एक मशहूर लेखक ने कहा था, “मीडिया एक बाज़ार है, और हम सब ग्राहक।” यह कथन अपने आप में बहुत कुछ कहता है, लेकिन इसके मायने आज बदल गए हैं। टीआरपी की जद्दोजहद के बीच खबरें शायद बिल्कुल गुम सी हो गई हैं। तड़कते भड़कते ग्राफिक्स को लेकर बनाया गया प्रोमो, एंकर्स के बदलते हाव भाव, और उन सबके बीच ख़बरों के एक राई जितने छोटे हिस्से को आज के ज़माने में कुछ तथाकथित पढ़े लिखे न्यूज़ चैनल “खबर” कहते हैं।कुछ ऐसा ही वाकया सामने आया है आज।
एक प्राइवेट न्यूज़ चैनल पर टीआरपी से छेड़छाड़ का आरोप लगा है। यह आरोप मुंबई पुलिस की क्राइम ब्रांच की टीम ने लगाया है।इस आरोप के लगते ही मीडिया जगत में बवाल सा खड़ा हो गया है। फिलहाल मामले में जल्द ही चैनल के मालिकों को समन भेजा जायेगा और उनसे इस बाबत पूछताछ भी की जाएगी। इस मामले को समझने से पहले आपको समझना चाहिए कि टीआरपी आखिर होती क्या चीज़ है?!
आईये जानते हैं आखिर टीआरपी होती क्या है।
टीआरपी यानी की टेलीविजन रेटिंग पॉइंट एक ऐसा उपकरण है जिसकी मदद से ये पता लगाया जाता है कि कौन सा प्रोग्राम या टीवी चैनल सबसे ज्यादा देखा जा रहा है।. साथ ही साथ इसके जरिए किसी भी प्रोग्राम या चैनल की पॉपुलैरिटी को समझने में मदद मिलती है।आसान शब्दों में समझें तो लोग किसी चैनल या प्रोग्राम को कितनी बार और कितने समय के लिए देख रहे हैं, यह भी पता चलता है। प्रोग्राम की टीआरपी सबसे ज्यादा होना मतलब, सबसे ज्यादा दर्शक उस प्रोग्राम को देख रहे हैं।
टीआरपी, विज्ञापनदाताओं और इन्वेस्टर्स के लिए बहुत उपयोगी होता है क्योंकि इसी से उन्हें जनता के मूड का पता चलता है। एक चैनल या प्रोग्राम की टीआरपी के जरिए ही विज्ञापनदाता को समझ आएगा कि उसे अपना विज्ञापन कहाँ देना है और इन्वेस्टर समझेगा कि उसे अपने पैसे कहाँ लगाने हैं।
कैसे मापा जाता है टीआरपी को ?
टीआरपी को मापने के लिए कुछ जगहों पर(जी हाँ ! सिर्फ कुछ जगहों पर) पीपल्स मीटर लगाए जाते हैं। इसे ऐसे समझ सकते है कि कुछ हज़ार दर्शकों को न्याय और नमूने के रूप में सर्वे किया जाता है और इन्हीं दर्शकों के आधार पर सभी को दर्शक मान लिया जाता है जो TV देख रहे होते हैं। अब ये पीपल्स मीटर एक विशेष फ्रीक्वेंसी के द्वारा ये बताते हैं कि कौन सा प्रोग्राम या चैनल कितने समय में कितनी बार देखा जा रहा है।
इस मीटर के द्वारा एक-एक मिनट की टीवी की जानकारी को एक मोनिटरिंग टीम (इंटेम्) इंडियन मोनिटरिंग टीम। अर्थात इंडियन टेलीविजन ऑडियंस मेज़रमेंट। ( Television Audience Measurement)
Monitoring Team INTAM यानी Indian तक पहुँचा दिया जाता ह।. ये टीम पीपल्स मीटर से मिली जानकारी का विश्लेषण करने के बाद तय करती है कि किस चैनल या प्रोग्राम की टीआरपी कितनी है।इसको गिनने के लिए एक दर्शक के द्वारा नियमित रूप से देखे जाने वाले प्रोग्राम और समय को लगातार रिकॉर्ड किया जाता है, और फिर इस डाटा को 30 से गुना करके प्रोग्राम का एवरेज रिकॉर्ड निकाला जाता है। यह पीपल मीटर किसी भी चैनल और उसके प्रोग्राम के बारे में पूरी जानकारी निकाल लेता है।
तो ये सब बात तो हो गई टीआरपी कि,चूँकि वर्तमान युग डिजिटल मीडिया का भी है। ठीक इसी प्रकार की एक टीआरपी डिजिटल मीडिया में (ख़ास तौर से न्यूज़ वेबसाइटों में) भी पाई जाती है। जिसका नाम होता है- वेबसाइट ट्रैफिक। इसको मापने के लिए गूगल एनालिटिक्स या डिजिटल वेब ट्रैकिंग मीटर नामक सॉफ्टवेयरों का उपयोग किया जाता है।।
डिजिटल वेबसाइट ट्रैफिक मैनुपुलेशन
फर्ज़ी कीवर्ड्स ड़ालकर वेबसाइट पर ट्रैफिक लाया जाता है। तमाम तरह की दूसरी गतिविधियों जैसे कीवर्ड्स को छुपाना, कंटेंट को छुपाना आदि का भी जमकर इस्तेमाल किया जाता है। टेक्निकली शब्दों में बात करें, तो इसे ब्लैक हैट एसईओ( SEO) के नाम से जाना जाता है। मीडिया जगत में शायद ही कोई ऐसी न्यूज़ वेबसाइट हो, जिसने आज तक ब्लैक हैट SEO ना किया या करवाया हो।
जिस प्रकार आज एक टीवी चैनल पर टीआरपी मैनपुलेशन का आरोप लग रहा है।. ठीक इसी प्रकार का ट्रैफिक मैनपुलेशन रोज़ मीडिया जगत में देखने को मिलता है।तकनीकी शब्दों में इसे स्पैम इंडेक्सिंग ऑफ़ सर्च इंजन इंडेक्स भी कहा जाता है। ये काम सिर्फ कुशल तकनीक अभियंता या खास तरह के कंप्यूटर एक्सपर्ट ही कर सकते हैं। क्योंकि इसमें बहुत ज़्यादा कुशलता की ज़रूरत पड़ती है।
तो ये सब बात तो हो गई टीआरपी कीचूँकि वर्तमान युग डिजिटल मीडिया का भी है। ठीक इसी प्रकार की एक टीआरपी डिजिटल मीडिया में (खास तौर से न्यूज़ वेबसाइटों में) भी पाई जाती है। जिसका नाम होता है- वेबसाइट ट्रैफिक। इसको मापने गूगल एनालिटिक्स या डिजिटल ट्रैकिंग मीटर नामक सॉफ्टवेयरों का उपयोग किया जाता है। खेल इसमें भी होता है। फर्ज़ी कीवर्ड्स डालकर वेबसाइट पर ट्रैफिक लाया जाता है। तमाम तरह की दूसरी गतिविधियों जैसे कीवर्ड्स को छुपाना, कंटेंट को छुपाना आदि का भी जमकर इस्तेमाल किया जाता है।. टेक्निकली शब्दों में बात करें, तो इसे ब्लैक हैट SEO और ग्रे हैट SEO के नाम से जाना जाता है। मीडिया जगत में शायद ही कोई ऐसी न्यूज़ वेबसाइट हो, जिसने आज तक ब्लैक हैट SEO ना किया या न करवाया हो।
जिस प्रकार आज एक टीवी चैनल पर टीआरपी मैनपुलेशन का आरोप लग रहा है।. ठीक इसी प्रकार का ट्रैफिक मैनपुलेशन रोज़ मीडिया जगत में देखने को मिलता है।. तकनीकी शब्दों में इसे स्पैम इंडेक्सिंगऑफ़ सर्च इंजन इंडेक्स भी कहा जाता है। ये काम सिर्फ कुशल तकनीक अभियंता या खास तरह के कंप्यूटर एक्सपर्ट ही कर सकते हैं, क्यूंकि इसमें बहुत ज़्यादा कुशलता की ज़रूरत पड़ती है। इसकी मदद से वेबसाइट के पेजों को और खबरों को टॉप सर्च में प्रमोट किया जाता है।
क्या होता है ब्लैक हैट और ग्रे हैट SEO?
उदाहरण के लिए मान लीजिये कि आपके या आपके संस्थान के खिलाफ गूगल पर कोई आर्टिकल या वीडियो पड़ी हैतो उस सम्बंधित ख़बर/आर्टिकल/वीडियो को गूगल के फ्रंट पेज यानी कि पहले पेज पर नीचे रैंक करवाने के लिए उसी विषय से सम्बंधित पॉजिटिव कंटेंट को अन्य वेबसाइटों पर डाला या डलवाया जायेगा। उन खबरों के टैग में जमकर पॉजिटिव खबरों से सम्बंधित कीवर्ड्स को डलवाया जायेगा। इससे क्या होगा? जो नया आर्टिकल/वीडियो/कंटेंट हाल ही में डाला गया है, वो अपने आप ऊपर आ जायेगा,अर्थात दर्शक की नज़र में पहले नज़र आएगा, और जो नकारात्मक ख़बर हो, वो गूगल पर नीचे चली जाएगी।
ऐसा इसलिए किया जाता है, ताकि किसी विशेष व्यक्ति, संस्थान की ऑडियंस उनसे कंनेक्ट में रहे और उन्हें वो नकारात्मक ख़बर/कंटेंट/वीडियो टॉप सर्च में दिखाई ना दे। यह थोड़ा सा लम्बा और टाइम टेकिंग प्रोसेस माना जाता है। लेकिन इसमें परिणाम दूरगामी मिलते हैं।
पैसे कैसे कमाये जाते हैं, ब्लैक हैट/ग्रे हैट SEO से ?
उदाहरण के लिए मान लीजिये कि परसो रक्षाबंधन का त्यौहार है, और आप किसी न्यूज़ वेबसाइट में काम करते हैं।तो अब आपको अगले दो दिन तक रक्षाबंधन
कोट्स, तस्वीरें, बधाईयां, या वॉलपेपर्स, जीआईएफ फाइल, आदि।
इन कीवर्ड्स पर मुख्य रूप से काम करना होगा। अगले दो दिन तक गूगल और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर इन कीवर्ड्स की बाढ़ सी रहती है। ऐसे में यदि आप चाहते हैं कि आपका आर्टिकल/वीडियो/कंटेंट गूगल में टॉप पर रहे तो आप अपने आर्टिकल के पहले पैराग्राफ से पहले इन्हीं विषयों से सम्बंधित कीवर्ड्स डालकर उन्हें वाइट कलर या ग्रे कलर से रंग कर छुपा देते हैं।
तत्पश्चात अपने आर्टिकल के कंटेंट को लिखा जाता है। और यही प्रक्रिया दूसरे पैराग्राफ के शुरू होने से पूर्व की जाती है।रंग से इसलिए छुपाया जाता है, ताकि पाठकों को ख़बर पढ़ते समय यह कीवर्ड्स इत्यादि ना दिखाई दें।.
यह करने के बाद जब वेबसाइट के आर्टिकल को गूगल वेबमास्टर(एक सॉफ्टवेयर) पर इंडेक्स करवाया जाता है, तो वह चंद ही मिनटों में गूगल पर टॉप में आ जाता है।. जिसके बाद उस आर्टिकल और उस वेबसाइट पर खूब ट्रैफिक आना शुरू हो जाता हैं।उन दिनों वेबसाइट पर चल रहे विज्ञापनों से कमाई भी अच्छी होती है। ऐसे में तमाम मीडिया संस्थान इस तकनीक का इस्तेमाल करके करोड़ो रुपए महज़ 24 से 48 घंटों में ही कमा लेते हैं।
क्या न्यूज़ वेबसाइट्स में ऑडियंस मैनुपुलेशन रोज़ होता है?
जी! हाँ, बिल्कुल,किसी चर्चित ख़बर या वायरल वीडियो इत्यादि में कीवर्ड्स स्टफिंग करके तमाम न्यूज़ वेबसाइट्स इसे शीर्ष पर रखने की कोशिश करती हैं। लेकिन, वे ये भूल जाते हैं, कि जैसे ही गूगल का अल्गोरिथम क्रॉलर उस ख़बर/लेख/आर्टिकल के तकनीकी पहलुओं की जांच करता है।, वह उसे तुरंत नेगेटिव रिमार्क देता है और खबर/वीडियो/आर्टिकल को तुरंत गूगल की रैंकिंग में नीचे धकेल दिया जाता है।
इसी चीज़ के लिए आजकल हर बड़ा मीडिया चैनल कम से कम 50 से 60 वेबसाइट अपने पास रखता है।ताकि समय आने पर वह इन वेबसाइटों पर अपनी कंपनियों की अच्छी खबरें लिखवाकर गूगल में शीर्ष पर रैंक करवा सके।
अब इसको दूसरे उदाहरण से समझिये !!!
मान लीजिये अभिषेक एक यूपीएससी कोचिंग संचालक हैं, और 2 महीने बाद उसकी कोचिंग में एड्मिशन शुरू होने वाले हैं।. अब अभिषेक, प्रतीक नाम के एक डिजिटल मार्केटिंग एक्सपर्ट या दूसरे शब्दों में कहें तो SEO एक्सपर्ट प्रतीक से मिलता है और उसको बोलता है कि “आप मेरी वेबसाइट को गूगल में कुछ कीवर्ड्स पर टॉप रैंकिंग में ला दीजिए, ताकि जैसे ही कोई व्यक्ति गूगल पर जाके यूपीएससी कोचिंग से सम्बंधित कोई कीवर्ड डाले, तो उस व्यक्ति को मेरी वेबसाइट ही टॉप पर दिखे।
इसके लिए प्रतीक कुछ तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है।
1) कीवर्ड्स स्टफिंग।
2) ज्यादा से ज्यादा टैग्स का इस्तेमाल।
3) कई दूसरी वेबसाइटों पर अभिषेक की कोचिंग से जुड़े आर्टिकल डलवाएंगे।
4) कई अन्य कोचिंगों के कीवर्ड्स को अभिषेक की वेबसाइट पर लिखे गए ब्लॉगों/आर्टिकल/वीडियो टैग में डलवाकर छुपा देंगे, ताकि कोई उन्हें देख ना सके।
5) मेटा टैग में कीवर्ड्स को ओवरलोड करना
इन सब उक्तियों का इस्तेमाल सिर्फ और सिर्फ गूगल की अल्गोरिथम को तोड़ने के लिए किया जाता है।. इसकी मदद से मीडिया वेबसाइटों को तुरंत परिणाम भी मिलता है।. इन सबका इस्तेमाल करने से वेबसाइट को पढ़ने वाले पाठकों की क्षमता में एकदम से बढ़ोत्तरी देखने को मिलती है।. इसी ट्रैफिक का इस्तेमाल करके कुछ मीडिया कंपनियां विज्ञापन झपट लेती हैं, तो कुछ संस्थान इसका इस्तेमाल अपनी कंपनी के PR में करते हैं।
दिल्ली के SEO एक्सपर्ट पंकज कुमार बताते हैं कि कुछ वेबसाइटस पूरी तरह से कंटेंट का मैनपुलेशन करती हैं। ख़बर के शीर्षक में ट्रेंडिंग या वायरल टॉपिक लिखा होता है, और नीचे ख़बर सिर्फ दो लाइन की होती है।बर के खत्म होने के बाद 20 से 30 टैग्स का प्रयोग किया जाता है।ताकि किसी न किसी कीवर्ड पर खबर को हिट कराया जा सके।. हालाँकि अगर आप गूगल की खबर लिखने की पॉलिसी को देखें, तो वह बिल्कुल इसके इतर है, और यही कारण है कि जैसे ही गूगल की बैकएंड क्रॉलर टीम इसआर्टिकल/वीडियो/ख़बर की जांच करती है, तुरंत इसे रैंकिंग में नीचे कर देती है।. लेकिन तब तक यह खबर/वीडियो/आर्टिकल अच्छा खासा ट्रैफिक खींच चुके होते हैं। जिस कारण इनका प्रभाव बना रहता है।
हरियाणा के प्रतीक खुटेला एक डिजिटल मार्केटिंग कंपनी के वाइस प्रेसिडेंट हैं. वे कहते हैं कि इस प्रकार के SEO(ग्रे और ब्लैक हैट) दोनों करना गलत है।.आप जनता को कुछ का कुछ बोलकर या दिखाकर बेवकूफ नहीं बना सकते। हालाँकि यह भी सच है कि इस तकनीक को भारत में बहुत ही कम लोग जानते हैं, और उससे भी कम लोग इसका सही इस्तेमाल करना जानते हैं।. इस प्रकार की तकनीक का इस्तेमाल सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाने या PR करने के लिए किया जाता है।
क्या ये सही है?
जिस प्रकार से मीडिया में टीआरपी मैनपुलेशन होता है, ठीक उसी प्रकार से डिजिटल मीडिया में भी खूब ऑडियंस मैनपुलेशन होता है।. लेकिन, डिजिटल मीडिया में हुए इस टीआरपी मैनपुलेशन पर हंगामा इसलिए नहीं मच पाता, क्योंकि आधे से ज़्यादा लोगों को यह बातें पता ही नहीं होती। इसके अलावा इन कामों में सिर्फ तकनीकि रूप से कौशल व्यक्ति ही ज़ोर आज़माइश कर सकता है।. इसके साथ सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण मामला तो यह है कि टीआरपी मैनपुलेशन में आपके पास शिकायत करने के लिए MIB और अन्य सरकारी संस्थाएं हैं।, लेकिन डिजिटल ट्रैफिक मैनपुलेशन में ऐसा कुछ नहीं है।
इसके दुष्प्रभाव पर बात करते हुए पंकज कुमार कहते हैं,”डिजिटल एक बहुत बड़ा मॉडल ह।. लोगों को टीवी की न्यूज़ चैनल की टीआरपी तो काफी जल्दी समझ आ सकती है, लेकिन वेबसाइट पर ट्रैफिक कैसे आ रहा है, यह समझना उनके लिए काफी मुश्किल भरा है। किसी न्यूज़ चैनल की वेबसाइट पर ट्रैफिक कैसे आ रहा है, किस तकनीकों का इस्तेमाल करके आ रहा है, यह पब्लिक डोमेन में लोगों को जल्दी समझ नहीं आ सकती। लोगों को किसी न्यूज़ वेबसाइट या एप्लीकेशन पर सिर्फ खबर या वीडियो दिखाई देती है, लेकिन उसमें और क्या- क्या छुपा हुआ है, यह समझना काफी मुश्किल है।. पेज फैक्टर, बैकलिंक फैक्टर, अथॉरिटी फैक्टर, और ट्रैफिक फैक्टर ये चार चीज़ें किसी भी वेबसाइट को ब्रांड बना देती हैं, फिर चाहे आपने ब्लैक हैट किया हो या ग्रे हैट।
न्यूज़ चैनलों का नाम ना बताने की शर्त पर प्रतीक बताते हैं कि कई बड़े मीडिया संस्थानों के पास डिजिटल मार्केटिंग की पूरी टीम होती है।. जो अन्य सभी न्यूज़ चैनलों के डोमेन (वेबसाइट के नाम) पर नज़र रखती है। जैसे ही किसी दूसरे न्यूज़ चैनल के डोमेन पर अच्छा ट्रैफिक आने लगता है, तो ये लोग उसे पोर्न साइट या अन्य वेबसाइटों पर जाकर लिंकबिल्डिंग के द्वारा नीचे रैंक करने की कोशिश करते हैं।. इसका सबसे बड़ा नुकसान यह है कि बड़े मीडिया संस्थाओं के अलावा कोई और डोमेन या कोई और आर्टिकल कभी टॉप पर तब तक नहीं आ सकता, जब तक वह भी इस युक्ति का प्रयोग ना करे।.