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“जिस पटना में प्रॉपर ड्रेनेज सिस्टम नहीं है, वहां मेट्रो के बड़े-बड़े होर्डिंग्स किस काम के?”

हमारा शहर पटना समेत बिहार का दूसरा बड़ा व्यवसायिक शहर मुज़फ्फरपुर मेट्रो सिटी बनने जा रही है। हर जगह पटना मेट्रो का बोर्ड और उसकी योजना से सम्बन्धित कई जानकारी साझा की गई है लेकिन उसके ठीक विपरीत पटना देश की सबसे गंदी राजधानी की लिस्ट में नम्बर वन पर है। वहीं, मुज़फ्फरपुर, गया, भागलपुर, बक्सर जैसे शहर भी सौ सर्वाधिक गंदी शहरों की सूची में शामिल हैं।

हमारी प्राचीन परंपरा रही है कि हम खास मौके पर घर, आंगन, दलान, छत को झाड़ू पोछा करने के अलावा मिट्टी और गोबर के लेप से निपते थे और घरों के बाहर बगान में सूखी लकड़ियों की टहनियों को इकट्ठा करके प्रायः जलाते थे, जिससे मच्छर, मक्खी सब नियंत्रित रहता था। आज हम सब कहने के लिए पहले से ज़्यादा सभ्य हो रहे हैं लेकिन ऐसी कैसी सभ्यता जहां शहरों से लेकर गाँवों तक कूड़े-कचड़े और मल-मूत्रों का ढ़ेर लगा हुआ है।

पिछले साल यही नवरात्रि का समय था, जब पटना में लगभग बारह घंटे के लगातार बारिश के बाद शहर का निचला हिस्सा पांच से दस फीट तक जल मग्न हो गया और दस दिनों तक जल मग्न ही रहा, क्योंकि उस इलाके का ड्रेनेज सिस्टम फेल हो गया था।

अंततः प्रशासन बड़ी टैंकर में मोटर के ज़रिये पानी इकट्ठा करके पटना के मुख्य इलाकों का पानी सुदूर इलाकों में ले जाकर फेंकने लगी। तब जाकर गंदा पानी साफ हो पाया। यह कमोबेश हर साल की कहानी है, कभी ज़्यादा गम्भीर समस्या हो जाने पर मामला प्रकाश में आ जाता है। बाकी के समय में स्थिति पर कोई चर्चा तक नहीं होती है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ बिहार के शहरों की यह स्थिति है, बल्कि दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद और चेन्नई जैसे बड़े शहर भी कुछ घंटे की बारिश में त्राहिमाम हो जाते हैं।

इस साल तो हम सब वैश्विक महामारी कोरोना से जूझ रहे हैं लेकिन आंकड़ों के अनुसार, जितनी मृत्यु इस वर्ष कोरोना से बिहार में हुई है, उससे कहीं ज़्यादा पिछले कुछ सालों में डेगू, मलेरिया, टाइफाइड, चमकी बुखार से बिहारियों को सताया है। ये सभी बिमारी की वजह गंदगी है।

पिछले ही वर्ष नवम्बर में बिहार के डिप्टी सीएम सुशील कुमार मोदी बड़े शान से कहे थे कि 2019 में प्रधानमंत्री के द्वारा शुरू किया गया स्वच्छ भारत अभियान के तहत बिहार पूर्णतः खुले में शौच से मुक्त हो गया है लेकिन ये सिर्फ दस्तावेज़ों में हो पाया है, हकीकत में बिहार की यही स्थिति है कि राजधानी में भी सार्वजनिक शौचालय मौजूद नहीं है।

कुछ शौचालय बहुत पहले के बने हुए हैं, जिनमें जाने के चार्जेज़ लगते हैं, वे भी महिलाओं के लिए बहुत सहूलियत के हिसाब से नहीं बनाए गए हैं। ३५०वां प्रकाश पर्व के दौरान कई जगह पर चलंत या टेम्परोरी बेस्ड टॉयलेट बनें भी तो वे साफ-सफाई और देख-रेख के अभाव में इतने गंदे हो चुके हैं कि उन शौचालयों के दस-पंद्रह मीटर तक बदबू इतनी आती है कि वहां से गुज़रते वक्त तबियत बिगड़ बाजएगी। वहीं, बिहार के मुखिया लोग ताव के साथ कहते हैं कि हमने घर-घर शौचालय बनवाया है।

अब भी बिहार के कई बड़े सरकारी दफ्तरों में महिला शौचालय तक नहीं हैं। महिला विकास निगम बिहार सरकार के अंतर्गत चलने वाली जेंडर रिसोर्स सेंटर तक में महिलाओं के लिए अलग से शौचालय नहीं है। तो ज़रा सोचिए बिहार के बाकी सरकारी और गैर-सरकारी दफ्तरों की क्या हालत होगी।

रोज़ सड़कों पर सामान बेचने वाली रेहड़ी मज़दूरों की समस्याओं का कल्पना करना ही मुश्किल है, क्योंकि वे रोज़ाना बारह से चौदह घंटे सड़कों पर ही रहती हैं। मासिक धर्म से लेकर नेचर कॉल कहने वाले पेशाब-पाखाना के लिए वे ज़्यादातर सड़क किनारे, रेलवे लाइन किनारे सुनसान खुले जगहों पर जाती हैं।

ठीक यही समस्या महिला पुलिस कर्मियों और ट्रैफिक पुलिस कर्मियों के साथ भी है। ऐसी स्थिति में गर्भवती महिलाएं, जिन्हें हर घंटे शौच जाना होता है, वे कैसे घर से निकलकर दफ्तर या किसी भी काम को करने जा सकती हैं, यह सोचने वाली बात है।

इन सभी विपरीत परिस्थितियों में यूएनडीपी के नेतृत्व में पटना में सूखा और गीला कचड़े कs प्रबंधन को लेकर काम चल रहा है, पाटलीपुत्रा के एक वार्ड में इस पर अच्छी पहल भी हुई है और अभी वहां सड़कों पर कचड़ा बिखरे हुए नहीं देखने को मिल रहे हैं लेकिन यह सिर्फ शुरुआत है।

कचड़ा प्रबंधन, ड्रेनेज, पीने के स्वच्छ जल और प्रदूषण जैसी समस्याओं पर विशेष रूप से बिहार में काम करने की ज़रूरत है। साथ ही हर वक्त राज्य को ना कोसकर हम जागरूक नागरिक के रूप में खुद पहल करते हुए आवाज़ बुलंद करें और सजग नागरिक तौर पर जितना बन सकता हो, अपने हिस्से से उतना काम करते जाएं।

जब बिहार के महापर्व छठ के दौरान गलियों से लेकर सड़कों, मुहल्लों और घाटों तक को साफ-सुथरी कर हम चकाचक कर सकते हैं, तो थोड़े प्रयास से समूचे बिहार को स्वच्छ और बिहारियों को स्वस्थ बना सकते हैं।

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