दिल्ली के मुख्यमत्री अरविंद केजरीवाल एवं दिल्ली के कैबिनेट मंत्री गोपाल राय ने दक्षिण पश्चिम दिल्ली के खरखरी नहर गाँव में स्थित दिल्ली सरकार की राजकीय नर्सरी एवं बीज फार्म का दौरा किया।
दौरे के पीछे मुख्य वजह दिल्ली के किसानों को पराली ना जलाने एवं पराली से खाद बनाने वाले डी कंपोज़र केंद्र का उद्घाटन करना था।
अपने के दौरे के दौरान अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के किसानों से पराली ना जलाने एवं सरकार द्वारा मुफ्त में मुहैया कराने वाले डी कंपोज़र का इस्तेमाल करने की अपील की।
क्या कहा केजरीवाल ने?
अरविंद केजरीवाल ने बताया कि डी कंपोज़र के इस्तेमाल से लगभग 20 से 30 दिन में धान की पराली को गलाकर खाद बनाया जा सकता है। अच्छी बात है लेकिन भाषण के दौरान किसानों ने सवाल उठाया कि धान की कटाई के बाद उनके पास इतना समय नहीं होता कि वे 20 दिन तक खाद बनने का इंतज़ार करें। इस पर मुख्यमत्री ने उन्हें इस पायलेट प्रोजेक्ट के शुरुआती नतीजे देखने का आग्रह कर दिया।
मालूम हो कि हर बार अक्टूबर के शरू से लेकर जनवरी के अंत तक दिल्ली सरकार एवं केंद्र सरकार द्वारा प्रदूषण के नाम पर ढोल बजाया जाता है। जिसमें राज्य सरकार केंद्र को दोषी बताती है एवं केद्र राज्य पर आरोप लगाता नज़र आता है। जनवरी के बीत जाने के बाद फिर दोनों सरकार गहरी नींद में चली जाती हैं।
एक तरफ केंद्र सरकार द्वारा सेंट्रल विस्टा, द्वारका में भारत वंदना पार्क के नाम पर हज़ारों पेड़ काटे जा रहे हैं। तो वहीं दूसरी ओर दिल्ली सरकार का फॉरेस्ट विभाग पिछले 20 सालों से “पेड़ गणना” के रिकॉर्ड से अछुता है। पेड़ों की आबादी कम होती जा रही है मगर सरकार के पास कोई आंकड़ा नहीं है।
CYCLE इंडिया फाउंडेशन के संस्थापक पारस त्यागी 8 जून 2018 का फॉरेस्ट विभाग का एक ऑर्डर दिखाते हुए कहते हैं, “दिल्ली की ज़मीन जिस भी सरकारी विभाग के अधिकार क्षेत्र में आती है उनको अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाली ज़मीन के पेड़-पौधों की गणना का रिकॉर्ड रखना है परन्तु ज़्यादातर विभाग इससे पल्ला झाड़ते नज़र आ रहे हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार के एक आर्टिकल के अनुसार दिल्ली में पिछले 20 सालों से पेड़ों की गणना नहीं करवाई गई है।”
दिल्ली सरकार प्रदूषण के लिए पड़ोसी राज्यों को दोषी बताती है
दिल्ली सरकार प्रदूषण के नाम पर पिछले 5 सालों से उत्तरप्रदेश और हरियाणा आदि राज्यों पर दोष डालती आ रही है। यह बात समझ से बाहर है कि इस बार दिल्ली सरकार को दिल्ली के किसानों की पराली की याद क्यों आई? सरकार पिछले कुछ सालों में पराली को नष्ट करने के नाम पर विभिन्न मशीनों पर सब्सिडी उपलब्ध करा रही है। जिसे पाने के लिए किसान को अपनी ज़मीन के कागज़ात जमा कराने या दिखाने आवश्यक हैं।
ध्यान देने लायक बात यह है कि दिल्ली में ज़मीन का म्युटेशन पिछले 2 साल से बंद है, जो उस प्रक्रिया में सबसे बड़ी समस्या है। बता दें कि हाल में ही दिल्ली में पहले चरण में लगभग 95 गाँवों का शहरीकरण एवं दूसरे चरण में 79 गाँवों का शहरीकरण किया गया है। शहरीकरण होने के कारण ज़मीन का डेवलपमेंट कार्य दिल्ली विकास प्राधिकरण को कराना है। दिल्ली विकास प्राधिकरण के अनुसार, लैंड रिकॉर्ड दिल्ली विकास प्राधिकरण के पास नहीं हैं।
म्युटेशन बंद है तो कहां से लाएं ज़मीन के पूरे कागज़?
वहीं, राजस्व विभाग डीएमसी एक्ट 507 का हवाला देकर यह कह रहा है कि शहरीकृत घोषित किए जाने के कारण म्युटेशन बंद कर दी गई है। दिल्ली के 65 वर्षीय श्री कृषण बताते हैं, “हमारी म्युटेशन की फाइल लगभग एक साल से अटकी है। अधिकारी बताते हैं कि म्युटेशन बंद करने के ऑर्डर हैं। कब क्या होना है, उसके बारे में किसी को कुछ नहीं पता।”
दिल्ली प्रदेश के अध्यक्ष बिरेंदर डागर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि अगर पराली नष्ट करने के लिए उन्हें मशीन चाहिए तो किसान उसे किस प्रकार खरीद सकते हैं? सरकार कागज़ात ही पूरे नहीं करने दे रही है। उन्होंने बताया कि सुपर सीडर मशीन की कीमत 2 लाख 10 हज़ार है, जिस पर सरकार 50 फीसद सब्सिडी दे रही है। वहीं, देश के दूसरे राज्यों में इन्हीं मशीनों पर 80 फीसद तक सब्सिडी दी जाती है।
बीरेंदर डागर ने बताया कि ज़मीन के पूरे कागज़ात म्युटेशन के कारण किसानों के हाथ में नहीं हैं। बिना कागज़ात सब्सिडी नहीं मिल रही है एवं बिना सब्सिडी के 2 लाख की मशीन दिल्ली के किसान खरीदने में सक्षम नहीं हैं। हसनपुर गाँव के रविंदर कहते हैं कि पहले ही उनको फसल का उचित दाम नहीं मिल रहे हैं।
दिल्ली सरकार ने 100 करोड़ रुपये किसान मित्र योजना को आवंटित किए थे। जिससे दिल्ली के किसानों को स्वामीनाथन रिपोर्ट के अनुसार गेहूं एवं धान की खरीद लगभग 2600 रुपये प्रति क्विन्टल खरीदा जा सके मगर दिल्ली में गेहूं 1750 रुपये एवं धान 1900 रुपये प्रति क्विंटल बेचा जा रहा है। उन्होंने बताया कि किसान तो अपनी ही गुज़र मुश्किल से चला पा रहा है, इतनी महंगी मशीने तो अमीरों के चोचले हैं।
दिल्ली सरकार एवं केंद्र सरकार प्रदूषण को कम करने के लिए अपने-अपने दावे तो कर रही हैं मगर धरातल पर पराली जलाने के सम्बन्ध से जुड़ी समस्याओं का हल किसी के पास नहीं है। एक तरफ दिल्ली में सरकारी परियोजनाओं के नाम पर केंद्र सरकार पेड़ों की गर्दन काट रही है, तो दूसरी ओर दिन-प्रतिदिन कृषि भूमि पर बसने वाली अवैध कॉलोनियां रोकने में दिल्ली सरकार निष्क्रिय नज़र आ रही है।
दिल्ली में सुनियोजित विकास के लिए लागू लैंड पूलिंग पॉलिसी धरातल पर 10 प्रतिशत भी सफलता नहीं पा सकी है। अब इनसे यह सवाल काफी अहम हो जाता है कि सरकार हर बार प्रदूषण की घंटी 2-3 महीने ही क्यों बजाती है? और अगर सरकार को इतनी ही फिक्र है, तो सरकार पेड़ों की गिनती कराने में क्यों झिझक रही है?