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गांधी हम सब में हैं

गांधी मरा नहीं करते।

इसलिए गांधी थे नहीं, गांधी हैं।
थोड़े से ही सही लेकिन गांधी हम सब में हैं।
भारत के उस संविधान में हैं,
जिससे यह देश चलता है।
सरकारों की उन योजनाओं में हैं,
जिनके सहारे वो सत्ता में आती हैं
और तानाशाही भी करती हैं।
और उसी व्यवस्था से पीड़ित,
मर रहे उस व्यक्ति की उम्मीद में भी
थोड़े से गांधी तो हैं।
किसी भी तरह के अन्याय को सहते हुए
गांधी हर उस व्यक्ति में भी हैं,
जो सुप्रीम कोर्ट से न्याय की उम्मीद लिए बैठा है।
और इसीलिए थोड़े से गांधी
सुप्रीम कोर्ट के उस न्याय में भी हैं।
थोड़े से गांधी अमन और शांति की चाह रखने वाले
हर उस व्यक्ति में भी हैं,
जो मानव और जीव पर उठने वाले किसी भी तरह के हथियारों को गैर जरूरी समझता है।
अहिंसा हिंसा का मुकम्मल जवाब तो नहीं है,
पर इस बात से सहमत होने के बावजूद
हिंसा को हिंसा का जवाब नहीं मानते,
ऐसा मानने वालों में भी
थोड़े से ही सही गांधी तो हैं।
हिंसा को किसी भी रूप में
लेकिन किंतु परंतु के बावजूद
सही नहीं मानने वालों में भी
थोड़े से ही सही गांधी तो हैं।
गांधी हर उस व्यक्ति में हैं,
जो अपने साथ हो रहे
अन्याय के बावजूद
न्याय पाने के लिए
बंदूक हाथ में नहीं उठाते,
कानून हाथ में नहीं लेते,
विद्रोह तो करते हैं,
मगर हिंसात्मक विद्रोह नहीं करते।
उन सब में गांधी हैं।
थोड़े ही सही हम सब में गांधी तो हैं।

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