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कविता: हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी

हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी,

भगत का नाम लेने की।

 

जितनी तुम्हारी उम्र है,

उससे दोगुना वनवास

काटा था भगत ने।

 

देखा था वह समय का पहिया

और उसकी गति

 जो जकड़ रही थी

 देश के भविष्य को

परतंत्रता की बेड़ियों में।

 

क्या तुमने देखा है कोई ?

इस संसार में भगत जैसा,

आदमकद के रूप में

दूसरा शख्स,

जो आज़ादी को अपनी

दुल्हन मान बैठा हो।

 

हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी,

भगत के विचारों को

इस तरह तोड़ मरोड़ के पढ़ने की,

इस तरह गली-चौराहों पर लिखने की।

 

क्या तुममें है वा सामर्थ्य

अहिंसा के इस धर्म  के

 आवरण  को हटाने की ?

क्या तुममें, मुझ में है इतना पुरुषार्थ

कि हम भगत के पदचिन्हों

पर चल सकें? नहीं

क्योंकि हम सब कायर हैं

जो ओढ़ें बैठे हैं धर्म

जात पात ,भाषा के चोले को।

हम में से कोई

भगत नहीं है।

 

तो उठो और लगा दो

आग उस आज़ादी की किताब को

जिसमें लिखा हुआ है कि

भगत एक आतंकवादी था।

गलत साबित करो उस अहिंसा

के पुजारी को और कहो,

तुम गलत थे और गलत

ही साबित हुए अपने

अहिंसा के पथ पर।

हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी।

 

आसां नहीं है किसी का

यूं भगत हो जाना,

यूं इस तरह अपनी जान

वतन की आगामी पीढ़ियों

के लिए क़ुर्बान कर जाना।

 

भगत मरते नहीं हैं,

वे ज़िंदा रहते हैं

हमारी धमनियों की रक्त शिराओं

के इस लाल इंकलाब के

लहू में  जोश बन कर।

 

हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी,

मुझे यह बताने की

कि आज भगत का जन्मदिवस है

क्योंकि भगत मरते नहीं हैं।

 

वे अमर रहते हैं

वतन ए आवाम की आवाज़ बनकर,

खेतों की लहलाती फसलों में,

वतन की मिट्टी

में इंकलाब बन कर।

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