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कविता: “माँ मुझे छुपा ले अपने आंचल में”

माँ मुझे छुपा ले

अपने आंचल में

ये दुनिया बहुत बुरी है

घूरती है मुझे अपनी नंगी-नंगी आंखों से

और कहती है कि तू बुरी है।

 

यौवनावस्था जब से आई है

ये कैसी विकट परिस्थिति लाई है?

हर कोई मसलने की ताक में रहता है

कहता नहीं कुछ मगर उनकी आंखें दर्शती हैं।

 

बोलता नहीं कुछ मगर मन में बात रहती है

डर लगता है उन आंखों से

जो इस तन को ताका करते हैं

राह तका करते हैं राहों में कि वो अब आएगी।

 

हमारी हुस्न देखने की चाह को

फिर से मिटाएगी

कैसे निकलूं अब घर से इस तन के साथ?

जो है प्रदर्शन की वस्तु!

 

मुझे निहारता हर वो बंदा

नीचे से ऊपर तक

जिसे मैं नहीं, मेरी जवानी अच्छी लगती है।

 

माँ मुझे छुपा ले

अपने आंचल में

मुझे ये दुनिया बहुत

बुरी लगती है।

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