जैसी कि उम्मीद थी बहस बिल्कुल उसी शक्ल में हो रही है। रुबिका लियाकत अली ने बहस में सवाल रखा कि पुजारी की जगह किसी मौलवी को जलाकर मारा गया होता तब क्या होता। तब लोकतंत्र की हत्या हो गई चिल्लाने वाले लोग आ जाते। ऐसी ही कुछ बहसें दिल्ली के उस विवाद को लेकर हैं जिसमें एक हिन्दू लड़के को पीट-पीट कर मार दिया गया। दोनों घटनाएं गैर-बीजेपी शाषित राज्यों की हैं।
वाजिब कार्रवाई की ज़रूरत
किसी भी हत्या, जो कि सामुदायिक हत्या का प्रतीक बन चुकी हो उसके बाद हम क्या चाहते हैं? क्या हमें राजनेताओं की प्रतिक्रिया सोनिया राहुल प्रियंका या फिर जेपी नड्डा का ट्वीट चाहिये? हर बार वैसा ही हल्ला-हड़ताल जैसा प्रदर्शन चाहिए? जवाब होगा नहीं, अगर वाजिब कार्यवाही हो रही है तो फिर न्याय या फिर संवेदनाओं का प्रतीक ट्वीट्स या प्रदर्शन नहीं हो सकते।
सोशल मीडिया बवाल और हंगामे-प्रदर्शन वहां वाजिब नज़र आते हैं जहां आरोपियों के पक्ष में परोक्ष शक्ति या सरकार खड़ी नज़र आये। राजस्थान या दिल्ली की घटना में हुई हत्याओं की घटना में, इससे पहले हुए बलरामपुर और राजस्थान में बलात्कार की घटना में कोई संगठन, पंचायत, जाति या धर्म या क्या किसी आरोपी के पक्ष में सभाएं और रैलियां करता नज़र आया? नहीं।
राजस्थान में जहां पुजारी की हत्या हुई। आज दिन भर पुजारी का शव रख कर मांगे माने जाने तक दाह संस्कार से इनकार किया गया। इस प्रदर्शन में पुजारी का एक ब्राम्हण परिवार शामिल था शेष पूरे गांव के परिवार शामिल थे जो कि गांव की 99% आबादी वाली जाति से आते हैं। जिस जाति से हत्यारे हैं।
मांगों को लेकर गांव की मीना जाति के लोग पुजारी के अकेले ब्राम्हण परिवार के साथ लड़े और अंत में सभी घरों से दाह संस्कार के लिए लकड़ियां भी आईं। परिवार की उपस्थित में, परिवार की मर्ज़ी लेकर बाकायदा दाह-संस्कार हुआ। आरोपी गिरफ्तार हुए, मुआवज़ा और पुजारी के परिवार के लिए एक पक्का घर, परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने का ऐलान किया गया।
राजनीति करनी है तो आप अभी भी कर सकते हैं
जी बिल्कुल यदि राजनीति करना है तो आप भी कर सजते हैं परंतु एक बार घटनाओं से तुलना अवश्य करें। जहां धर्म या जाति के आधार पर आरोपियों के समर्थन में रैलियां होती हैं और संभाएं आयोजित की जाती हैं। जातियों और धर्म का ढोंग करने वाली सरकारें तमाशा देखती हैं। और तो और वह आरोपियों को पूरा संरक्षण देने का काम करती हैं।
चाहे वह हत्यारा शम्भूनाथ रैगर हो जिसके समर्थन में उदयपुर की अदालत पर भगवा फहरा दिया गया था। उन्नाव के विधायक हों, कठुआ बलात्कार के आरोपी हों या फिर अभी हाथरस के ठाकुर आरोपियों के समर्थन में की गयी सवर्ण समाज की पंचायत हो।
उपरोक्त सभी मामलों में ट्वीट्स, सोशल मीडिया, हल्ला-प्रदर्शन तमाम हंगामे के बावजूद आप पाएंगे कि अंततः एक तरह से आरोपियों को सरकारी संरक्षण प्राप्त हुआ। जबकि पीडित परिवार को न्याय के नाम पर ढेला तक नहीं मिला।
अतः हाथरस की घटना को इस प्रवृति के लिये याद रखियेगा। एनआरसी-सीएए आंदोलनों के समय से पीएफआई पर विदेशी चंदा लेने के सरकारी आरोप लगते आये हैं। आजतक जांच कहीं नहीं पहुंची। हाथरस में भी पीएफआई का नाम लेकर मुद्दे को अजीब सा मज़हबी रंग दे दिया गया है।
बड़े-बड़े शब्द रचकर, प्रदर्शनों को लेकर राजद्रोह जैसी धाराएं तक जोड़ी गयी हैं। अगर आप कहते हैं कि यह राजनीति है तो मैं फौरन इंकार करता हूं और दोहराता हूं कि सब कुछ आरोपियों को दिया जा रहा वही सरकारी संरक्षण है, जिसके खिलाफ प्रदर्शनों का होना वाजिब हो जाता है।