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औरतों के मताधिकार से लेकर आर्थिक हकों की लड़ाई लड़ने वाली रमाबाई

ramabai ranade

पुणे की श्रीमती रमाबाई रानाडे के दुखद देहांत से भारत को भारी हानि हुई है। वे भारत में तथा उसके बाहर आधुनिक महिला आंदोलन की पथ-निर्माता रही हैं। पाश्चात्य तथा मिशनरी संचालित संगठनों एवं भारतीय महिलाओं की सभी सार्वजनिक संस्थाओं में सबसे अधिक सफलता रमाबाई स्थापित सेवा-सदन को प्राप्त हुई हैं, जिसमें एक हज़ार से अधिक महिला भाग लेती हैं। सेवा-सदन की अत्यधिक लोकप्रियता के पीछे प्रमुख कारण यह था कि उसकी गतिविधि का संचालन स्वयं उनकी देखरेख में होता था।

माग्रेट कजिंस ने जिस महिला के लिए यह लिखा वह शुरुआत में निरक्षर थीं, विवाह के बाद पति के सहयोग से पढ़ना-लिखना शुरू किया और महाराष्ट्र के समाज में लाखों महिलाओं के लिए प्रेरणा स्त्रोत बन गईं।

विवाह के बाद पति गोविंद रानडे की प्रेरणा में पढ़ना शुरू किया

“महाराष्ट्र के सुकरात” के नाम से पहचान पाने वाले महादेव गोविंद रानडे, जो राष्ट्रवादी, समाज सुधारक, विद्वान और न्यायविद भी थे, उनका विवाह 11 वर्ष की अल्पायु वाली लड़की रमाबाई से हुआ।

रमाबाई का जन्म 25 जनवरी 1862 को हुआ था और विवाह के समय वह एकदम निरक्षर थीं, क्योंकि उन दिनों लड़कियों का पढ़ना-लिखना पाप समझा जाता था। अपने परिश्रम और सेवाभाव से वह अपने क्षेत्र की नेता बन गईं और नम्रतावश उन्होंने स्वयं को अपने पति की “परछाई” कहा।

रमाबाई रानडे का विवाह महादेव गोविंद रानडे से उस समय हुआ जब महादेव गोविंद रानडे पुणे के एक न्यायालय के उप-न्यायाधीश थे। उन्होंने महिला शिक्षा, विधवा विवाह, बाल विवाह के खिलाफ संघर्ष किया। उन्होंने रमाबाई रानडे को भी पूरी शक्ति से आत्मनिर्भर बनाने और भावनात्मक दृष्टि से स्वतंत्र बनाने पर ज़ोर दिया।

रमाबाई रानाडे भी अपने पति की निष्ठावान शिष्या बनीं और धीरे-धीरे उन्होंने उनकी सचिव का कार्य संभाल लिया और बाद में उनकी विश्वस्त मित्र बन गईं।

19वींं तथा 20 वीं शताब्दी में महिलाओं की प्रगति के लिए संघर्ष

स्त्री-पुरुष समानता और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में रमाबाई रानाडे का योगदान न्यायमूर्ति रानाडे के कार्य का पूरक था। 19वीं तथा 20वीं सदी के प्रारंभिक 25 वर्षों में महिलाओं की प्रगति का श्रेय चंद समर्पित पुरुषों और महिलाओं को जाता है, जिनमें रमाबाई रानडे का एक प्रमुख स्थान है।

1878 में रमाबाई रानाडे नासिक हाई स्कूल के पुरस्कार वितरण समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में शामिल हुईं, यह पहला अवसर था जब उन्होंने किसी सार्वजनिक मंच पर भाषण दिया था। धीरे-धीरे वह मराठी-अंग्रेज़ी में धारा प्रवाह बोलने लगीं।

आर्य महिला समाज की स्थापना सहित महिलाओं के विकास के लिए अन्य कई कार्य

1881 में रमाबाई रणाडे पुणे लौटी तो उन्होंने आर्य महिला समाज की शाखा स्थापित की। 1893 से 1901 तक रमाबाई रानाडे की सामाजिक गतिविधियां शीर्ष पर थीं। उन्होंने बंबई में “हिंदू महिला सामाजिक एवं साहित्यिक क्लब” की भी स्थापना की तथा महिलाओं को विभिन्न भाषाएं, सामान्य ज्ञान, सिलाई और हस्तकलाएं सिखाने के लिए अनेक कक्षाएं आरंभ की। अंग्रेज़ी सिखाने के लिए विशिष्ट कक्षाएं चलाई जाती थीं।

16 जनवरी 1901 को गोविन्द रानाडे की मृत्यु के बाद रमाबाई रानाडे एक वर्ष तक अपने घर से नहीं निकली। 1902 में उन्होंने न्यायमूर्ति रानडे के धर्म-विषयक भाषणों का संग्रह प्रकाशित किया।

1904 में रमाबाई रानाडे ने बबई में “प्रथम महिला परिषद” की स्थापना की। रमाबाई रानाडे ने महिलाओं की शिक्षा, उनके वैधानिक अधिकारों, समान स्तर, आम जागृत, विशेषत: उनको नर्सिंग-व्यवसाय में प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए अगले 25 वर्ष तक अथक कार्य किया। रमाबाई रानडे ने बाल-विवाह के विरुद्ध भी अविराम संघर्ष किया।

महिलाओं के मताधिकार अभियान में भी लिया हिस्सा

अपने प्रयासों से उन्होंने अपने पैतृक घर पर “सेवा सदन सोसाइटी” शुरू किया। रमाबाई रणाडे ने फिजी और केन्या में भारतीय श्रमिकों के हितों के संरक्षण के लिए गर्वनर जनरल से भी बात की। 1918 से 1923  तक उन्होंने महिलओं के मताधिकार अभियान में भी भाग लिया।

उस दौर में जब महिलाओं ने नर्सिंग क्षेत्र में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करना प्रारंभ किया तो रूढ़िवादी मान्यताओं ने उनका काफी विरोध किया। रमाबाई रानाडे इस बाधा पर विजय प्राप्त करने तथा युवतियों और विधवाओं को सेवा-सदन के माध्यम से चलाए जाने वाली नर्सिंग प्रशिक्षण में प्रवेश लेने व प्रोत्साहित करने के लिए कठोर परिश्रम किया।

रमाबाई रणाडे की मृत्यु पर महात्मा गॉंधी ने अपने पत्र यंग इंडिया में लिखा,

रमाबाई रनाडे का निधन एक महान राष्ट्रीय हानि थी। न्यायमूर्ति रानाडे के निधन के पश्चात रमाबाई ने उनकी एक गतिविधि-भारतीय महिलाओं के उत्थान को अपना जीवन-धर्म बना लिया था। रमाबाई ने अपने ह्रदय और अपनी आत्मा को सेवा-सदन में खपा दिया। उन्होंने अपनी संपूर्ण ऊर्जा उस पर केंद्रित कर दी थी। इसका परिणाम यह निकला कि सेवा-सदन ने एक संस्था का रूप ले लिया जो समूचे भारत में अपने तरीके की अनूठी संस्था बन गई है।

रमाबाई रानाडे के जीवन-वृत से गुज़रते हुए यह तथ्य उभरकर सतह पर आ जाता है कि जिस तरह रमाबाई ने अपनी क्षमता और समर्पित सहकर्मी को जुटाकर लाखों महिलाओं के जीवन को प्रकाशमय किया, उसको आधार बनाकर आधी आबादी की दुनिया में मूलभूत बदलाव लाए जा सकते हैं।__________________________________________________

नोट: लेख के लिए रमाबाई की आत्मकथा “स्मृतियां” का सहारा लिया गया है।

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