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कोरोना और बाढ़ की विभिषिका के बीच कठिन परीक्षा से गुज़रेगा बिहार चुनाव

बीते दिनों महागठबंधन के नेता अपने-अपने बीच सीटों का फॉर्मूला तय कर चुके हैं, जिसमें “सन आंफ मल्लाह” मुकेश साहनी नाखुश होकर महागठबंधन से अपना रिश्ता तोड़ चुके हैं। इसके पहले उपेन्द्र कुशवाहा बसपा के साथ साझेदारी करके नया गठबंधन बना चुके हैं और माझी पहले ही जद(यू) की तरफ जा चुके हैं।

तेजस्वी कोरे कागज़ से नई राजनीति की शुरुआत करना चाहते हैं

महागठबंधन के घटक दल कांग्रेस और अन्य वामपंथी पार्टियों ने तेजस्वी यादव को अपना नेता मान लिया है। राजनीतिक पंडितों की मानें तो तेजस्वी यादव के मुख्यमंत्री बनने में सबसे बड़ी बाधा उनके पिता “लालू यादव” स्वयं हैं। अपने पिता के शासनकाल के दौरान की गई गलतियों पर माफी मांगकर तेजस्वी कोरे कागज़ से नई राजनीति की शुरुआत करना चाहते हैं। जबकि जद(यू) और भाजपा लालू राज की असफलताओं को चुनावी अफसाने में घसीटना चाहती हैं।

जब जद(यू) और भाजपा के शासनकाल की असफलताओं पर बात किया जाता है, तो वे लोग अगल-बगल झांकने लगते हैं। वे यह बता ही नहीं पाते कि अपने शासनकाल में उद्योग और रोज़गार के सवाल पर वे नाकाम क्यों साबित रहे हैं? दस साल के शासन में जिस सुशासन की गाड़ी को पटरी पर लाने में वो सफल रहे, वह पांच सालों में पटरी से नीचे कैसे उतर गई? इसका जवाब उनके पास नहीं है मगर चौथी बार मुख्यमंत्री बनने का दांव वो खेल रहे हैं।

उनकी इसी असफलता को तेजस्वी अपनी चुनावी रणनीति बनाते हुए “नई सोच, नया बिहार” का नारा दे रहे हैं। उनकी कोशिश यह है कि विरासत से मिले मुस्लिम और यादव के राजनीतिक समीकरण में बिहार के 24 फीसदी युवाओं के वोटों को जोड़ा जाए। तेजस्वी विरासत के जमापूंजी वोट बैंक में युवा वोटरों का जितना अधिक वोट जोड़ पाएं तो वह कामयाबी के करीब पहुंचने में और सफल हो सकते हैं। यह सब तो चुनावी परिणामों से ही पता चलेगा। साथ ही साथ मांझी, उपेन्द्र कुशवाहा और मुकेश साहनी का गठबंधन से जाना नुकसानदायक होगा या फायदेमंद, यह चुनावी परिणाम से ही पता चलेगा।

बिहार में बेरोज़गारी की दर अन्य राज्यों की तुलना में सबसे अधिक

बेरोज़गारी एक ऐसा मुद्दा है, जिसने युवाओं को सबसे अधिक प्रभावित किया है। तेजस्वी वादा भी कर रहे हैं कि वो पहली कलम से दस लाख नौकरियां सृजन करेंगे। सामाजिक न्याय के पुराने काम में अगर बेरोज़गारों का यह सवाल जुड़ जाएगा तो नए तरह के नतीजे दिख भी सकते हैं।

हालांकि मांझी, उपेन्द्र कुशवाहा और मुकेश साहनी की तरह जद(यू), भाजपा के साथ गठबंधन में रही लोजपा का भाजपा को सहयोग और जद(यू) के खिलाफ चुनाव लड़ने का फैसला तेजस्वी के लिए भी चुनौतिपूर्ण हो सकता है।

दरअसल, चिराग पासवान भी तेजस्वी यादव की तरह बिहार में कोरे कागज़ से अपनी राजनीतिक शुरुआत नए तरीके से करना चाहते हैं। उनका नारा “बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्सट” का है। चिराग पासवान राज्य में अपने तय वोट बैंक से जद(यू) से खफा और नरेन्द्र मोदी के चेहरे से प्रसन्न लोगों के लिए विकल्प बनकर अपना जनाधार बनाना चाहते हैं।

उनके पिता अपने तय वोट बैंक के अतिरिक्त्त अन्य कोई वोट बैंक जोड़ने में अब तक नाकाम साबित हुए हैं। इसलिए वह सहजता की राजनीति अधिक करते रहे हैं। भाजपा के साथ चुनाव लड़ने का चिराग का गणित भाजपा को उनके वोट बैंक का फायदा दिला सकता है, यह भी चुनाव परिणामों से ही पता चलेगा। अटकलों की राजनीति को चिराग का यह कदम आत्मघाती लग रहा है।

तीन दशक तक बिहार की राजनीति के केन्द्र में लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान रहे हैं। यह पहली दफा हुआ है कि नीतीश कुमार को लालू-पासवान से नहीं, बल्कि उनके बेटों से राजनीतिक बढ़त हासिल करनी है।

यह चुनाव अगर नीतिश कुमार के राजनीतिक भविष्य का फैसला है, तो चिराग और तेजस्वी के लिए अग्नी परीक्षा से कम नहीं है। तेजस्वी और चिराग दोनों के पास यह पहला मौका है जब वे अपनी छवि को नए तरीके से मतदाताओं के समक्ष पेश कर रहे हैं। जद(यू) के शासन से मोहभंग पाए हुए युवा मतदाताओं को दोनों युवा नेता कितना रिझा पाते हैं, यही बिहार में इन दोनों के भविष्य को तय करेगा।

जानकारों का कहना है कि बिहार की राजनीति में अभी पूर्णविराम नहीं लगा है। चुनाव परिणामों के बाद तमाम गठबंधन फिर से पुर्नपरिभाषित हो सकते हैं, इसकी संभावना भी पूरी है।

जद(यू), भाजपा गठबंधन एंव भाजपा को समर्थित लोजपा, राजद, कांग्रेस एंव वामपंथी दल, आरएलएसपी एंव बसपा, पप्पू यादव का धड़ा और ओबीसी की पार्टी साथ ही साथ नवनिर्मित पार्टी प्लुरल्स भी चुनाव परिणाम आने के बाद अपने विधायकों और गठबंधन को बचाकर रख सकेंगे, इसकी संभावना कम दिख रही है।

ज़ाहिर है कोरोना काल में प्रस्तावित विधानसभा चुनाव सभी धड़ों के लिए चुनावी परीक्षा है, जब राज्य की आधी जनता कोरोना और बाढ़ के कारण पैदा हुई विभिषिका से हैरान-परेशान हैं।

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