ना जाने कितने ही सपने जल कर राख हो जाते हैं। ना जाने समाज कितनी लड़कियों और महिलाओं के सपनों की उड़ान के पंखो को काटकर घरों की चार दीवारों में बंद कर देता है।

अगर यही अधीनता स्वीकार करने का दवाब पुरुषों पर होता तो कैसा होता। पढ़ी-लिखी और नौकरी करने वाली लड़कियों व महिलाओं के साथ कैसे रहा जाता है हमारे समाज में लड़को को ये सिखाया ही नहीं जाता जिसके कारण लड़कियों व महिलाओं की ज़िन्दगी खुशी न बनकर संघर्ष बन जाती है। अधीनता कभी भी सुन्दर और बराबरी के समाज की नींव नहीं हो सकती है।

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