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“पुरानी किताबों को संभालकर रखना किसी दास्तां को ज़िन्दा रखने जैसा है”

किताबें यूं तो बोल नहीं सकती हैं लेकिन शब्द के साथ वे भी बोल पड़ती हैं। वे चीख-चीखकर बोलती हैं, प्यार से बोलती हैं, रह रहकर बोलती हैं।

यह आदत भी ठीक नहीं थी कि किसी पेज का पता याद रखना होता तो कभी बीच से तो कभी हाशिए पर मोड़ दिया करता था। शायद बहुत से पाठक ऐसा ही करते हों। याद है कि बीती बार कुछ ऐसा करके कई दिनों तक भूल गया। किताब अभी और पढ़ी जानी हैं, एक कहानी उसी मोड़ पर खड़ी रही, जहां छोड़कर आया था। समझ नहीं पा रहा शायद, लेकिन अपनी भी एक अधूरी कहानी छोड़ आया था।

आज जब लौट रहा हूं तो अजनबी सा महसूस हो रहा है। कहानी तो इंतज़ार में थी, अब उसे फिर से आगे पढ़ना है। उस पेज को अनफोल्ड किया, ताज्जुब होता है अक्षरों पर, कितने सब्र से बैठे रहें, वे वहीं मिले जहां उन्हें होना था।

पेज से किताब का एक खूबसूरत रिश्ता होता है। जन्म-जन्म के साथ की तरह। आप यह भी देखें कि पेज से लफ्जों व वाक्यों का भी एक नाता तो है। दो सामानांतर को एक दूसरे के लिए इस तरह जीते कम देखा था। चूंकि अब फिर से पढ़ने लगा एक तीसरी चीज़ भी साथ हो गई थी। जिस तरह का नाता हमारा कायम हुआ वह आदमियों सा था। दोस्त का दोस्त से सरीखा रिश्ता। एक प्यारा सा खुशनुमा रिश्ता। एक नैसर्गिक रिश्ता। रिश्ता कोई भी हो वह इम्तिहान ज़रूर लिया करता है।

कोई रिश्ता बनाकर मुतमईन होना नहीं अच्छा,

मुहब्बत आखिरी दम तक आज़माती है

-वसीम बरेलवी

किताबों के साथ बढ़िया फील होता है

किसी की होकर खुद को सुपुर्द कर दिया करती है। किताब के तलबगार थोड़े इंसान ही हैं, उसे उसके जैसा प्यार लौटा देते हैं। नहीं हो सके तो गम नहीं मगर कोशिश की तारीफ करनी चाहिए। एक तरह से प्यारा सा बंधन कह सकते हैं। इन्हें करीब से देखकर हैरान हूं कि कोई साथी क्या इस कद्र भी साथ निभा सकता है? बेपरवाह ही हूं कि कभी-कभी कुछ किताबें इधर-उधर अथवा खो जाया करती हैं।

क्या कोई उसे यहां से मांग ले गया था? हो सकता है। कहना होगा कि बेहद उपयोगी किताब थी, अफसोस संभालकर रख ना सका। अब तो सिर्फ उसका वो वरक ही बाकी रहा, जो शायद कटकर निकल गया था। किताब की झलक गर किसी को देखनी हो तो वरक को देख लेना वाज़िब था।

पाठ से जुदा होकर उसे ठीक नहीं लगा था, यूं ही कमरे में मारा फिरता है। इतना ज़्यादा अकेला नहीं रह सकता। वह खो जाएगा इसका डर था। आओ एक ख्वाब सजाएं, किसी के साथ जीने की राह तलाशों, अब वह तन्हा मुसाफिर नहीं, सिर्फ भीड़ में अकेला रह रहा है। दूसरी किताब के पन्नों बीच जी रहा है।

तकनीक नहीं खत्म कर पाई किताबों के खूबसूरत रिश्ते को

किसी खूबसूरत किताब का कोई एक पन्ना खो जाए तो खालीपन बनने लगता है। पुरानी से पुरानी किताब को संभालकर रखना किसी ज़िन्दा दास्तां को संभालकर रखने बराबर होता है। तकनीक ने कंटेंट से उस तरह का रिश्ता थोड़ा बदल दिया लेकिन उसके संरक्षण की आदत खत्म नहीं की। यही वजह रही कि रेडियो पर सुनाई गई कहानियों को पुस्तक का रूप दिया गया। टीवी धारावाहिकों ने किताब की शक्ल अख्तियार की।

यह सोच लिया कि किसी को आवाज़ नहीं देनी मोहसिन

कि अब मैं भी तो देखूं कोई कितना तलबगार मेरा?

– शायर मोहसिन नकवी

किताबें प्यार सिखाती हैं तो कभी नफरत भी

कुछ अजीब सी हैं ये किताबें भी। प्यार सिखाना तो समझा जा सकता है लेकिन नफरत भी? जोड़ना भला होता है, फिर उसी को तोड़ने की बातें? एक जोड़ रही तो दूसरी मोड़ रही हैं। कोई किसी को महान बताती हैं, तो कोई और को। ठहरा तो यह ख्याल आया कि अरे किताब नहीं उसे लिखने वाला, प्रसार करने वाला, पढ़ने वाला ज़्यादा ज़िम्मेदार होता है।

किताबें तलबगार को वही रौशनी या राह दे रही हैं, जिस कामना से वह उसका चुनाव करता है। कबीर की साखियां ग़ालिब की गज़लें और मीर के दीवान तो यहीं पढ़े थे। वाल्मिकी-तुलसीदास की रचनाएं कोई भूला सकेगा भला? याद आ रहा कि रसखान कृष्ण भक्ति के दीवाने थे। सुना था फराज़ को ग़ालिब व कैफी से दिली मुहब्बत थी, पढ़ा भी यही। हिन्द जब तकसीम हुआ पाकिस्तान बन गया, दोस्तों कुछ पुरानी किताबों में रेखाएं एक हैं। अपना वतन अपना घर, सियासत ने सगे भाईयों को जुदा कर दिया।

आता है याद मुझको गुज़रा हुआ ज़माना, वो बाग़ की बहारें वो शब का चहचहाना

आज़ादियां कहां वो अब अपने घोंसले की? अपनी खुशी से आना, अपनी खुशी से जाना।

 -इकबाल

किताबों में कहानी और कविताओं की दुनिया

कहानियां-कविताओं के साथ जीना बेशुमार ज़िन्दगियों के साथ जीना है। किताब का तलबगार तय करे कि किताब से कौन सी निस्बत है। क्या उसकी रूचि कहती है? तलाश करें नग़मा मिलेगा, किस्सा-कहानी अदब और अदीबों की दुनिया यहीं सांस लेती हैं। एक कहानी हर पल बन रही, लिखी जा रही है। एक अधूरी रह जाती है।

क्या यह बदली भी जा सकती थी, दूसरा रुख ले सकती थी? बहुत सी कहानियां को अनुभव करके, उसे उस तरह देखकर तब्दील करने का मन भी होगा। साहित्य की जीत इसे कहना चाहिए। मुक्कमल कहानियों की उम्मीद नहीं होती, मिल जाए तो स्वागत है। रचना की दुनिया फिर भी अधूरी रह जाए तो ठीक होता है, क्योंकि शायद अधूरापन, पाठक को थोड़ा प्यासा छोड़ देना ही रचनात्मकता का कारण है।

कहानी का आदमी से एक वास्ता होता है, बहुत बार उसमें अपनी ही कहानी नज़र आती है। उसके पन्नों में पाठक खुद का अक्स पा लेता है। यूं तो हर रोज़ ही एक कहानी घट रही है लेकिन लेखक की नज़र से ओझल चीज़ें सृजन से बाहर हो जाया करती हैं। एक मामूली सी दिखने वाली घटना को भी रचना में शामिल करने की क्षमता लेखक को सक्षम बनाती है।

कहानियों से गुज़रते हुए हम उन घटनाओं के समक्ष रहते हैं, जो किसी ने देखी थी। देर से सही रचना के माध्यम से पाठक भी उसको देख पाता है। कह सकते हैं कि अनदेखी-अनजान दुनिया से रूबरू कराने में किताब सरीखा सृजनात्मक माध्यम कमाल है।

पुस्तक मेला किताबों से दुनिया को मिलाने की जगह

सभी तरह की किताबों से एक ही जगह मिलने के लिए पुस्तक मेला व पुस्तकालय की तामीर हुई थी। मेला में अपनी पसंद की किताब तलाश करना एक जिज्ञासु काम होता है लेकिन आयोजक मेले में आने वालों को पुस्तकों से जुड़ी बहुत सी बातों से भी रूबरु कर देता है। अब का पुस्तक मेला एक सकारात्मक सांस्कृतिक मूवमेंट का रूप लेकर हमसे बेहद करीब हो चुका था।

समाज, देश के हित में एक विमर्श हमेशा से ज़रूरी रहा है, जिस व्यक्ति ने पुस्तक नहीं पढ़ी हो उसे भी धारा का साझेदार बनाने में पुस्तक मेला सफल होता  है। किसी सुपरिचित लेखक से संवाद करने का अवसर रोज़ नहीं हुआ करता। शहर-दर-शहर मेले का आयोजन से यह मुमकिन हो सका है।

पुस्तक मेले को केवल पब्लिसिटी का पैरोकार नहीं मानना चाहिए, क्योंकि यह उसे देखने का गलत नज़रिया होगा। वह सृजन-संवाद-रचनात्मकता का सारथी है। पाठकों को उनकी रुचियों तक पहुंचाने का एक दिलचस्प नेटवर्क। दुनिया को दुनिया से मिलाने का संजाल।

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