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“इस्लाम में पितृसत्ता ने धर्म की आड़ में महिलाओं का शोषण किया”

Muslim

लाखों लेखों के बीच शायद यह एक और लेख बन कर रह जाए लेकिन अगर लिखना भी छोड़ दिया तो खुद ही छूट जाऊंगी, इसलिए लिखूंगी। भले ही पढ़ने वाले गालियां दें।

21वीं सदी के जिस पायदान पर हम खड़े हैं, वहां से देखा जाए तो हम काफी कुछ पीछे छोड़, आगे निकल चुके हैं। हम उस दौर से बहुत दूर हैं जहां Simone de Beauvoir और Hélène Cixous जैसे लोगों ने नारी शक्ति की बात की थी। नारीवाद आज एक ज़रूरत से ज़्यादा फैशन सिम्बल बन गया है।

नारीवाद पर बातें होने के बावजूद क्या हम आज़ाद हैं?

पश्चिम के बाद पूरब में, उत्तर में, दक्षिण में हर जगह नारीवाद, नारी सशक्तिकरण के मुद्दे से बढ़कर एक नया मुद्दा बन गया है। बात श्याम वर्ण की औरतों के बराबरी तक भी पहुंच गई है। भारत-वर्ष भी इससे कहीं अछूता नहीं रहा। नंदिता दास जैसी बड़ी हस्तियांं ‘डार्क इज़ बीउटीफुल’ अर्थात ‘सांवल ही सुंदर है’ जैसे कैम्पेन लेकर आई।

इनके अलावा और भी ना जाने कितने तरह के  कैम्पेन चलाये जा रहें हैं।  एड फिल्मो से लेकर किताबों और कोर्स बुक्स तथा हर जात-धर्म की औरतों ने जिस हद तक और जिस तरह से हो सके इसे अपनाया है। पर क्या हम आज भी हर उस चीज़ से आज़ाद हैं जो कभी धर्म तो कभी संस्कृति बन कर औरतों के शासन का ज़रिया बना।

फोटो क्रेडिट – Getty images

ट्रिपल तलाक और अन्य इस्लामिक देश

यूं तो पूरी दुनिया और भारत में भी हर समाज की औरतों पर दमन के कई सारे बहाने हैं, पर मैं यहां बात मुस्लिम समाज की करना चाहूंगी। अभी-अभी हमारे देश ने एक ऐतिहासिक फेरबदल देखा जो काफी दिनो की मशक्कत के बाद हासिल हुआ। जी हां, यहां बात अति चर्चित ‘ट्रिपल तलाक’ की हो रही है, जिसे 22 अगस्त 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया था।

बात बहुत क्रांतिकारी या अधार्मिक नहीं थी क्योंकि कई सारे इस्लामिक देशों जिनमें अरब, पाकिस्तान इत्यादि भी हैं उन्होने काफी पहले इसे असंवैधानिक करार दे दिया था। परंतु इसके बावाजूद जो ‘ड्रामा’ इसे लेकर था वो देखते बना। बहरहाल, जीत उन औरतों की हुई जिन्होंने वर्षों पहले इस मुहिम को शुरू किया था।

पर क्या वाकई इससे मुस्लिम समाज की महिलाओं का दोहन रुक जायेगा? बात गौर करने वाली है।

क्या कहता है इस्लाम?

मैं एक बड़ी होती हुई, इस्लाम को समझती हुई और एक मुसलमान होने के नाते, अपने और अपने जैसे कुछ लोगों के अनुभव पेश करना चाहूंगी। मेरा मकसद किसी को ठेस पहुंचाना या खुद को बढ़ा के दिखाना बिल्कुल भी नहीं है। बल्कि, हम जैसे नौजवानों के तजुर्बे और उनपर आधारित कुछ सवाल हैं।

इस्लाम को जैसा कि मैंने जाना और पढ़ा है, एक ऐसा धर्म है जो हर किसी को बराबर मानता है, चाहे वह राजा हो या रंक। बल्कि देश- विदेश में काफी लोगों ने इस्लाम धर्म सिर्फ इसलिए कुबूल किया क्योंकि इसमें किसी तरह की ‘Hierarchy’ (अर्थात वर्गीकरण) नहीं है । मोहम्मद (स.अ.व) ने फरमाया है,

लोगों! तुम्हारे खुदा एक हैं और पिता भी एक (आदम)। ना कोई अरब किसी गैर-अरब से महान है और ना कोई गैर-अरब किसी अरब से, ना कोई श्वेत, श्याम से बड़ा है, ना कोई श्याम श्वेत से, सिवाय तक्वा (धर्म-निष्ठता) के।

जहां तक बात नस्लवाद की आती है तो बिलाल नाम के एक गुलाम की कहानी है जो श्याम वर्ण का था। उसे मोहम्मद ने आज़ाद करवाया। जैसा कि इस्लाम मे कहा जाता है कि किसी का तक्वा (धर्म-निष्ठता) ही किसी का असल मापदंड है और कुछ भी नहीं। उस वक्त अरब मे भी नस्लवाद था लेकिन मोहम्मद ने हर चीज़ के खिलाफ जाकर बिलाल को पहला आज़ान देने के लिये मुअज़्ज़िन नियुक्त किया।

प्रतीकात्मक फोटो, फोटो क्रेडिट – Pixabay

इस्लाम कहता है कि अगर दूसरा कोई मापदंड है तो वह है अच्छाई का, नेक आमाल का। जो कि इल्म से हासिल हो सकती है। इल्म अर्थात पढ़ाई। पढ़ाई इस्लाम मे कितनी महत्वपूर्ण है इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब पहली बार मोहम्म्द (स) से फरिश्ते मिलने आए तो उनके द्वारा बोले जाने वाल पहला शब्द था “इक्रा” अर्थात “पढ”। वे पहले पैगम्बर थे जिन्होंने अरब की लड़कियों के पैदा होते ही मार डालने पर रोक लगवाई थी । और खुद मोहम्मद (स) का एक कथ्य है :

लोगों मे सबसे अच्छा वह है जो अपनी बीवी से साथ अच्छा सुलूक करे।

इसके अलावा ऐसे कई हदीस हैं जिनमें इस्लाम में हर किसी की बराबरी की बात बताई गई है।

एक मुस्लिम लड़की होने के नाते मेरा पहला अनुभव

इस्लाम में कही गई इन बातों को क्या वाकई उसे मानने वाले उसी तरह से अपनाते हैं जैसा कि इस्लाम का बखान है या वह एक स्वयं रचित हथियार मात्र है जिसे हुकूमत करने वाले अपने सहुलियत से बनाते और संवारते रहेंगे।

इस बात का सबसे ज़्यादा असर हमें उस वक़्त दिखता है जब बात शादी-ब्याह की आती है। यहां कुछ ऐसे किस्से पेश करूंगी जो यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या हम वाकई 21वीं सदी मे जी रहे हैं?

पहला किस्सा एक ऐसी फैमिली का है जिनका लड़का कॉन्वेंट से पढ़ा लिखा “वेल सेटल्ड” इंजीनियर था। यह रिश्ता खुद मेरे लिए आया था और उन्हें ये रिश्ता इसलिए पसंद था क्योंकि उन्हें एक पढ़ी-लिखी लड़की चाहिए थी। मैं सलवार कमीज़ और सर पर दुपट्टा लेकर बहुत खुशी से यह सोच कर गई कि ये काफी प्रगतिवादी लोग हैं।

मुझे देखते ही लड़के के पिता, जो की एक ‘सच्चा इस्लामिक हाजी’ था, उनके चेहरे पर शिकन आ गई। कारण था मेरा रंग। उन्होंने मुझे पहले बल्ब में फिर ट्यूब्लाईट की रौशनी में बिठा कर देखा। इस फीमेल ऑब्जेक्टिफिकेशन  अर्थात ‘नारी को वस्तु के रूप में देखना’ के बारे में मैं पिछले सात सालों से पढ़तीआई थी और आज खुद उसे झेल रही थी।

इसके बाद,

लड़के की माँ की बारी थी, जिनको बेहद दुख था की मैं सलवार कमीज़ और दुपट्टे में गई थी ना की बुर्के में। दरअसल, उनके यहाँ ‘पर्दा इतना ज़रुरी है कि लडकियां कपडे़ उठाने बालकनी में भी नहीं जाती।

माँ के बाद,

बारी थी बहन के टीका-टिपण्णी की जिसने मुझपर काफी मशक्कत की और बारीकियों में जाते हुए मुझे बताया कि मेरे दाएं गाल में पिम्पल एवं गड्ढे हैं।

उनके आंकलन के बाद मैंने अपना एक नया रूप देखा जिसमें ना तो मेरी पीएचडी और ना ही मेरा करियर किसी काम का था। मैं एक बेहद बेपर्दा एवं कुरूप लड़की के अलावा कुछ भी नहीं थी।

इन सब पर मैं चुप थी क्योंकि मूझे मेरी माँ से पहले ही हिदायत मिल चुकी थी कि मैं कुछ न बोलूं क्योंकि वह “तहज़ीब” के खिलाफ था। उन तेहज़ीबदारों का सुलूक मुझे आजीवन याद रहेगा।

प्रतीकात्मक फोटो, फोटो क्रेडिट – Pixabay

मेरा दूसरा अनुभव- “Equality और Justice”

दूसरा प्रसंग है एक लड्के का जो कि बेहद पढा-लिखा सरकारी नौकरी पेशा था। ये जनाब मैट्रिमोनिअल वेबसाइट पर थे। इन्होंने उस वेबसाइट के हर कॉलम को काफी संजीदगी से भरा था। जिनमें खुद के बारे मे लिखा था कि कैसे वह “Equality और Justice” के  पक्षधर थे। फिर इनकी अगली लाइन थी कि उन्हें किसी चीज़ से कोई प्रॉब्लम नहीं है सिवाय इसके कि लड़की की ज़ात ऊंची होनी चाहिए।

इस्लाम में ज़ात की कोई बात नहीं है, किन्तु अगर हम भारत के कास्ट सिस्टम की बात करें तो भी कास्ट की शुरुआत व्यवसाय से जुड़ी थी। मतलब अगर कोई पढ़ा लिखा ज्ञानी हो तो वह ब्राह्मण यानी उच्च जाति का होगा। यह बात अलग है कि भारत में कोई कितना भी पढ़ ले चाहे वह किसी भी धर्म का हो, उसकी जाति उसके मरने पर भी खत्म नहीं होती। वह उसके साथ रहती है, एक मैले, ज़िद्दी धब्बे की तरह जिसे न पढ़ाई ना रुतबा खत्म कर सकता है।

हां, अब वह वोट बैंक तथा Tokenism के काम ज़रूर आता है। सो कहने को तो हम स्कूल, कॉलेज तथा सोशल मीडिया तक बराबरी का ताल ठोकते हैं और उस पर बड़ी टिप्पणियां भी करते हैं, पर शादियों से पहले हम ज़ात पूछ ही लेते हैं। अतएव, लड़की का अति पढ़ा लिखा होना, जो कि उस लड़के से भी कहीं ज़्यादा था, उसकी ज़ात को धुला ना सका। यहां लोगों को सिर्फ इस्लाम नहीं बल्कि बिलाल के बारे में भी सोचने की ज़रूरत है।

मेरा तीसरा अनुभव- Moral Judgement

अगला वृत्तांत है एक ऐसे जोड़े का जिसमें लड़का एवं लड़की एक समान थे। चाहे बात शिक्षा-दीक्षा की हो या ज़ात या रंग की। बस एक फर्क था और वह था जेन्डर अथवा लिंग का। आखिर लड़की तो लड़की थी, सो लड़के के पिता ने अपनी शर्त हक से रखी और कहा,

लड़की शादी के बाद काम नहीं करेगी, क्यूंकि बाहर काम करने वाली लड़कियां बदचलन होती हैं।

यह 21वीं सदी के पढ़े लिखे लोग थे जिन्होंने बहुत बेबाक होकर कामकाजी महिलाओंं पर अपना ‘मोरल जजमेंट’ अर्थात नैतिक फैसला सुना दिया था। इस तरह इन्होंने अपने बारे में भी बहुत कुछ साफ कर दिया था कि उन्होंने धर्म, संस्कृति और समाज का सहारा लेकर औरतों का शोषण एवं चरित्र हनन करना ना छोड़ा है और ना छोड़ेंगे।

ये वही मर्द हैं जो घरों से बाहर शायद प्रेम प्रसंग या फ्लर्ट करने में कोई झिझक ना करते हों क्योंकि वे मर्द हैं, जो उन्हें उनकी मानसिकता के अनुसार शायद ऐसा करने का प्राकृतिक दायित्व देता हो।

मेरा चौथा अनुभव- Radical Thinking

दिल्ली 2016 अगला वाकया है। यह प्रसंग एक प्रोफेसर साहब का है जिनकी रेडिकल थिंकिंग के लोग कायल थे। इसी के मद्देनज़र उन्होंने एक हमसफर भी चुना जो खूबसूरत थीं और शायद उम्र में उनके बराबर रही होंगी।

बात जब शादी तक पहुंची तो जनाब के घरवालों को अचानक याद आया कि लड़की उन्हें कमसिन और कम उम्र चाहिए थी। फिर जनाब को भी ख्याल आया कि कमसिन कम उम्र बीवी का ख्याल अच्छा था।

बाद में उन्हें इस्लाम की पाबंदियों की भी याद आई की बीवी परदे में रहे तो भली और नौकरी ना करें तो शर्त आगे बढ़ाएं और प्यार को शादी में तब्दील करें।

एक तरफ जहां ऐसे लोग हर चीज़ को इस्लाम और समाज का लहज़ा देकर खुद को सही साबित करते हैं, वहीं वे इस्लाम के सबसे बड़े पैगम्बर मुहम्मद स० और ख़दीजा र० की शादी भूल जाते हैं, जहां  मुहम्मद स० 25 के थे जबकि ख़दीजा र० 40 की।

मेरा पांचवां अनुभव – दूसरी पत्नी

अगला प्रसंग सन 2014 का है। यहां मैं एक ऐसी लड़की की बात बता रही हूं जो कि गाँव की रहने वाली थी। जिस लड़के से इसकी शादी हो रही थी वह लड़का भी गाँव का ही था। शादी अरमानों से हुई और डोली एक राज्य से दूसरे राज्य यानी झारखण्ड से यूपी पहुंचती है।

लड़की पहले से ही लड़के के इच्छानुसार घरेलू है। कुछ दिनों तक सब कुछ ठीक रहता है फिर बच्चा होने पर उसके खर्च लायक पैसे नहीं होते। लड़का लड़की को मायके छोड़ता है और फिर किसी दूसरी की तलाश में रफूचक्कर हो जाता है। उसे पता है इस्लाम में चार शादियां हो सकती हैं। 

इस्लाम की इस दलील को पेश करने वाले लोग इस चीज़ को भूल जाते हैं कि अरब में जाहिलियत के दौर में होने वाली अनगिनत शादियों को रोकने के लिए चार शादियों का नियम बनाया गया था, और वह भी इस शर्त से कि हर औरत को बराबर हक मिले चाहे वो पैसों का हो या भावनाओं का, ताकि औरतों पर शोषण कम हो।

एक वाकये में आया है कि मोहम्मद स० अपनी बेटी फातिमा र० के पति को दूसरी शादी करने से रोकते हैं।  ये सिर्फ कुछ घटनाएं नहीं हैं, बल्कि ऐसी हज़ारों लाखों घटनाएं होती हैं जिन्हें बिलकुल ही ‘नॉर्मलाइज़ड’ अर्थात साधारण या सामान्य समझ कर भूल जाया जाता है परंतु समाज और खासकर मुस्लिम समुदाय के लोगों, विशेषकर पुरुषों को अपनी पितृसत्तात्मक सोच, जिसे वो धर्म और संस्कृति के आंचल तले छिपा लेते हैं, उनसे बाहर निकलने की ज़रूरत है।

वरना शाह बानो से शायरा बानो तक का सफर हर औरत को प्रेरणा देने के लिए काफी है कि अगर ज़ुल्म समय पर ना रुके और हद से बढ़ जाए तो बगावत उनका हक है, क्योंकि इस्लाम में जुर्म सहना भी मना है।

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