उत्तर प्रदेश पुलिस और कांग्रेस कार्यकर्ताओ के बिच हो रही झड़प के एक वीडियो ने आज मेरा ध्यान आकर्षित किया। प्रियंका गाँधी वाड्रा लाठियों से ना डरते हुए पुलिस और कार्यकर्ताओ के बिच दीवार बनी। इसे राजनीति नहीं साहस कहा जाता है क्योंकि अक्सर राजनीति करने वाले नेता बच निकलते है और पीछे छूट गए कार्यकर्ताओं को पुलिस एवं प्रशासन के क्रोध का सामना करना पड़ता है। बलात्कार हुआ या नहीं भले ही इसकी पुष्टि न हुयी हो लेकिन युवती की मौत तो हुयी है! इतना ही नहीं परिजनों को अंतिम दर्शन भी नहीं करने दिए। अंतिम दर्शन करने की अनुमति तो हिन्दू धर्म देता ही है? इन सबके बावजूद यदि आपने आँखे सिर्फ़ इसलिए मूँद रखी है क्योंकि आप किसी नेता को पसंद करते है या सत्ताधारी पार्टी के समर्थक है तो यकीन मानिये आप नपुंसक हो चुके है।
अगर महिलाओं की सुरक्षा की बजाय लोगो को नेता और पार्टी का मोह है, तो वाकई देश के हालात चिंताजनक है और यहाँ महिलाएं बिलकुल सुरक्षित नहीं है। सरकार में चेहरे बदलते रहते है और नेताओं के भाषण भी मौसम की तरह बदल जाते है लेकिन कुछ नहीं बदल रहे तो वो है आम जनता के हालात। बड़े ही शर्म की बात है कि आज हमें पीड़ित परिवार के दर्द की बजाय पार्टी और नेता दिखाए दे रहे है और न्याय की मांग हमें राजनीति लग रही है। आखिर कब तक हम ये पट्टी आँखों पर बांधे रखेंगे? शायद जब तक अपराधी हमारी चौखट पर नहीं आ जाते!
सोशल मीडिया के ज़माने में सत्ता और विपक्ष दोनों ही बोखला गए है। किसी को समझ ही नहीं है कि संवेदनशील मामले पर किस तरह प्रतिक्रिया देनी चाहिए। अगर एक युवती की मृत्यु पर उसे न्याय दिलाने की बजाये चर्चा इस बात पर हो रही हो कि बलात्कार हुआ है या नहीं तो वाकई सब नपुंसक हो गए है। उसके जीतेजी बलात्कार हुआ या नहीं लेकिन उसके मरने के बाद हर रोज़ मीडिया और लोग उसका बलात्कार कर रहे है और पीड़ित परिवार का शोषण कर रहे है।
जो मीडिया ढाई महीने पहले हुयी एक अभिनेता की मौत पर उसे इन्साफ दिलाने के लिए रात दिन एक किये हुए है, वही मीडिया ढाई दिन पहले हुयी एक दलित युवती की हत्या की खबर सुन कर अपंग हो गयी। मीडिया को इस बात की चिंता तो है कि विपक्षी दल के राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी क्या कर रहे है, लेकिन उस पार्टी से सवाल करने से डर रहे है जिसकी सरकार, प्रदेश और केंद्र दोनों जगह है। जो आक्रोश मीडिया विपक्ष के प्रति दर्शाता है वही सत्ताधारी पार्टी की बात आते ही क्रोध हवा हो जाता है। मीडिया का ये गैरजिम्मेदार बर्ताव लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को ना सिर्फ़ कमज़ोर साबित कर रहा है, बल्कि विलुप्त होने की कगार पर खड़ा है। इतिहास में ये दर्ज़ किया जायेगा कि एक वक़्त ऐसा भी था अपराधियों के होंसले सबसे ज्यादा बुलंद थे लेकिन तब मीडिया और पुलिस दोनों ही लाचार थे।
क्या ये अघोषित इमरजेंसी नहीं है? जहाँ मीडिया सरकार के गलत फैसलों पर सवाल उठाने से ना सिर्फ़ डरती है बल्कि गलतियों पर पर्दा डालने का प्रयास भी करती है। पुलिस इतनी बेबस हो चुकी है कि सरकार की कठपुतली बन कर रह गयी है। आख़िर पुलिस में कोई इंसान नहीं था जो इस तरह से उस युवती के अंतिम संस्कार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा सके? इतिहास में ऐसे कई मामले दर्ज़ है जहाँ इन्साफ की ज़िद में परिजनों ने मृतक के शव को नहीं स्वीकार किया। फिर इतने संवेदनशील मामले में इतनी जल्दबाजी क्यों की गयी?
मेरी घर में बहन बेटियां है इसलिए मैं तो आवाज़ उठाऊंगा और सवाल भी करुँगा कि आख़िर इन्साफ के लिए आम जनता को दर दर की ठोकरे क्यों खानी पड़ती है। आज़ादी के 73 साल बाद भी आम जनता के हालात क्यों नहीं बदले और ये सिस्टम वैसा का वैसा ही क्यों है? अब तो जनता ने पूर्ण बहुमत से पार्टी भी अपने पसंद की चुन ली, फिर बदलाव क्यों नहीं आया? पहला कार्यकाल नहीं है इस पार्टी का ये, कब आएंगे अच्छे दिन? अगर महिलाएं सुरक्षित नहीं है और जनता को न्याय नहीं मिल पा रहा तो क्या कश्मीर और क्या राम मंदिर? आख़िर कब तक देश वोटबैंक की राजनीति की भेंट चढ़ कर भुगता रहेगा?
बड़ी उम्मीद से जिस विचारधारा को जनता ने सिर माथे पर बैठाया है उसकी छवि अब धूमिल होती दिखाई दे रही है। ये बहुत ही अनोखी सरकार है जो विपक्ष से सवाल करती है और विपक्ष पर ही आरोप लगाती है। आज भी सरकार और भाजपा के नेता कांग्रेस को ही दोष देते आ रहे है जबकि सब भली भांति जानते है कि मोदी जी ने जहाँ-जहाँ फीते कांटे वह नींव की ईट पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने रखी थी। लोकतंत्र आपको ये अधिकार देता है कि आप सरकार से सवाल करें और उसके प्रदर्शन की समीक्षा करें। सवाल करना आपको किसी के ख़िलाफ़ नहीं करता, बल्कि सरकार को बेहतर प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित करता है। यदि हम सवाल नहीं करेंगे, समीक्षा नहीं करेंगे तो सरकार को पता कैसे चलेगा कि आख़िर जनता चाहती क्या है? जागरूक नागरिक होने के नाते ये हम सब का कर्तव्य है कि हम आवाज़ उठाये।