सभी नेता केवल विकास की बात करते हैं और विकास के लिए पूर्व में किए गए अपने काम गिनाते हैं। देश के पहले आम चुनाव से लेकर आज तक हर कोई विकास की ही बात कर रहा है।
पंचायत से लेकर देश के प्रधानमंत्री तक सभी विकास की ही बात करते हैं। फिर भी यह सोचने वाली बात है कि आज़ादी के सात दशक बाद भी देश पूरी तरह से विकास क्यों नहीं कर पाया।
असली मुद्दे क्या हैं?
यह बहुत ज़रूरी सवाल है कि असल में मुद्दे हैं क्या? मेरी नज़र में पांच सबसे अहम मुद्दे हैं जिन पर चुनाव होने चाहिए। पहला है शिक्षा। हमारे देश में आज तीन प्रकार की शिक्षा प्रणाली है।
एक है अंग्रेज़ी माध्यम के बड़े-बड़े प्राईवेट स्कूल जो आम जनता की पहुंच से बहुत दूर हैं फिर आते हैं हिन्दी माध्यम के प्राईवेट स्कूल जहां मध्यम वर्गीय परिवारों के बच्चे पढ़ते हैं। अंत में आते हैं सरकारी स्कूल, जिनके पास सबसे ज़्यादा संसाधन होने के बावजूद सबसे कम सुविधाएं होती हैं।
मोटे शब्दों में यह समझ लीजिए कि सरकारी स्कूलों में मास्टर हो जाना एक बहुत बड़ी बात है। आपको बहुत योग्य होना पड़ता है, तब जाकर आप सरकारी स्कूल में अध्यापक बन सकते हैं मगर सरकारी स्कूलों की स्थिति किसी से छुपी नहीं है।
हिन्दी माध्यम और अंग्रेज़ी माध्यम के प्राईवेट स्कूल सही मायनों में परिवार नियोजन को बढ़ावा दे रहे हैं। उनकी सालाना फीस ही इतनी ज़्यादा है कि आम आदमी के पसीने छूट जाए। ऐसे में कोई आम आदमी ज़्यादा बच्चों के लिए सोचेगा भी नहीं। इसलिए हमारे नेताओं को शिक्षा के नाम पर वोट मांगना चाहिए।
दूसरा मुद्दा होना चाहिए स्वास्थ्य व्यवस्था
आप किसी भी सरकारी अस्पताल में चले जाइए, आपको सच्चाई का पता चल जाएगा। हमारे यहां के सरकारी अस्पताल और मेडिकल कॉलेज केवल पोस्टमॉर्टम के ही काम आते हैं। बाकी समय तो अस्पताल बेड की कमी, दवाई की कमी, डॉक्टर की कमी से जूझते रहते हैं।
पिछले साल भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने एक नेशनल हेल्थ प्रोफाइल जारी किया था। इसमें कुछ ऐसे तथ्य सामने आए थे जो हमारे देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल खोलने के लिए पर्याप्त है।
नैश्नल हेल्थ प्रोफाइल के अनुसार भारत में आज 11088 व्यक्ति पर सिर्फ एक एलोपैथिक डॉक्टर है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 1000 व्यक्ति पर एक डॉक्टर होना चाहिए। प्रत्येक राज्य में यह औसत अलग-अलग है लेकिन सबसे बुरी हालत उत्तर प्रदेश की है।
वैसे सरकार ने कुछ कदम उठाए हैं जिससे आज एक गरीब आदमी भी प्राईवेट अस्पताल में अपना इलाज कराने का सोच सकता है मगर यहां सोचने वाली बात यह है कि अगर सरकार अपने अस्पतालों की स्थिति पर ध्यान देती तो शायद आज इतनी बुरी हालत नहीं होती। इसलिए मुझे लगता है कि स्वास्थ्य व्यवस्था चुनावी मुद्दा होना चाहिए।
तीसरा मुद्दा होना चाहिए पेयजल संकट
आज हमारे देश के ज़्यादातर राज्य पेयजल संकट से जूझ रहे हैं। कृषि क्षेत्र पेयजल संकट से संघर्ष कर रहा है। तालाब सुख रहे हैं, नदी नालों में तब्दील हो रहे हैं और हम इसे विकास का नाम दे रहे हैं।
तालाबों को भर कर उनमें आज हम बिल्डिंग बना रहे हैं। नदियों में शहरों और फैक्ट्रियों का गंदा पानी डाल कर उसको नाला बना रहे हैं। दुख की बात यह है कि ये सब विकास के नाम पर किया जा रहा है और ये सब सरकार की उपलब्धियों में गिना जाता है, जबकि पर्यावरण संरक्षण सरकार का कर्तव्य है।
कुएं की बात तो छोड़ दीजिए, अब तो हैंडपंप में भी पानी नहीं आता है क्योंकि आज हम इतने सक्षम हो गए हैं कि अपने घरों में समर्सिबल लगाकर सीधे भूजल तक पहुंच गए हैं। सरकार भी कुछ क्षेत्रों में डीप बोरिंग करवा के समर्सिबल लगाकर भूजल को लोगों तक पहुंचा रही है। सभी को लग रहा है कि पेयजल संकट से निजात मिल गया पर यह महज शुरुआत है क्योंकि हम भूजल को निकाल तो रहे हैं पर उसे रिचार्ज करने के बारे में नहीं सोच रहे हैं।
चौथा मुद्दा होना चाहिए प्रदूषण
बढ़ते औद्योगिकरण से जहां देश की अर्थव्यवस्था में बढ़ोतरी हुई है, वहीं प्रदूषण में भी इज़ाफा हुआ है। आज विश्व के सबसे ज़्यादा प्रदूषित शहर भारत में ही हैं। सड़कों के चौड़ीकरण के नाम पर जंगलों की बेतहाशा कटाई और उन सड़कों पर रफ्तार से दौड़ते वाहन, प्रदूषण को बढ़ा रहे हैं।
‘स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर 2017’ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में वायु प्रदूषण के कारण सबसे ज़्यादा लोगों की मौत होती है पर इस मुद्दे पर कोई बात ही नहीं करता है। हम यह सोचते हैं कि इससे हमें क्या फर्क पड़ता है, जिसको तकलीफ है वो समझे। हम यह नहीं समझते कि आज ना कल हम भी वायु प्रदूषण की चपेट में आ जाएंगे।
पांचवा मुद्दा होना चाहिए न्यूनतम वेतन
जिनके पास काम नहीं है उन्हें हम आराम से बेरोज़गार की श्रेणी में रख सकते हैं पर ऐसे बहुत लोग हैं जिनके पास काम है मगर उन्हें उनके काम लायक वेतन नहीं मिलता है। आज ऐसे कितने व्यक्ति मिल जाएंगे जिन्हें आठ घंटे काम करने के बाद महीने के आखिर में केवल 5000-10000 रुपए ही मिलते हैं।
कुछ लोगों को तो इससे भी कम वेतनमान मिलता है। सबसे बुरा हाल हमारे देश के चौकीदारों का है। इनको 12 घंटे ड्यूटी के बदले महीने के सिर्फ 10000 रुपए मिलते हैं। अब आप सोच कर देखिए कि स्थिति कितनी बुरी है।
अगर आपके पास कोई वोट मांगने आए तो एक बार उनसे सवाल ज़रूर कीजिएगा कि महोदय आपने इनमें से क्या-क्या किया है और इन मुद्दों को लेकर आपकी क्या योजना है। जो नेता पाकिस्तान और मंदिर, मस्जिद के नाम पर वोट मांगने आए, हमें उनकी बातों में नहीं फंसना चाहिए। हमें अपने बुनियादी मुद्दों पर अड़े रहना चाहिए।
वैसे आपकी मर्ज़ी है, जिसे वोट देना है दे पर वोट ज़रूर करे। अगर कोई उम्मीदवार पसंद ना आए तो नोटा को वोट करे पर वोट ज़रूर करे।