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कैसे सरकारी नीतियां उत्तराखंड के किसानों की मुश्किलें बढ़ा रहा है

Pic Credit: Sewa Uttarakhand

कोरोना महामारी ने जिस तरह से पूरी दुनिया को प्रभावित किया है, उसकी गूंज सदियों तक इतिहास में सुनाई देती रहेगी। इस महामारी ने मानव जीवन के सभी क्षेत्रों को प्रभावित किया है। विशेषकर दुनियाभर की अर्थव्यवस्था इस महामारी की शिकार हुई है।

कोरोना की मार ने पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह किया है प्रभावित

दुनिया के सात सबसे विकसित देशों की अर्थव्यवस्था तक इस महामारी से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी है। कोरोना की मार से भारत की अर्थव्यवस्था भी बहुत हद तक चरमराई हुई है। जहां जीडीपी नकारात्मक अंक तक चली गई है। इसका प्रभाव देश के सभी सेक्टरों में देखने को मिलता है।

सरकार द्वारा जारी जुलाई 2020 के आंकड़ों के अनुसार खाद्य कीमतों में उछाल के कारण खुदरा महंगाई दर बढ़कर 6.93 प्रतिशत पहुंच गयी है, जो रिजर्व बैंक द्वारा तय मानक 4 प्रतिशत से 2.93 प्रतिशत अधिक है। इसके पीछे कोरोना महामारी के कारण खाद्य उत्पादों की आपूर्ति में बाधाएं आना बताया जा रहा है।

आर्थिक विशेषज्ञों का अनुमान है कि खुदरा महंगाई की दर आगामी माहों में और भी ऊचाईयों को छू सकती है। अगर खाद्य महंगाई दर की बात करें, तो यह जून 2020 में 8.72 फीसदी थी, जो जुलाई 2020 में बढ़कर 9.62 प्रतिशत पहुंच गई है। यह कुछ आंकड़े हैं जो आगामी समय में देश के आम नागरिक के जीवन को प्रभावित करने वाले हैं।

आम-नागरिक, मज़दूरों और किसानों पर पड़ा है सबसे बुरा असर

कोरोना संकट के चलते अगर किसी का जीवन सबसे अधिक प्रभावित हुआ है, तो वह आम नागरिकों के साथ-साथ किसानों, मज़दूरों और छोटे उद्यमियों का है। जिससे देश के इन खास तबकों की जड़ें तक हिल गई हैं। जिसे दोबारा पटरी पर लाना भूसे की ढ़ेर में सूई ढूंढने के समान है। आने वाले दिनों में इस संकट के और अधिक गहराने की प्रबल संभावनाएं हैं।

देश के अन्य राज्यों की तरह पहाड़ी राज्य उत्तराखंड को भी इस संकट का सामना करना पड़ सकता है। वर्तमान में बरसात का मौसम है और पहाड़ी राज्य उत्तराखण्ड में इस वक्त कई प्रकार की फल और सब्ज़ियों का उत्पादन होता है। यहाँ के किसान इन्हीं फल-सब्ज़ियों के उत्पादन से होने वाली आय से सालभर अपनी रोज़ी-रोटी चलाते हैं।

उत्तराखण्ड में खेती करने वाली ज़मीन, तस्वीर साभार: YKA यूज़र

वैसे तो बीते कई सालों से इस पहाड़ी राज्य के किसानों की स्थिति सोचनीय बनी हुई है लेकिन इस वक्त स्थिति काफी भयावह है। मंडियों में किसानों को फल और सब्ज़ियों की उपज का उचित दाम नहीं मिल पा रहा है जो थोड़ा बहुत मिल रहा है, उससे किराये-भाड़े और बारदाने का खर्च तक निकालना मुश्किल हो गया है।

ऐसे में किसान निराश और हताश हैं। वह पहले ही कर्ज़ में दबा है और अब ऐसी परिस्थितियों में वह अपना कर्ज़ कैसे चुकाए और कैसे अपने परिवार का पालन करें? यह सबसे बड़ी चुनौती है।

किसानों के साथ हो रही है नाइंसाफी

फल उत्पादन के लिए प्रसिद्ध नैनीताल जनपद के रामगढ़, धारी, मुक्तेश्वर, सतबुंगा, धानाचूली, नथुवाखान आदि क्षेत्रों में सेब और नाश्पाती उत्पादन का एक बड़ा रकबा है।

इस क्षेत्र में लगभग 1244.67 हेक्टेयर भूमि में सेब के बागान हैं। जिससे लगभग 8550 मीट्रिक टन सेबों का उत्पादन होता है लेकिन जब इस उत्पादन को बाज़ार उपलब्ध कराने की बात आती है, तो खरीददार ना मिलना, उचित दाम ना मिलना, मार्केट के अनुसार गुणवत्ता का ना होना जैसे तर्क देकर किसान के साथ नाइंसाफी की जाती है।

हालांकि सरकारी अधिकारी और स्थानीय जन प्रतिनिधि इन सबके पीछे सेब की पुरानी वैराईटी होने, बागवानी के तरीकों का पारंपरिक होना आदि को गुणवत्ता कमी का मुख्य कारण मानते हैं।

प्रतीकात्मक तस्वीर

हिमाचल प्रदेश जैसे अग्रणि फल उत्पादक राज्य की तर्ज़ पर उद्यान नीतियों को अपनाने की बात कही जाती है लेकिन जब उस क्षेत्र में एक ठोस नीति बनाने और ग्राउंड में योजनाओं के क्रियांवयन की बात आती है, तो बिना किसी ठोस वैज्ञानिक आधार के योजनाएं प्रारंभ कर दी जाती हैं।

योजना का लाभ लेने वाले मुक्तेश्वर क्षेत्र के किसानों ने नाम ना छापने की शर्त पर बताया कि प्रदेश में सेब की सघन बागवानी को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार द्वारा योजना प्रारंभ की गईं। जिसका जिम्मा प्रदेश के उद्यान विभाग को दिया गया। जिसने आनन-फानन में कुछ लाभार्थियों का चयन किया और योजना का क्रियांवयन प्रारंभ कर दिया।

जब उद्यान स्थापना के लिए गुणवत्ता पूर्ण प्लाटिंग मैटेरियल की व्यवस्था की बात आई, तो विभाग ने अपने हाथ खड़े कर दिये। यहां किसानों को इंनपुट मैटेरियल और प्लाटिंग मैटेरियल की व्यवस्था स्वयं करने को कह दिया गया। इन सबके कारण किसानों को योजना के क्रियान्वयन में काफी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।

क्या कहना है किसानों का?

इस संबंध में मुक्तेश्वर क्षेत्र में बागवानी विकास पर विगत 8 वर्षों से कार्य कर रहे विशेषज्ञ डॉ. नारायण सिंह का कहना है कि ‘‘सरकार द्वारा संचालित इस योजना का एक बड़ा ड्रा बैक यह है कि इस योजना के तहत कम-से-कम एक एकड़ क्षेत्रफल में किसान को बाग स्थापित करना है। जिससे एक एकड़ से कम भूमि वाले किसान इस योजना के लाभ से वंचित हो जाते हैं।”

वे आगे कहते हैं,

यदि राज्य सरकार वास्तव में किसानों को लाभ प्रदान करने की इच्छा रखती है, तो उसे एक छोटी जोत के किसान को भी ध्यान में रखकर योजनाओं का निर्माण करना होगा। यह योजना को विस्तार देने के साथ ही क्षेत्र को पुनः बागवानी बहुल एवं चहुमुखी विकास में मदद प्रदान कर सकता है।

बहरहाल कृषि सेक्टर को मंदी से बचाना है, तो एक ऐसी ठोस योजनाओं को लागू करने की ज़रूरत है, जिसका सीधा फायदा किसानों को हो। केंद्र की ऐसी कई योजनाएं हैं जिसका सीधा लाभ किसानों को मिल सकता है और उन्हें उनकी फसल का बेहतर मुनाफा प्राप्त हो सकता है लेकिन केवल योजनाएं बनाने से नहीं, बल्कि उन्हें धरातल पर वास्तविक रूप से लागू करने से ही परिवर्तन संभव है।

इस वक्त किसान ही एक ऐसा माध्यम है जो देश को आर्थिक संकट से उबारने में सबसे बड़ी भूमिका निभा सकता है। ऐसे में, उन्हें सरकारी नीतियों में उलझाने से कहीं अधिक योजनाओं का सीधा लाभ पहुंचाने में है। जिसकी तरफ केंद्र से लेकर राज्य और पंचायत स्तर तक के लोगों  को गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। इस वक्त ज़रूरत है एक ऐसी योजना की जिसका सीधा लाभ छोटे स्तर के किसानों को भी मिल सके।


पंकज सिंह बिष्ट, (चरखा फीचर), नैनीताल, उत्तराखंड

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