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“एक दलित पत्रकार के लिए आवाज़ ना उठाना मीडिया के सवर्ण चरित्र को दिखाता है”

सो कॉल्ड लिबरल-प्रोग्रेसिव सवर्ण पत्रकारों,

प्रशांत कन्नौजिया को जेल गए हुए 50 दिन हो गए हैं। एक ट्वीट की वजह से प्रशांत जेल में हैं और आप सभी खामोश हैं। आपकी खामोशी की वजह मैं समझ रही हूं। प्रशांत की जगह आज कन्हैया कुमार होते तो आप सभी लोग लंबे-लंबे लेख लिखते, धरना-प्रदर्शन करते और सरकार को हर तरह से झुकाने की कोशिश करते लेकिन आप सभी का दोहरा चरित्र तब उजागर होता है, जब एक दलित-मुस्लिम जेल जाता है। 

ऐसे कई सवर्ण हैं जो सोशल मीडिया पर दिन रात दंगे भड़काने, मुस्लिम-दलितों के खिलाफ ज़हर उगलने का काम कर रहे हैं लेकिन आप बस उनके खिलाफ पोस्ट लिखकर पल्ला झाड़ लेते हैं।

आपकी पढ़ाई-लिखाई तब खोखली साबित होती है, जब प्रशांत की गिरफ्तारी के बाद आप गाड़ी पलटने और उसके खिलाफ तमाम तरह के व्यक्तिगत कमेंट करते हैं। मैं जानती हूं कि आपका नैरेटिव क्या है? आप सांप्रदायिकता को सामने रख वंचित-शोषितों को गुलाम बनाए रखना चाहते हैं।

आपके लिए सांप्रदायिकता मुद्दा है लेकिन हज़ारों साल से जाति की प्रताड़ना झेल रहे बहुजनों के लिए कोई हमदर्दी नहीं है। आप चाहते हैं कि सांप्रदायिकता की राजनीति देश में ऐसे ही चलती रहे ताकि दलित-पिछड़ों और महिलाओं को आप लोग गुलाम बनाए रख सकें।

आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि सांप्रदायिकता मेरे लिए भी बहुत बड़ा मुद्दा है लेकिन हज़ारों सालों से हो रहे अत्याचार उससे बड़ा मुद्दा है, क्योंकि जाति की यह बीमारी भारतीय मुस्लिम समाज में भी घर कर चुकी है। 

सो कॉल्ड लिबरल-प्रोग्रेसिव सवर्ण पत्रकारों, ना तो आपने हमें समाज में सम्मान दिलाने के लिए कोई कार्य किया और ना ही इतिहास या साहित्य में हमें उचित स्थान दिया। सच कहूं तो आपको इस जातिवादी व्यवस्था से प्रेम है, तभी तो आप प्रशांत के लिए नहीं बोलते लेकिन कन्हैया को एक खरोंच भी आ जाए तो आसमान सिर पर उठा लेते हैं। 

हर उभरता हुआ बहुजन व्यक्ति आपकी नज़रों में चुभने लगता है, क्योंकि वह सदियों से चले आ रहे व्यवस्था को चुनौती देता है। आप हज़ारों साल से उन पर अत्याचार कर रहे हैं और सोचते हैं कि वह आपसे प्रेम से बात करेगा।

अगर आप समाजशास्त्र और मनोविज्ञान को थोड़ा भी समझते हैं, तो आपको समझना होगा कि प्रशांत या हमारी भाषा इतनी तीखी क्यों है? क्यों हमें इन सब पर इतना गुस्सा आता है? क्यों हमें अब आपसे कोई उम्मीद नहीं है? आप बस एक बार पीछे मुड़कर सदियों का इतिहास देख लीजिए, आपको मेरे हर सवाल का जवाब मिल जाएगा।

प्रशांत और मेरे जैसे लोग जो झेल रहे हैं, उसके पीछे सबसे बड़ा कारण हमारी जाति है। मुझे सामने देखकर कई लोग मुंह फेर लेते हैं, मेरी जाति पर गालियां बनाते हैं, सच बोलने पर मुझे धमकाते हैं। क्योंकि आप यह बात स्वीकार ही नहीं कर पा रहे हैं कि एक दलित भी अब हमारे साथ बैठकर काम करेगा, हमारी बराबरी करेगा या हमसे ऊपर काम करेगा!

सो-कॉल्ड लिबरल-प्रोग्रेसिव सवर्ण पत्रकारों, मैं ऐसे कई लोगों को जानती हूं जिन्होंने प्रशांत का आपने हिसाब से इस्तेमाल किया है। जिन्होंने उससे दोस्ती का दिखावा कर उसके पीठ में छूरा घोंपा है और वे सभी सवर्ण हैं। मैं क्यों विश्वास करूं आप सभी पर मुझे एक कारण बताइए? आप लोगों ने हमारे पूर्वजों को जानवर से बदत्तर ज़िंदगी दी है और आप चाहते हैं कि मैं आपसे अच्छे से पेश आऊं।

आप निर्भया पर लंबे-लंबे लेख लिख चुके हैं। कैंडल मार्च कर चुके हैं लेकिन हाथरस गैंगरेप पीड़िता पर आपकी सुविधावादी रवैये से मैं परिचित हूं। आप वही लोग हैं जो उमर खालिद, डॉ. कफील खान, प्रशांत कन्नौजिया की गिरफ्तारी पर मन ही मन खुश होते हैं, क्योंकि आपके ब्राह्मणवादी नैरेटिव को यह सूट करता है। 

मैंने बहुत करीब से आपके चरित्र को पढ़ा है। मैं संघ के लोगों से ज़्यादा खतरनाक आप लोगों को मानती हूं। वे जो कर रहे हैं सामने से कर रहे हैं लेकिन आपलोग वही काम पीछे से कर रहे हैं। दरअसल, आपकी सोच के दायरे में भी कहीं-ना-कहीं हिंदू राष्ट्र के लिए जगह है।

सो कॉल्ड लिबरल-प्रोग्रेसिव सवर्ण पत्रकारों, आज मीडिया की जो हालत है उसके ज़िम्मेदार कौन हैं, यह पूरी दुनिया जानती है। किस जाति और धर्म के लोग मीडिया में भरे पड़े हैं, अगर यह जानना है तो ऑक्सफैम की रिपोर्ट उठाकर पढ़ लीजिए। आपको समझ आ जाएगा कि देश के साथ गद्दारी कौन कर रहा है?

प्रशांत, डॉ. कफील, उमर खालिद जैसे लोग देश के असली स्तंभ है, जो सिर्फ और सिर्फ संविधान की बात करते हैं। लेकिन आप सभी लोगों ने इन्हें विलेन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी और इसका कारण मैं जानती हूं। 

जिस मीडिया में बहुजनों का प्रतिनिधित्व नाम मात्र का हो वह मीडिया सवर्णों को हीरो और दलित-पिछड़ों को विलेन तो बनाएगा ही। क्या कभी देखा है ज़हर की खेती करने वाली गोदी मीडिया के किसी पत्रकार को ट्वीट के लिए जेल जाते हुए?

क्या कभी देखा है संविधान के खिलाफ दिन-रात ट्वीट करने वाले किसी पत्रकार को जेल जाते हुए? संविधान को जलाने पर जेल जाते हुए? गोडसे की पुजा या गांधी को गाली देने पर जेल जाते हुए? लेकिन दिन-रात संविधान को अपने सीने से लगाए रखने वाले बाबा साहेब की संतान प्रशांत कन्नौजिया के जेल जाने पर आप सभी की खुशी मैंने देखी। यही मॉडर्न मनुवाद है और मीडिया की हालत जो आज है उसमें सबसे बड़े कसूरवार आपका सो कॉल्ड लिबरल-प्रोग्रेसिव समाज है।

मेरे इस खत को लिखने की बड़ी वजह प्रशांत की पत्नी जगीषा अरोड़ा भी हैं। कल मैंने उन्हें लाइव में रोते हुए देखा. उन्हें इस हालत में देख मैं भावुक हो गई क्योंकि मैं समझती हूं उनका दर्द। मैं सच कहूं तो जगीषा के आंसूं पर भी सो कॉल्ड लिबरल-प्रोग्रेसिव सवर्ण पत्रकार बहुत खुश हुए होंगे क्योंकि जगीषा और प्रशांत ने सदियों से चली आ रही कुरीतियों को तोड़कर साथ रहने का फैसला किया और समाज के मुंह पर झन्नाटेदार तमाचा रसीद कर दिया।

अब जब प्रशांत पिछले 50 दिन से जेल में हैं तो आपको खुश होने का मौका मिला है। आप में से कइयों ने जगीषा-प्रशांत से दोस्ती का बहाना किया था जो अब हमें समझ आ रहा है. आज प्रशांत-जगीषा को साथ रहते हुए 2 साल हो गए हैं। आज ही के दिन दोनों ने साथ रहने का फैसला किया था लेकिन एक ट्वीट की वजह से प्रशांत जेल में हैं और जगीषा उनके लिए बाहर रोज़ आप जैसों से लड़ रही हैं। 

मैं बस आपसे यही निवेदन करूंगी कि जिस तरह से अमेरिका में कालों की लड़ाई गोरे मिलकर लड़ते हैं उस तरह से हमारी लड़ाई भी आप साथ आकर लड़ें। मुझे पता है कि आपकी बीमार मानसिकता पर शायद ही मेरे इस लेख का कोई असर पड़े लेकिन इन सबके बावजूद मैं बाबा साहेब के संविधान में विश्वास रखती हूं और मानवता की लड़ाई में आपको आमंत्रित करती हूं। संविधान-विरोधी ताकतों के खिलाफ लड़ाई में हमें प्रशांत, उमर खालिद, कफील खान जैसे लोगों की बेहद आवश्यकता है। अंत में मैं मार्टिन नीमोलर की कविता के साथ अपनी बात खत्म करना चाहूंगी।

“पहले वह कम्युनिस्टों के लिए आए

और मैं कुछ नहीं बोला

क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था

फिर वह आए ट्रेड यूनियन वालों के लिए

और मैं कुछ नहीं बोला

क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन में नहीं था

फिर वह यहूदियों के लिए आए

और मैं कुछ नहीं बोला

क्योंकि मैं यहूदी नहीं था

फिर वह मेरे लिए आए

और तब तक कोई नहीं बचा था

जो मेरे लिए बोलता”

सवर्णवादी व्यवस्था से पीड़ित पत्रकार, 

मीना कोटवाल

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