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वोट विकास को दीजिए, धर्म को नहीं

तथाकथित सेक्युलर और डेमोक्रेटिक पार्टियों को वोट सिर्फ इसलिए करना चाहिए कि वो सेक्युलरिज्म की बात करते हैं?

क्या सेक्युलरिज्म आज इतना कमज़ोर हो चुका है की इसे बचाना बेहद ज़रूरी हो गया है? अगर हाँ! तो क्या उसे सिर्फ मुसलमानों के वोटों से ही बचाया जा सकता है? क्या सेक्युलरिज्म को बचाने की ज़िम्मेदारी सिर्फ मुसलमानों की ही है?  इन सभी सवालों पर विस्तार से चर्चा की ज़रुरत है।

मुसलमान और सेक्युलर पार्टी का तुष्टिकरण

जिस दिन देश का मुसलमान इन तथाकथित सेक्युलर पार्टियों को वोट देना बंद कर देगा। जिस दिन देश के सो कॉल्ड सेक्युलर पार्टियों को एहसास हो जाए कि मुसलमानों का वोट किसी भी सेक्युलर पार्टी को नहीं मिलने वाला। उस दिन से तुष्टिकरण कि राजनीति का शायद खात्मा भी हो जाएगा। ना सिर्फ तुष्टिकरण का खात्मा होगा बल्कि उसी दिन एक और जनाज़ा भी निकलेगा, जो सेकुलरिज्म का जाप करने वाली सेक्युलर पार्टियों का होगा।

साथ ही साथा सेक्युलरिज्म का झूठा जाप भी दो मिनट में खत्म हो जाएगा। 

मुसलमानों का इस स्टिग्मा से बाहर निकलना। अब इसलिए भी ज़्यादा ज़रूरी हो गया है, क्योंकि देश की ज़्यादातर पार्टियों के लिए उनके वोटों को ध्रुविकरण कर बेमतलब बनाना आसान हो गया है। ये पार्टियां अब ये समझ गईं हैं की अगर दस, सो-कॉल्ड सेक्युलर पार्टियाँ मैदान में हों तो एक कट्टर पार्टी का जीतना बेहद आसान हो जाएगा और इसमें बहुत हद तक कामयाबी भी मिलती है।

इस बार शायद ऐसा ही कुछ बिहार में भी देखने को मिल सकता है। जहाँ महागठबंधन के अलावा अभी तक कई फ्रॉन्टस बन चुके हैं और सबका अपना अपना सी एम कैंडिडेट भी है। इसका मतलब ये भी नहीं है कि मुसलमानों को किसी कट्टर या दक्षिणपंथी पार्टी को वोट करना शरू कर देना चाहिए। बिल्कुल नहीं!

धर्म को नहीं विकास को वोट कीजिए।

मुसलमानों के साथ देश की जनता को भी डेवलपमेंट की बात करने वालों को ही वोट करना चाहिए। उन्हें देश को जोड़ने कि बात करने वालों को वोट करना चाहिए। उन्हें ऐसे नेता को चुनना चाहिए जो, लोगों के कपड़े, धर्म, जात, भाषा, रंग इत्यादि को ना देखकर, उन्हें एक हिंदुस्तानी के रूप में और एक समान देखने वाला हो। वो जनता का नेता हो और जनता के लिए हो।

वो सिर्फ वोट पाने के लिए हिन्दू, मुसलमान, दलित, बिहारी, मराठी, बंगाली, तमिल, मलयाली वगैरह वगैरह नहीं बनता हो। बल्कि इंसानियत और देश के लिए बनता हो। इंसानियत की सेवा के लिए बनता हो और इंसानियत ही उसके लिए सबसे ऊपर हो।

उसे मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, गरुद्वारा और मठ से ज़्यादा देश के क़ानून से प्यार हो। उसके लिए देश का क़ानून सबसे पहले आता हो।

अज्ञानता के समुंदर में गोता लगाते समाजिक प्राणी।

बहरहाल! सेक्युलर होना पहले गर्व की बात रही होगी। हम जैसे लोगों के लिए, ये आज भी है। साथ ही इसे खोखला होते देख दुःख भी होता है।

लेकिन देश की ज़्यादातर आबादी जिन्हैं सेक्युलरिज्म का मतलब नहीं मालूम। अर्थशास्त्र नीति नहीं पता, जिन्हे बेरोज़गारी तो पता है लेकिन किससे मांगना है नहीं मालूम। जिन्हें अपने कल के इतिहास का ज्ञान नहीं है। जो व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी समझा देती उस ज्ञान को सच मान लेते हैं। उन्हें अमेरिका और पश्चिमी देशों से इम्पोर्ट करके लाए गए सेक्युलर, डेमोक्रेटिक जैसे शब्दों को जानने और समझने की उम्मीद करना मुझे बेवकूफी लगती है।

ये भी सत्य है कि देश की मिट्टी में ही सेक्युलरिज्म रचा बसा है। जिसकी वजह से ये अब भी ज़िंदा है। लेकिन ये भी एक कड़वा सच है कि ये सेक्युलरिज्म भी अपनी आखरी सांसें गिन रहा है। ये सेक्युलरिज्म यहाँ के मिट्टी की देन इन नेताओं की नहीं।

क्या देश की राजनीति में मुसलमानों के वोट में वज़न है?

अगर मैं ये कहूँ की लालू प्रसाद यादव, अखिलेश यादव, मायावती, ममता बैनर्जी और ना जाने कौन-कौन सीएम बने सत्ता की शीर्ष पर मुसलमानों के वोट के बदौलत बैठे हैं। तो शायद इसमें कोई गलती नहीं होगी। निश्चित तौर पर बाकियों का वोट भी शामिल था। या हो सकता है ज़्यादा ही होगा, लेकिन कहीं ना कहीं हर चुनाव में मुस्लिम एक फैक्टर होता ही है।वहीं दूसरी ओर देखा जाए तो मुस्लिम के अलावा देश के सभी समुदायों की तरक्की, मुस्लिमों की तुलना में कहीं ज़्यादा हुई है। वहीं उलट, मुसलमानों की हालत और खराब ही हुई है। आप रिपोर्ट उठा कर देख लीजिए ‘सच्चर कमिटी’ एक उदाहरण है।

बावजूद इसके मुसलमानों ने हमेशा देश के तथाकतिथ सेकुलर पार्टिओं को ही वोट किया।ना सिर्फ मुसलमानों ने बल्कि आज़ादी से पहले और आज़ादी के बहुत दिनों बाद तक हिन्दू और मुसलमानों, दोनों ने ही कट्टर सियासी जमातों को सिरे से नकार दिया था। लेकिन तस्वीर अब बहुत बदल चुकी है। अब हालत ये हो गई है की मुसलामनों को देश में और दुनिया में होने वाले हर अनहोनी और कुकर्म का दोषी ठहराया जाता है। इसका असर सीधे तौर पर देश के मुसलमानों पर साफ देखने को मिला है। उनकी हालत दिनों-दिन हर क्षेत्र में बिगड़ती ही गई है। जिसकी बानगी सच्चर कमिटी खुद देती है।

मुसलमानों के वोटिंग पैटर्न में अब तक कोई बदलाव नहीं आया है।

वही घिसी पिटी सोच दोनों पार्टियों से, एक पार्टी मुसलमानों को दूसरी पार्टी के नाम पर डराती है और दूसरी पार्टी लोगों को मुसलमानों के नाम पर डराती है। सियासत, दोनों तरह के डर का सामना कर रही है और फायदा भी दोनों पार्टियाँ ही उठा रही हैं। बेवकूफ! बस जनता बन रही और नुकसान मुसलमान ज़्यादा उठा रहा है।

आखिर वजह क्या थी या क्या रही होगी जो अब तक मुसलमानों के वोटिंग पैटर्न में कोई बदलाव नहीं देखा गया? सियासी पार्टिओं का डर? या कुछ और

जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ वजह, सेक्युलरिज्म को बचाना था। उसी के नाम पर मुसलमानों ने भेड़ चाल में वोट भी दिया। जिताया भी, सीएम भी बनाया लेकिन आज तक क्या मिला? बस डर? क्या मुसलमानों के लिए ‘सेकुलरिज्म बचाने’ के आगे सारे मुद्दे बौने पड़ जाते हैं? इसका जवाब शायद हाँ ही होगा और वजह आप सब के सामने है।

सेक्युलरिज्म की दुहाई देने वाले बात बात पर डेमोक्रेसी का मर्डर कह कर चिल्लाने वाले। ना तो सेकुलरिज्म ही बचा पाए और न ही तरक्की दिला पाए।

मुसलमानों को देश का विद्रोही माना जाना, देश के साथ बेईमानी है।

मुसलमानों को तो छोड़िये। देश भी आज अजीब मुहाने पर पहुँच गया है। मुसलमानों को जो चीज़ें दी गई हैं वो हैं मुज़फ्फरनगर, भागलपुर, जमशेदपुर, मुरादाबाद, गुजरात, हाशिमपुरा, दिल्ली और इस जैसे छोटे बड़े हज़ारो दंगे और ना जाने क्या क्या नाम।

बंगाल वाले सीपीएम का तो ये हाल था कि मुसलमानों के लिए जो फंड सेन्ट्रल गवर्नमेंट से आता था। उस तक वो इस्तेमाल नहीं करते थे और वापस कर देते थे।

दिखावा और छलावा किया गया। सिर्फ मुसलमानों के साथ नहीं बल्कि पूरे देश की जनता के साथ। आज भी किया जा रहा है। आज तो ऐसा माहौल बना दिया गया है जिसमें ज़्यादातर हिन्दू-मुसलमान एक दूसरे को अपना दुश्मन मानने लगे हैं।

धर्म के नाम पर हर नागरिक का इस्तेमाल किया जाना कहीं से भी तर्कसंगत नहीं लगता।

कुछ पार्टियाँ तो सेकुलरिज्म के नाम पर ढोंग करती हैं। इन पार्टियों ने मुसलमानों के साथ तो ढोंग किया ही है। मुसलमानों से कहीं ज़्यादा इन्होंने ने देश के साथ अन्याय किया है।

अगर मैं ये कहूँ की सीधे तौर पर अगर कोई सीएम नहीं बना मुसलमानों के वोट से तो वो बीजेपी है। हालाँकि वोट उन्हें भी मुसलमानों के नाम पर ही मिला है (यहाँ एक बार फिर कहना चाहूंगा मेजोरिटी वोट की बात कर रहा हूँ)।

जिस प्रकार से बाकी सेक्युलर पार्टियों ने मुसलमानों के वोट का इस्तेमाल किया है। वैसे ही बीजेपी ने हिन्दूओं के साथ किया है। अब भी इस्तेमाल कर रही है। अंत में नुकसान सिर्फ देश का और देश की जनता का ही हो रहा है।

क्या मुसलमानों ने सेक्युलर पार्टियों को इसलिए वोट किया था ताकी वो इन्हें इस हालत में पहुँचा दें? ठीक वैसे ही जैसे क्या देश की ज़्यादातर आबादी ने बीजेपी को इसलिए वोट दिया था ताकी वो देश को इस हालत में पहुँचा दें?

जनता देश को बचाने के लिए वोट करती है न कि बर्बाद करने के लिए।

क्या देश की जनता ने बीजेपी को देश के जीडीपी को 24% गिराने के लिए वोट किया था?

जी नहीं बिल्कुल नहीं। ठीक, उसी प्रकार मुसलमानों ने किसी भी सेक्युलर पार्टी, खासकर कांग्रेस को इसलिए वोट नहीं दिया था कि देश में तुष्टिकरण की राजनीति शरू की जाए। हर बार इलेक्शन से पहले डराया जाए बिल्कुल नहीं।

बात देश के सेक्युलर फैब्रिक को बचाने की थी। कुर्सी बचाने और कुर्सी हथियाने की नहीं। बात देश को तरक़्क़ी देने की थी दंगे फसाद, आपसी लड़ाई और एक दूसरे के मन में नफरत भरने की नहीं।

देश को बनाने और मिटाने वाले सियासी खेल खेलने में माहिर हैं।

देश समाज से बनता है जब समाज ही बाँट दिया गया है। समाज में ही लोग एक दूसरे का दुश्मन बना दिये गए हैं। तो सोचिए! देश कैसे बचेगा? और कौन बचाएगा?

क्या हमें ये मान के चलना चाहिए की जिस चीज के लिए जनता ने सरकारें चुनी थी सरकारें शायद वही कर रही हैं? मुसलमानों ने सो कॉल्ड सेक्युलर पार्टियों को अपने तुष्टिकरण के लिए चुना उनका तुष्टिकरण किया गया। अभी की सरकार को लोगों ने अपने बीच दूरी बढ़ाने और सेक्युलर फैब्रिक को खत्म करने के लिए चुना वो भी हो रहा है।

अभी की सरकार के संदर्भ में लोग दो तीन तर्क दे सकते हैं। जैसे की 370 का हटाया जाना, एनआरसी का लाया जाना वगैरह। तो ऐसे में ये सवाल भी महत्वपूर्ण हो जाता है की क्या सरकार की जिम्मेदारी बस इसमें ही सिमित है?क्या वो पॉलिटिकली नहीं थे? उसके आने से देश का या राज्य का क्या भला हुआ है? उसके उलट कश्मीर हो या असम। जो बातें कही गईं थी या कही जा रही थीं। एक साल बीतने के बाद वैसा कुछ भी होता नहीं दिख रहा है।

वहीं मुसलमानों ने अपने लिए किसी को सीएम नहीं बनाया, नेता तक नहीं चुना और जिनको चुना उन्होंने भी बस तुष्टिकरण ही किया।

मुसलमानों के लिए दिखावे की राजनीति सभी इकाईयों ने की।

सीएम दूसरों के लिए चुना और दूसरों के लिए ही नेताओं का चुनाव भी किया। दूसरों के लिए भीड़ बनके खड़े भी हुए। चंद्रशेखर रावण हों या योगेंद्र यादव सब ने मुसलामनों के भीड़ में जाके अपनी राजनीति को चमकाने की ही कोशिश की। लेकिन कभी सौ लोगों को आपके हक की बात के लिए आपके साथ लाकर खड़ा नहीं कर सके। इन्हें बस एक सियासी मंच चाहिए और वो मुसलमानों से बेहतर कौन दे सकता है।

जब भी मुसलमानो को ज़रुरत पड़ी सबने बस तुष्टिकरण कि राजनीति ही की। चाहे फिर वो मायावती हों, नीतीश कुमार हों या केसीआर हों। हाल फिलहाल में भी आपमें से ज़्यादातर लोगों ने इनके रूप को पार्लियामेंट में भी देखा ही होगा।

वोट चाहिए मगर सेक्युलरिज़्म को बचाने आगे नहीं आ सकते।

मैं तो कहता हूँ सेक्युलरिज़्म के नाम पर वोट देना ही क्यूँ? सेक्युलरिज्म की गारंटी तो भारतीय संविधान देता ही है। फिर ये पलटू नेता संविधान से बढ़कर तो बिल्कुल नहीं हैं।

आपने जिनके लिए उन्हें सीएम चुना या नेता बनाया। ये नेता उनके लिए खड़े भी हुए। उनके लिए इन नेताओं ने खूब काम भी किया। उत्तर प्रदेश में दलितों कि हालत सुधारने में मायावती का बहुत बड़ा योगदान है। ओबीसी के लिए अखिलेश और मुलायम ने बहुत काम किया। वो अलग बात है लोग आज मानें या ना मानें। लेकिन नकारा नहीं जा सकता वैसे ही बिहार में लालू और पासवान का पिछड़ी राजनीति को उठाने में बहुत बड़ा योगदान है। इन्होंने जो भी किया मुसलमानों के वोट पर किया।

यक़ीन नहीं हो तो थोड़ा मेहनत कीजिए इतिहास उठा के देख लीजिए। रिकॉर्ड देख लीजिये, सब समझ में आजाएगा।

बिहार में इलेक्शन होने वाला है। सोच समझ के वोट करिए। ऐसे को चुनिए जो देश के साथ साथ आपका तरक्की चाहने वाला हो। सिर्फ अपना नहीं या किसी ख़ास ज़ात, धर्म विशेष का नहीं।

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