Site icon Youth Ki Awaaz

कानून बनने के बाद भी मैनुअल स्कैवेंजिंग को हम खत्म क्यों नहीं कर पा रहे हैं?

जहां एक ओर हम चांद और मंगल तक अपनी पहुंच की बात करते हैं, वहीं दूसरी ओर हमारे देश की ज़मीनी हकीकत यह है कि यहां आज भी सदियों से एक कुप्रथा के नाम पर ‘मैला ढोने’ जैसी प्रथा ज़िंदा है। इस प्रथा के चलते ही आज भी नीची जाति, छुआछूत, ऊंच-नीच और भेदभाव जैसे शब्द बने हुए हैं।

मैनुअल स्कैवेंजिंग (हाथ से मैला ढोने की प्रथा) का सीधा मतलब है, शुष्क शौचालयों या सीवर लाइन से मानवीय अपशिष्ट (मल-मूत्र) को किसी भी प्रकार से किसी व्यक्ति द्वारा उठाया जाना। जैसे- सर पर ढोना या सीवर लाइन में उतरकर सफाई करना।

कानून लागू होने के बाद भी प्रथा अब भी जीवंत है

कहने को तो प्रथा हमारे देश में खत्म हो गई है लेकिन जब-तब सर पर टोकरी रखे ऐसे कितने ही लोग आपको गाँव से शहर तक नज़र आ जाएंगे। हालांकि, भारत में इस प्रथा को खत्म करने का कानून बहुत पुराना है। योजना आयोग टास्क फोर्स की उप-समिति के अनुसार, 1989 में देश में 10 लाख से अधिक मैला ढोने वाले श्रमिक थे।

फिर 1993 में देश में मैला ढोने सम्बन्धित पहला कानून लागू हुआ जिसके बाद शुष्क शौचालयों के काम पर प्रतिबंध लगा दिया गया लेकिन भारत की “नियंत्रक और महालेखा परीक्षक” (सीएजी) 2003 की रिपोर्ट के अनुसार, 16 राज्यों ने ही इस कानून को अपनाया था।

इसके बाद 2013 में सभी प्रकार के हाथ से मैला ढोने वाले जिनमें सेप्टिक टैंकों की सफाई और रेलवे पटरियों की सफाई को भी शामिल किया गया। इस कानून के तहत मैला ढोने वालों के पुनर्वास का कानून तय किया गया।

सरकारें इस बात को स्वीकार करने से अब भी बचती हैं कि ऐसी कोई प्रथा या काम आज भी उनके राज्यों में चल रहा है, साथ ही पुनर्वास की अधिकतम शर्तें और सुविधाएं पुरुषों को देखकर तय की गई हैं। महिलाओं का ज़िक्र इनमें नहीं मिलता है। जबकि 95 फीसदी महिलाएं ही इस काम में लगी हुई हैं।

सच उगलते आंकड़े और शोषित वर्ग

2011 के जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि अब भी देश के कुल 18 करोड़ घरों में से 1.86 लाख घरों में ऐसे शौचालय हैं, जिनकी सफाई व्यक्तिगत रूप से करवानी पड़ती है। इनमें सबसे ज़्यादा 63713 महाराष्ट्र में हैं। पंजाब में ऐसे घरों की संख्या 11949, मध्यप्रदेश में 23093 और कर्नाटक में 15375 है।

इतनी बड़ी तादाद में अब भी कच्चे शौचालयों का होना यह साबित करता है कि कड़े कानूनों के बाद भी सिर पर मैला ढोने की रिवायत आज भी बड़े पैमाने पर जारी है। एक अनुमान के अनुसार, आज भी देशभर में सिर पर मैला ढोने वालों की संख्या लगभग सात लाख है।

वहीं, सरकारें इस हकीकत को सिरे से खारिज़ करती नज़र आती है। साल 2018 में 18 राज्यों के 170 ज़िलों में सर्वे कराया गया था। इस दौरान कुल 86,528 लोगों ने खुद को मैला ढोने वाला बताते हुए रजिस्ट्रेशन कराया लेकिन राज्य सरकारों ने सिर्फ 41,120 लोगों को ही मैला ढोने वाला माना है।

झूठ से पुते हुए सरकारी दावे

वहीं, इस सर्वे में बिहार, हरियाणा, जम्मू कश्मीर और तेलंगाना ने दावा किया है कि उनके राज्य में एक भी मैनुअल स्कैवेंजर नहीं है। उत्तर प्रदेश में यह संख्या सबसे ज़्यादा है। 39,683 लोगों ने खुद को मैनुअल स्कैवेंजर बताते हुए रजिस्ट्रेशन कराया था लेकिन राज्य सरकार ने इनमें से करीब 47 फीसदी यानि कि सिर्फ 18,529 लोगों की ही पहचान बतौर मैला ढोने वाले व्यक्ति के रूप में की।

मध्य प्रदेश का आंकड़ा काफी चौंकाने वाला है। यहां के 14 ज़िलों में 8,572 लोगों ने खुद को मैनुअल स्कैवेंजर बताते हुए रजिस्ट्रेशन कराया लेकिन सिर्फ करीब साढे़ छह फीसदी यानि कि 562 लोगों को ही मैला ढोने वाला माना गया है।

मध्यप्रदेश का आंखों देखा हाल

जबकि मध्यप्रदेश निवासी होने के नाते मैं अपने ही ज़िले में कई सौ मैला ढोने वालों को गिनवा सकती हूं। तो वास्तविकता इतनी है कि आप यदि आंकड़े और कानून देखें तो सब बेहतर और प्रगतिशील नज़र आता है। जबकि ज़मीनी हकीकत यह है कि आज भी मैला ढोने का काम करवाया जाता है।

वो समूह विशेष जिन्हें हम दलित की संज्ञा देते हैं। वे इसे करने को मजबूर हैं, क्योंकि उनका कहना होता है, “बाप-दादाओं के ज़माने से यही चलता चला आ रहा है। हम और कर भी क्या सकते हैं?” उनका यह काम छुआछूत का एक मुख्य आधार भी है।

उनकी मौत और हमारा स्वच्छ भारत

हम चाहते हैं हमारे नदी-नाले और घर-आंगन सब चमकते-दमकते रहें। सामाजिक तौर पर हम बहुत चिंतित भी दिखाई पड़ते हैं। ये सब बदल जाना चाहिए लेकिन क्या हम वाकई इस प्रथा को बदलने को तैयार हैं? क्या हम अपना ही मैला दूसरों से उठवाकर खुद को उच्च और दूसरे को नीचा जताना छोड़ सकते हैं?

सीवर में उतरने से हुई मौतों की खबर भी जब-तब आती ही रहती हैं लेकिन सरकारें तब भी इस व्यवस्था पर ऊंगली उठाती हैं। जब कोई मौत हो जाती है फिर सब भूलकर अगली मौत के इंतज़ार में बैठ जाते हैं। सफाई कर्मचारी आंदोलन के अनुसार, 1993 से अब तक उनके पास ऐसे 1370 सीवर श्रमिकों के नाम हैं जिनकी मृत्यु काम करने की खतरनाक परिस्थितियों में हुई। इनमें से 480 श्रमिकों के उनके पास पूरे रिकाॅर्ड हैं।

बीमारी और मौत की तरफ ले जाती कीचड़ की दलदल

जबकि सुप्रीम कोर्ट में दायर श्री नारायणन की जनहित याचिका के मुताबिक, अन्य बातों के साथ मीथेन और हाइड्रोजन सल्फाइड जैसी हानिकारक गैसों के संपर्क में आने से तत्काल मृत्यु और हृदय अधः पतन जैसी दुर्घटना होना आम बात है।

मांसपेशियों और हड्डियों से जुड़े रोगों जैसे, पुरानी ऑस्टियोआर्थराइटिस परिवर्तन और इंटरवेर्टब्रल डिस्क हर्नियेशन, संक्रमणों जैसे हेपेटाइटिस, लेप्टोस्पाइरोसिस और हेलीकोबैक्टर, त्वचा की समस्याओं, श्वसन तंत्र की समस्याओं और फेफड़े के काम करने के बदले हुए मानक पैरा-मीटर आदि जीवन से जुड़े खतरे शामिल हैं।

खुद को इंटेलेक्चुअल कहलाने वाला समाज इसके लिए ज़िम्मेदार

आर्थिक और शाररिक समस्या का अंत तो है ही नहीं! उसके साथ ही मैला ढोने वालों के साथ सबसे बड़ी समस्या है छुआछूत और भेदभाव की। आप बदलते भारत की कितनी भी तस्वीरें गढ़ लें लेकिन हकीकत में कुछ बदलता दिखाई नहीं पड़ता।

समाज़ ने मैला ढोने वालों के साथ किसी भी तरह समानता का व्यवहार कभी रखा ही नहीं है। समाज़ का वो तबका जो खुद को पढ़ा-लिखा, सभ्य और शिष्ट कहता है और उन्हें अपने घरों तक बुलाता तो है लेकिन पीछे के दरवाज़ों से। यदि वही लोग आगे आकर खड़े हो जाएं तो निश्चित ही दुत्कार दिए जाएंगे। यदि वे हिम्मत कर अपना पेशा छोड़ भी दें तब हम में से कितने लोग हैं, जो उन्हें अपने घर काम करने के लिए आने देंगे?

मैला ढोने वाले लोग हमारे समाज़ का वह हिस्सा हैं, जो उतरन पहनकर, बचा-कुचा वासा पुराना खाकर भी खुश हो लेते हैं। इसे ही अपनी नियति मानकर चलते हैं। उसके बाबजूद भी उनके प्रति भेदभाव कभी खत्म नहीं होता। यह कोई किताबी बात नहीं है। कस्बों, गाँवो में जाकर देखिए उनकी स्थिति इससे कहीं ज़्यादा बदत्तर है।

27 साल पहले कानून बन जाने के बाद भी हम इस कुप्रथा को खत्म नहीं कर पाए हैं लेकिन कब तक? कभी ना कभी तो हमें इस पर खरा उतरना होगा और उसके लिए पहला कदम समाज से भेदभाव की इस सीढ़ी को खत्म करना है।

सरकार और समाज के लिए कुछ महत्वपूर्ण उपाय

ऐसे और भी बहुत से विकल्प तलाशे जाना चाहिए जिससे उनका रोज़गार भी बचा रहे और इस कुप्रथा का अंत भी हो जाए। हाल ही में एक सफाई कर्मी (जो इसी काम में है) से बात हुई तब मैंने पूछा, “भाई बहुत हिम्मत का काम है ये सब, कैसे कर लेते हो?”

जबाव बहुत सटीक था। “शराब पीकर और दीदी, यदि हम नहीं करें यह काम तो क्या कोई और काम आप दे सकती हैं?” यही वो जवाब है, जो हमारे सभी सवालों पर तनकर खड़ा है। महात्मा गाँधी ने 1917 में पूरा ज़ोर देकर कहा था कि साबरमती आश्रम में रहने वाले लोग अपने शौचालय को खुद ही साफ करेंगे। गौरतलब है कि आश्रम की स्थापना गाँधी जी ने की थी और वो उसे कम्यून की तरह चलाते थे।

Exit mobile version