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“BHU में मेरी जाति जानने के बाद दोस्तों ने बात करना बंद कर दिया”

जातिवाद

जातिवाद

देश की राजधानी दिल्ली पर हमेशा सबकी निगाहें टिकी रहती हैं और इसी दिल्ली में मेरा जन्म हुआ, जहां बचपन की दहलीज़ को पार कर यौवन में भी कदम रखा। अच्छी शिक्षा तो मिली मगर जीवन में कई दफा जब उद्देश्य का पता नहीं होता है, तब मज़ा नहीं आता।

मुझे लगा शायद यह हाल सभी दलित और गरीब परिवारों का है, जो अपने गाँवों से शहरों से आ तो जाते हैं लेकिन उन्हें कोई बताने या समझाने वाला नहीं होता कि आखिर पढ़-लिखकर क्या करना है।

दिल्ली जैसे शहर में रहकर कभी जाति का खेल देखा या महसूस नहीं कर पाया। दिल्ली से ग्रेजुएशन करने के दौरान 3 साल में कभी ऐसा कुछ नहीं हुआ जिससे समझ पाता कि जातिगत भेदभाव नाम की भी कोई चीज़ होती है। यही मानता कि या तो मेरे गोरे रंग ने मुझे जातिगत भेदभाव से बचा रखा या सस्ते फैशन की वजह से भी लोगों ने जाति पर सवाल खड़े नहीं किए।

बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी और जातिगत भेदभाव

बहरहाल, मैंने बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया। यह जगह दिल्ली से बिल्कुल अलग थी। हम अपने गाँव जाते थे लेकिन कभी उत्तर प्रदेश के और शहरों को जानने-समझने का मौका नहीं मिला। ऐसा लग रहा था जैसे मैं इस शहर में खो गया था।

यहां की भाषा में इतनी मिठास थी कि सभी लोग मुझे अच्छे लगने लगे। ऐसा लगा मानो मुझे बनारस से मोह हो गया था लेकिन किसी ने सही कहा है, जो चीज़ें दूर से अच्छी दिखती हैं, उनमें बहुत से प्रश्न छुपे होते हैं।

शायद यह मेरी उम्र थी जो यह सब महसूस करा रही थी क्योंकि मैंने इन आंखों से दुनिया या समाज को ज़्यादा देखा नही था। मेरे हॉस्टल का नया जीवन प्रारम्भ हुआ, एक अच्छा रूममेट मिला और साथ में  कुछ दोस्त भी मिले। उनके साथ चाय की चुस्कियों में ढेर सारी बातें होती थीं और सबसे खास बात कि कोई बंदिशें नहीं थीं।

फोटो साभार: Twitter

मैं अपने नाम में सरनेम नहीं लगता था। कुछ लोग पूछते भी थे तो बता देता था क्योंकि मैंने कभी भी किसी के प्रश्न पूछने की प्रतिक्रिया या उद्देश्य पर गौर नहीं किया। शायद यह मेरी सादगी थी लेकिन धीरे-धीरे लगा कि यह मेरी अज्ञानता थी। मुझे तो समाज की जाति व्यवस्था की भी जानकारी नहीं थी कि कौन सा सरनेम किस श्रेणी में आता है।

मुझे बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था कि समाज में आज भी जातिवाद का अस्तित्व है और लोग उसी में जीते हैं। खैर, बदलते वक्त के साथ मुझे भी विश्वास हो गया था कि जाति जैसी चीज़ें हैं। मेरा रूम पार्टनर ब्राह्मण समाज से था। दो और दोस्त, एक यादव और एक ठाकुर था। कोई मेरी शक्ल देखकर अंदाज़ा नहीं लगता था कि यह अच्छा दिखने और अच्छे कपड़े पहनने वाला दलित हो सकता है।

इस वजह से सभी अच्छी दोस्ती निभाते थे। मेरे साथ खाना खाने जाने से लेकर गप्पे लड़ाने तक भी उन्हें गुरेज़ नहीं होता था। मेरा व्यवहार दूसरों की तरह नहीं था। जिसे भी दोस्त मानता था, उसके लिए हमेशा तत्पर रहता था।

जब दोस्तों ने सरनेम जानने की कोशिश की

दोस्तों ने एक बार मेरे डॉक्यूमेंट्स देख लिए तब उन्हें मेरी जाति के बारे में अंदाज़ा हो गया। मेरे दो दोस्तों ने धीरे-धीरे मुझसे बात करना कम कर दिया। उन्होंने मेरे साथ खाना खाने जाना भी छोड़ दिया, समझ लीजिए सब एक पल में बदल गया था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि अचानक ऐसा क्या हो गया कि सभी दूर हो गए।

यह सब काफी दिन चलता रहा और मेरे रूम पार्टनर ने मुझे संकेत दिया कि तुम पढ़ाई पर ध्यान दो। मैंने अपने आपको तो समझाया लेकिन मन को नहीं समझा पा रहा था कि आखिर बात क्या है, कुछ ही दिनों में मेरे दो दोस्त मुझसे आंखें चुराने लगे, कम बोलने लगे और नज़रअंदाज़ भी करना शुरू कर दिया।

एक दिन मेरे रूम पार्टनर के साथ मैं खाना खा रहा था तब मेरे पार्टनर ने बताया कि मेरे दोस्त मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हैं। मेरे रूम पार्टनर ने कहा, “मनीष देखो, ये लोग मुझे बोलते हैं कि मैं तुम्हारे साथ खाना ना खाऊं क्योंकि तुम दलित हो। मुझे यह भी कहा कि मैं ब्राह्मण हूं और इस नाते मुझे तुमसे दूर रहना चाहिए।”

यह सब बातें सुनकर तो मेरे पैरों तले से ज़मीन खिसक गई। उस दिन मेरी आत्मा हिल चुकी थी फिर मेरे दोस्त राजदीप ने यह भी कहा कि मैं पढ़ा-लिखा हूं और जातिवाद नहीं मानता हूं, बस तुम इन लोगों से दूर रहो।

मैं काफी वक्त तक खुद से बातें करता और सोचता था कि समाज में जातिवाद जैसी चीज़ें क्यों हैं? अभी तो बस दो दोस्तों ने ही मुझसे दूरी बनाई  थी लेकिन देखते कक्षा के लगभग सभी छात्रों ने मुझसे दूरी बना ली।

यहां तक कि हमारे प्रोफेसर भी मेरा पूरा नाम फेसबुक पर देख कर पूछते थे, “तुम अपना सरनेम लिखते क्यों नहीं हो?” खैर, उस दौरान जातिवाद के संदर्भ में मुझे काफी अनुभव हुआ कि हमारे देश में आज भी कैसे-कैसे लोग रहते हैं।

यूनिवर्सिटी में भले ही मेरे साथ जातिगत भेदभाव हुए मगर आने वाले वक्त के लिए बहुत तगड़े अनुभव दे गए। इस दौरान मैं समाज का दायित्व और शिक्षा का महत्व समझ पाया। उन दोस्तों से ज़िन्दगी में जब भी सामना होता था तब मन में हीन भावना ज़रूर होती थी, मन ही मन उन्हें गरियाता भी था फिर धीरे-धीरे समय के साथ मैंने इग्नोर करना शुरू किया और शानदार जवाब के तौर पर मेरे साथ मेरी मुस्कुराहट होती थी।

मैं अपने दोस्त राजदीप का आज तक आभारी हूं, जिसने मेरा साथ दिया और मुझे समझा। यही वजह है कि मैं पूरे कॉन्फिडेंस से आगे का समय गुज़ार पाया।

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