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रूस या तुर्की, कौन उठा रहा है अर्मेनिया-अजरबैजान विवाद का फायदा?

अर्मेनिया-अजरबैजान में नागोरनो-काराबाख को लेकर जारी तनाव खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। इसके उलट यह मामला और भी गंभीर होता दिखाई दे रहा है। 27 सितंबर से जारी संघर्ष में अर्मेनिया के अब तक 100 से अधिक निवासी और फौज के जवान अपनी जान गवां चुके हैं। ,अजरबैजान ने अपनी तरफ हुए नुकसान पर कोई जानकारी नहीं दी है।

अजरबैजान की सेना के ऊपर दुनियाभर में प्रतिबंधित कलस्‍टर बमों का इस्‍तेमाल करने के भी आरोप लग रहे हैं। दशकों से चल रहे इस विवाद को लेकर हाल के समय अधिक तनावपूर्ण स्थिति उत्पन्न हो गई है। जारी लड़ाई को लकेर दोनों देश एक दूसरे पर जंग शुरू करने का आरोप लगा रहे हैंहै। यह अभी तक स्पष्ट नहीं है की सीज़फायर का उल्लंघन किस ओर से पहले किया गया था।

मामले में तुर्की और रूस की भूमिका

तुर्की ने शुरआत से ही अजरबैजान का समर्थन किया है, और अर्मेनिया के साथ परेशानी भरा रिश्ता रहा है। 1990 के दशक में, युद्ध के दौरान, तुर्की ने अर्मेनिया के साथ सभी राजनायिक सम्बन्ध खत्म कर अपनी सीमा को बंद कर दिया था। 28 सितंबर को हमलों के लिए, तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तईप एर्दोगन ने अर्मेनिया को दोषी ठहराते हुए अजरबैजान को समर्थन की पेशकश की।

दूसरी ओर इस नागोरनो-काराबाख विवाद ने राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की भी मुश्किलें बढ़ा दी हैं। रूस, अजरबैजान और अर्मेनिया दोनों के साथ अच्छे संबंध रखता है और दोनों को हथियार सप्लाई करता है। लेकिन अर्मेनिया ऊर्जा संपन्न, महत्वाकांक्षी अज़रबैजान की तुलना में रूस पर अधिक निर्भर है। रूस का आर्मेनिया में सैन्य अड्डा भी है। मास्को, सार्वजनिक रूप से ही सही, दोनों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा है।

एर्डोगन और पुतिन का आमना-सामना

स्पष्टशब्दों में कहें तो तुर्की इस्लामिक देशों पर अज़रबैजान का साथ देकर अपना वर्चस्व बढ़ाना चाहता है।वहीं दूसरी ओर रूस ईसाई बहुल अर्मेनिया का समर्थन कर राजनीतिक और व्यापारिक लाभ लेने में लगा हुआ है। यह कहना गलत न होगा की अगर स्थिति अधिक तनावपूर्ण और गंभीर होती है तो सीधे तौर पर एर्दोगान और पुतिन का आमना-सामना होना तय है।

नागोरनो-काराबाख विवाद की पूरी कहानी

प्रथम विश्वयुद्ध यानि 100 साल पूर्व ये पूरा इलाका एक ही देश का हिस्सा था। 1918 में पहला विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद यह क्षेत्र तीन देशों यानी आर्मेनिया, अज़रबैजान और जॉर्जिया में बंट गया।

1920 के दशक में जोसेफ स्टालिन ने अज़रबैजान और जॉर्जिया को भी सोवियत संघ यानी USSR में शामिल कर लिया और दोनों देशों की नई सरहद खींची गई। जो झगड़े का कारण बनी, दोनों देशों के बीच एक पहाड़ी इलाका नगोरनो काराबाख,जिस पर अपने स्वामित्व को लेकर दोनों विवाद शुरू हुआ।

नगोरनो करबाख की भौगोलिक स्थिति किसके पक्ष में फैसला करेगी

4,400 वर्ग किलोमीटर में फैला यह इलाका में आर्मेनियन मूल के ईसाई लोग रहते हैं, जिसमें कुछ तादाद में तुर्की मूल के मुस्लिम भी हैं। पूर्व में समझौते के समय जोसेफ स्टालिन ने अर्मेनियाई मूल के लोगों का इलाका नगोरनो काराबाख को मुस्लिम बहुल अज़रबैजान के साथ मिला दिया था।

जिस कारण समय-समय इस इलाके को लेकर सीमा पर समस्या कड़ी होती रहती है। अजरबैजान इस क्षेत्र को अपना मानता है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इसे इसी देश का हिस्सा माना जाता है। हालांकि 1994 की लड़ाई के बाद यह क्षेत्र अजरबैजान के नियंत्रण में नहीं है। इस क्षेत्र में दोनों पक्षों के सैनिकों की भारी मौजूदगी है। करीब 4400 किलोमीटर में फैला नागोर्नो-कारबाख का ज्यादातर हिस्सा पहाड़ी है।

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