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“पहले पीरियड्स के दौरान मुझे लगा कि मैं कहीं गिरी भी नहीं हूं तो ये खून कैसे?”

taboos around periods in india

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जिस खून से तुम पैदा हुए, उस खून के दुश्मन बनते हो

बेहिस वजह आंखों पे रख नश्तर का चिलमन सिलते हो।

वस्ल की राहत से उठकर सैराब ये लश्कर करते हो

वीराने कांटों से हटकर इस खून से गुलशन बनते हो।

मैं जिस वक्त आठवीं क्लास में थी। मुझे वह वक्त बहुत साफ-साफ याद है। हमारी 3 बहनें और एक बड़े भाई हैं, उस समय हमारे घर में दादी भी मौजूद थीं। थीं तो वह महिला मगर शायद लड़की होना उनकी नज़रों में गुनाह था, जो कुछ था भाई का था।

हम तीनों बहनें बस पढ़ते थे और इसके अलावा 10 साल की उम्र में झाड़ू-पोछा करना हमारी अम्मी ने समझा दिया था। ऊपर वाले के करम से अब्बू ने हमको पढ़ाया। पढ़ाया भी क्या, दुबई वाले ताया अब्बू के दो लड़के हैं। बचपन में ही उन्होंने अब्बू से कह दिया था, “तेरी दो बेटियां मेरी बहू बनेंगी मगर एक शर्त है, इनको अच्छी तालिम दिलवानी होगी। दहेज की फिक्र मत करना। एक जोड़े में ही ब्याह के ले जाएंगे।”

अब्बू का यह सुनना था और हमारा एडमिशन स्कूल में करवा दिया गया। हम जामा मस्जिद के सरकारी स्कूल में पढ़े। भाईजान, दरियागंज के एंग्लो संस्कृत स्कूल में पढ़े, अब्बा को दहेज की टेंशन से छुटकारा जो मिल गया। अब्बू ने सोचा पक-पकाई खीर मिल जाएगी।

मर्दवाद का उन पर अच्छा खासा असर था। बहरहाल, ताया अब्बू का शुक्र अदा करती हूं, क्योंकि आज उनकी बदौलत हम सारी बहनें पढ़ सके। सोचने वाली बात यह रही कि ना तो मैंने शादी की और ना बड़ी आपा ने। वैसे उनके दोनों लड़कों की शादी हो चुकी है अब तो।

पीरियड्स का पहला दिन

मैं स्कूल में थी पिछले 7-8 दिन से, बदन दर्द भी था और तबियत भी कुछ नासाज़ थी। मैं खाना लेकर नहीं गई थी। हमारे स्कूल में उस समय सफेद सलवार और स्लेटी रंग का कुर्ता हुआ करता था। मैं क्लास में ही बैठी रही, लंच शुरू होकर खत्म भी हो गया था। मैं डेस्क पर ही बैठी रही। जिस वक्त क्लास चल रही थी, मैंने महसूस किया जैसे मेरी पैंटी में यूरिन फ्लो हो रहा हो। मैंने मैडम से टॉयलेट जाने की आज्ञा मांगी। मैडम ने कहा जाओ।

मैं जैसे ही वॉशरूम में गई, अंदर से चिटखनी लगा दी। उसके बाद जो मैंने पैंटी को देखा तो मेरी हालत इतनी गिरी हुई हो गई थी कि यह सब क्या हो रहा है। मैं सोचे जा रही थी कि मैं कहीं गिरी भी नहीं। कहीं से चोट भी नहीं लगी। फिर यह रिस-रिसकर खून कैसे आ रहा है। मुझे अपने खून और उस डरावने अनुभव से ज़्यादा इस बात की फिक्र थी कि अम्मी को क्या बोलूंगी? उनका सामना कैसे करूंगी? मुझे लगने लगा मुझे कोई बड़ी बीमारी हो गई है। माहौल ऐसा होता है घर में कि मैं अम्मी से भी नहीं बता सकी। मैं बहुत डर गई थी, लग रहा था मर जाऊंगी।

इसी डर में घर पर आकर एक लंबा से लेटर लिख डाला। उसमें यही लिखा था कि अम्मी मेरे कपड़े छोटी को नहीं, बल्कि बड़ी आपा को देना। मेरी गुल्लक से पैसे निकालकर आप अपना कर्ज़ उतार देना और भी ना जाने क्या-क्या बेहूदगी लिखती चली गई। आज भी मुझे उस लेटर को याद कर के इतनी हंसी आती है कि मैं बता नहीं सकती। उस वक्त का दर्द भी जब याद आता है, तो आंसू भी टपक जाते हैं आंखों से।

मैं पूरे तीन दिन तक ऐसी हालत में थी, जिसको देखकर मुझे खुद पर तरस आता था। मुझे बस यही लग रहा था, मेरी बॉडी से सारा खून धीरे-धीरे खत्म हो जाएगा, मैं मर जाऊंगी। तीन दिन तक कुछ नहीं खाया ना पिया, बस मन में डर लगा रहता है। कुछ दिनों बाद पता लगा मुझे एंग्ज़ायटी के अटैक पड़ने लगे। मेरे हाथ पैर और चेहरा सब कुछ हिलने लगा। मेरे चेहरे पर पसीना आता है, जैसे मैंने पानी डाल लिया हो चेहरे पर।

मेरे साथ इतनी छोटी उम्र में यह जो कुछ भी हो रहा था, इस बात का ज़िम्मेदार मैं अपनी अम्मी और अब्बू को ही मानती हूं। उन्होंने हम लोगों को ऐसे पाला था कि अपनी पर्सनल बात तो छोड़िए, हम किताब के पैसे मांगने में भी दस दिन लगा देते थे हिम्मत जुटाने में। दूसरा महीना शुरू हुआ तब तक मैं उस वाक्या को भूल चुकी थी। सोचा था अंदर कोई गड़बड़ी हो गई जो खून बहे जा रहा था।

जब दूसरी बार पीरियड आया

एक दिन फिर वैसा ही होने लगा। मैं फिर उसी दोराहे पर आकर खड़ी हो गई। फिर वही सब। इस बार मुझे 104° का बुखार चढ़ गया। मैं बिल्कुल पीली पड़ रही थी। अम्मी, डॉक्टर आंटी के यहां के गईं, वो डॉक्टर से ज़्यादा पड़ोस में रहने वाली आंटियों की तरह थीं। इधर-उधर की बातें करना, चुगली और भी नादानियों वाली बातें। खैर, मैं उनके सामने बैठी तो मेरी आखों को देखा जो बिल्कुल पीली पड़ चुकी थीं।

उन्होंने अम्मी से पूछा, “इसका महीना आना शुरू हुआ? फिलहाल क्या?” अम्मी बोलीं, “नहीं अभी तक तो इसने कुछ नहीं बताया।” मैंने अम्मी से इशारे से पूछा उस वक्त अम्मी के चेहरे से भी हवाईयां उड़ रहीं थीं। अम्मी ने कहा, “मैं बाहर जा रहीं हूं नरगिस, आप आप बात कर लीजिए इससे।”

बहरहाल अम्मी मुझे डॉक्टर के पास अकेला छोड़ बाहर चली गईं। डॉ. नरगिस ने मुझसे मेरी पढ़ाई की बात कही और फिर बहाने-बहाने से पूछा, “सिदरा, क्या तुम्हारे उस जगह से खून आया है कभी भी?” यह सुनकर मुझे तो ऐसा लग रहा था मानो मेरा कोई अपराध पकड़ा गया और मैं एक मुज़रिम की तरह जज के सामने खड़ी हूं। मेरा अपराध इतना था कि मेरे को गुप्त अंग से खून क्यों आया?

मैं ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी और बोलने लगी।, “खुदा की कसम मैंने कुछ नही किया था, कुछ भी नहीं, अपने आप ही खून आया था। अम्मी से मत बताइएगा वरना पता नहीं मेरे साथ वह लोग क्या करेंगे?” यह सब सुनकर डॉ. नरगिस अजीब ही कैफ़ियत में आ गईं। अम्मी को अंदर बुलाया और बताया तुम लड़कियों के साथ रहने वाली कैसी माँ हो? तुमको इन सब को यह बात बतानी चाहिए कि–

वैसे मैं सच में यही सब सोचती थी। मैं जब दसवीं में पहुंची तो पता लगा मुझे डिप्रेशन है। यह भी तब पता लगा जब स्कूल में फ्री परामर्शदाता आए थे। उन्होंने मुझसे पूछा था कि ज़िन्दगी में कुछ ऐसा हुआ था, जो आपको अंदर तक तोड़ गया हो? मैं समझ गई थी मुझे क्या बोलना है।

मैंने सारी महावारी से सम्बंधित बात उनको बता दी। ऐसे में यही निष्कर्ष सामने आया कि मेरी ज़िंदगी के वे दिन इतने दयनीय और तकलीफदेह थे कि मेरी ज़िंदगी के साथ जुड़ गए। 12वीं क्लास में आते-आते अब्बू भी अपनी ज़िंदगी को खो कर चले गए। बड़ी अप्पी ने कुछ पढ़ाई ज़्यादा की नहीं थी और सब मुझसे छोटे थे। घर पालने की ज़िम्मेदारी मेरे हिस्से में आई।

मेरी ज़िंदगी में जितनी भी तकलीफों से भरे हुए पल आए, वे सिर्फ और सिर्फ पीरियड्स से जुड़े हुए ही थे। डिप्रेशन भी हुआ तो लोगों की अज्ञानता की वजह से। कम इल्मी ने मेरी ज़िंदगी को जहां कमज़ोर किया, वहीं मुझको पत्थर की तरह कठोर भी बना दिया। मैं कई संस्थाओं से जुड़ी हूं, जो महिलाओं के लिए काम करती हैं।

“जागोरी” के कई सत्र किए, जो माहवारी जागरुकता अभियान से जुड़े थे। मैं अब तक 230 विद्यालयों का दौरा कर चुकी हूं। मुझे हर क्लास में एक दबी हुई घबराई सी “सिदरा” नज़र आती है। मैं यही सोचती हूं कि अबकी बार कोई सिदरा ना बने।

परिवार और दोस्त सब अक्सर पूछते हैं, “सिदरा शादी कब करोगी?” मेरा जवाब यही आता है कि कोई ऐसा मिले जो लड़कियों को जागरुक करने वाला हो। मुझको मेरे जैसा ही पार्टनर चाहिए। मिला तो ठीक, वरना शादी को अलविदा!

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