सुबह के 5 से 6 बजे के मध्य का समय, सर्द मौसम , और सूरज के किरणों से लड़ता हुआ रात का अंधकार अपने चरम पर था|
तभी कृत्रिम प्रकाश व्यवस्था की सेवा भी बन्द होने लगी थी, एक युवती सामने से आकर रूकी, और मुझसे पूछा,”आप डेली (प्रतिदिन) यहां आती हैं?”
– हां
– “कल एक लड़के ने हमारे साथ में प्रैक्टिस कर रही लड़की को जानबूझर धक्का मार दिया था, मुझे तो डर लग रहा है, ऊपर से इतनी जल्दी लाईट बन्द कर दी”
लड़की मुझे थोड़ा असहज महसूस हुई
– “तो थोड़ी देर रुक कर चली जाना, उजाला भी हो रहा है,और लोग भी बढ़ रहे है”
– “मुझे भतीजे के लिए टिफिन बनाना हैं, लेट हो जाएगा फिर”
बातों बातों में उसने विस्तार से बताया|कल की घटना से वह थोड़ी सहमी हुई लगीं|
उसने पूछा क्या मैं उसे उसके घर तक छोड़ सकती हूं?
मुझे कोई आपत्ति नहीं थीं, और ऐसे उसे उसके घर तक छोड़ने गई जैसे खदरा (लखनऊ) में मेरा ननिहाल हो|
हालांकि वापस आते समय मै गली भूल गई थीं, और अंधेरा भी था, पर साथ में विश्वास और आत्मसंतोष का प्रकाश भी था|
जी हां, मै भी अनभिज्ञ थी, खदरा से, उस वक़्त तक मुझे नहीं पता था , उस क्षेत्र के बारे में|
मुझे उस समय डर नहीं था, क्योंकि किसी अप्रिय घटना को इतना करीब से महसूस नहीं किया था , डर की विजय मुझ पर नहीं थीं, अन्यथा एक अनजान लड़की को, एक अनजान मोहल्ले में, (जबकि मै खुद लखनऊ एक महीने पहले गई थी, और फैजुल्लागंज से ज्यादा कुछ नहीं जानती थी) जाने का साहस नहीं कर पातीं
आज वर्तमान समय में घटित घटनाओं ने हमारे परिजनों के साथ साथ, हमारे भी मन पर विजय प्राप्त कर ली है, डर ने हमारे कदमों पर बंदिशे लगा दी हैं|
मन में प्रश्न यह हैं कि डर इतना प्रभावशाली हैं तो परिस्थितियां विपरीत क्यों नहीं हो सकतीं?
यह डर की भावना अपराधियों के मन में क्यों नहीं जाग्रत हो सकती, क्या कानून की कमी हैं?
या समाज अपने उत्तदायित्वों का निर्वहन नहीं कर रहा?
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