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मानवता से बढ़कर क्या कोई सच्चा धर्म हो सकता है?

विश्व के जिस भी देश में किसी व्यक्ति ने किसी ‘धर्म’ की नींव रखी उसका उद्देश्य प्रेम सौहार्द, दया और मानवता एवं मानव जीवन को सही दिशा देना रहा होगा। इसमें केंद्रबिंदु सिर्फ मानव ही था ताकि ‘मानवजाति’ को एक नई दिशा या मार्ग दिखया जा सके। किसी भी धर्म का उदय का उद्देश्य  मानव का मानव के साथ रंगभेद या जाति-भेद, ऊंच-नीच जैसी कुरीतियों के खिलाफ रही होगी तो उस युग के समाज सुधारकों ने उस समय की सामाजिक कुरीतियों और असामाजिक के खिलाफ आवाज़ उठाई और पाप पुण्य के ढकोसलेपन से मानव समाज को मुक्त किया।

विश्व में किसी-ना-किसी महान व्यक्ति के आदर्शों को आगे बढ़ाया जाता रहा है और यही परम्परा आगे किसी अनेक ‘धर्म’ या ‘सम्प्रदाय’ में परिवर्तित हो गई। उसके साथ-साथ मानवनिर्मित कई कुरीतियों का प्रवेश भी हुआ जिसके कारण मानव जाति को हानि हुई।

भारत में हज़ारों वर्ष के दरमियान कई धर्मों का एवं अनेक पंथो का समावेश यहां के विभिन्न संस्कृतियों, सामाजिक रहन सहन और विभिन्न समुदायों में हुआ। इस कारण भारतियों ने हिन्दू, बौद्ध, जैन, इस्लाम, ईसाई आदि धर्मों को ग्रहण कर लिया।

भारत में उपनिवेशवाद और साम्राजयवाद के अंत के उपरान्त 1950 में ‘भारत का संविधान’ बना जिसमें विभिन्न धार्मिक आस्था और विश्वास को मद्देनज़र रखते हुए संविधान को बनाया गया। जिसमें अपना धर्म आस्था और विश्वास को मानने की स्वतंत्रता सभी को मिली।

लेकिन विश्व मानव समाज में ‘धर्म’ के वास्तविक उद्देश्य को भूलकर कुछ शातिर लोगों द्वारा ‘धर्म’ को अपने स्वार्थ के लिए ढाल बनाकर समाज को फिर उन्हीं वैचारिक जंजालों में फंसा दिया, जहां से हमारे महान समाज सुधारकों ने मानव समाज को उन कुरीतियों और आडम्बर से बाहर निकालकर मानवता और प्रेम का पाठ पढ़ाया था। हम मानवता के उस पाठ को तो भूल गए, लेकिन धार्मिक कट्टरपंथ को ग्रहण कर एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए हैं।

यह समस्या सिर्फ भारत में ही नहीं वरन सम्पूर्ण विश्व आज धार्मिक कट्टरवाद की अग्नि में झुलस रहा है जिससे मानवता खतरे में पड़ती जा रही है।

आज के सन्दर्भ में जहां धर्म और धार्मिक कट्टरवाद की बात होती है तो यह बात मुझे समझ में नहीं आती कि क्या जिस ‘धर्म’ की परिभाषा तथाकथित धर्म के ठेकेदारों द्वारा समाज को सीखा रहे हैं, क्या वह इतना हिंसक, निर्दयी और माया रहित हैं? अगर ऐसा है तो मुझे नहीं अपनाना इस प्रकार का कोई धर्म या पंथ जिसमें मानवता नहीं है। आज जिधर देखो उधर लोगों का अलग-अलग खेमा बना हुआ है, जिसमें धार्मिक कट्टरवाद बड़ी प्रबलता से अपना आधिपत्य जमा रखा है।

मैंने विश्व के 2000 वर्षों का इतिहास पढ़ा, इतिहास पढ़कर मैं और भी खौफ और डर से भर गया। एक तरफ धर्मयुद्ध कहते हैं और फिर उसी धर्म के नाम पर मानव की हत्या ? खून, रक्तपात हिंसा, कूटनीति, राजनीति, फरेब से भरा यह है  ‘तथाकथित धार्मिक कट्टरवाद का इतिहास’। इसे पढ़कर नफरत सी हो गई है मुझे। मैं किसी भी धर्म के विरुद्ध नहीं हूं जो मानवता का और प्रेम का पाठ पढ़ाता हो। लेकिन मैं तथाकथित धार्मिक कट्टरवाद का समर्थन भी नहीं करता। जिससे मानव समाज की छति होती हो तो, मैं उसे सच्चा धर्म नहीं मान सकता ?

एक ‘धर्म’ के ज्ञाता से मैंने पूछा, श्रीमान जी ‘धर्म’ क्या है ?

ज्ञानी जी कहने लगे, “बेटा धर्म का सार ही ‘प्रेम’ है, सभी प्राणियों और मनुष्यों से प्रेम करना यही ‘धर्म’ है”।

मैंने कहां, “ज्ञानी जी, आपकी बात ठीक है, लेकिन मुझे तथाकथित ‘धर्म’ में दूसरे अन्य समुदायों से ‘प्रेम’ करने वाला नहीं दिखता।”

ज़रा सी किसी बात पर बहस हुई नहीं कि बात सांप्रदायिक हिंसा पर बदल जाती है। ईर्ष्या, जलन, घृणा, क्रोध मानों कूट- कूट कर भरा हुआ है उन तथाकथित धार्मिक लोगों के दिलों में प्रेम अंश मात्र भी नहीं होता।

आज धर्म की आड़ में कई चालाक और शातिर लोग व्यापार कर रहे हैं, कोई राजनीति कर रहा है, और कोई अपनी रोज़ी रोटी चला रहा है। जिस प्रकार हमारे समाज के कुछ प्रतिष्ठित एवं शिक्षित और ज़्यादातर अशिक्षित लोग धर्म और आस्था के नाम पर अपनी धन सम्पत्ति का दान करते हैं ताकि पुण्य प्राप्त हो सके ताकि उनके जीवन में मोक्ष प्राप्त हो सके। मैं तो बस इतना समझता हूं कि अगर हमारा समाज किसी ज़रूरतमंद लोगों को या किसी गरीब या अनाथ की भी मदद करता स्कूल, कॉलेज या मुफ्त अस्पताल ही बनवा देता तो शायद यह किसी पुण्य या मोक्ष प्राप्ति से कम नहीं होता।

क्या  ईश्वर को धन संपत्ति की आवश्यकता होती है ? फिर चढ़ावा किसके लिए ? जिसने सभी प्राणियों एवं मनुष्य को बनाया और यह पृथ्वी और इस पृथ्वी का हरेक चल अचल वस्तु हमें दिया तो क्या हम चंद सोने और चांदी के टुकड़े देकर हम उस परमात्मा को प्रसन्न कर सकते हैं क्या ? फिर इतना आडम्बर और दिखावा क्यों ? चमक-दमक, सोना-चांदी रूपये पैसे का धार्मिक स्थलों में क्या प्रयोजन ? धर्म का उद्देश्य तो मानव कल्याण के लिए  होना चाहिए था ?

इस पृथ्वी में सभी प्रकार के जीवों का विकास हुआ। लेकिन इस विकास प्रक्रिया में सबसे विकसित बुद्धिमान और इस पृथ्वी को नियंत्रित करने में सक्षम सिर्फ ‘मनुष्य’ ही था।

प्रथम स्त्री और प्रथम पुरुष ने ही हम इंसानों को पैदा किया था। आज इस पृथ्वी के कोने-कोने में इंसानी सभ्यता विकसित है। कोई काला है कोई गोरा, कोई लम्बा कोई छोटा, कोई जंगलों में रहता है कोई रेगिस्तान में, कोई बर्फीले क्षेत्र में और कोई शहरी विकसित समाज में। उनकी भाषा बोली रहन-सहन, खान-पान संस्कृति सब अलग-अलग है। लेकिन, क्या आपने सोचा है कि मानव जाति उन्हीं दो वृक्षों के फल हैं। यानी रक्त और सहोदर का रिश्ता, भाई बंधू का रिश्ता एक ही मानव परिवार का हिस्सा। एक विशाल मानव परिवार का रिश्ता। अगर एक इंसान किसी दूसरे इंसान की हत्या करता है तो इसका सीधा मतलब है कि वह अपने ही मानव परिवार के किसी सदस्य की हत्या कर रहा है।

सदियों से तथाकथित धर्म के नाम पर मनुष्य दूसरे मनुष्य का संहार करता रहा है। ये हत्याएं, ये आतंक क्यों ? क्या ऐसा होता है ‘धर्म’? दुनिया के सभी धार्मिक ग्रंथो में अच्छी-अच्छी बातें लिखी हैं, लेकिन ऐसे महान ग्रंथो को पढ़कर ज्ञान अर्जित करने वाले इतने निरंकुश, कठोर ह्रदय वाले निर्दय मायारहित कैसे हो सकते हैं ? उपद्रव मचाने वाले ज्ञानी या बुद्धिजीवी हो ही नहीं सकते। लेकिन मतिभृष्ट ज़रूर हो सकते हैं। जिसे उसके मानों कुंठित विचारों के साथ कोई खेलकर उसे हिंसक और पशुतुल्य बना दे। यह काम तो कोई ‘रिंगमास्टर’ ही कर सकता है जो अपने उद्देश्य के लिए इंसानो का इस्तेमाल कर साम्प्रदायिक और धार्मिक उन्माद फैलाते हैं।

एक साधारण सा व्यक्ति भी इस बात को सोच सकता है कि क्या एक इंसान को किसी भी इंसान की निर्मम हत्या करने का अधिकार है ?

मुझे आज तक दुनिया का ऐसा कोई धर्म नहीं मिला जिसके अनुयाइयों के अंदर किसी इंसान के लिए सहानुभूति हो। उसे अपने समान प्यार करता हो। मुझे ऐसा कोई भी नहीं मिला। मैं माफी चाहता हूं, मैं ऐसे किसी भी ‘धर्म’ की सराहना नहीं करूंगा। कथनी और करनी जो किसी नदी के दो किनारों की तरह प्रतीत होता है जो कभी आपस में नहीं मिल सकते।

अगर ऐसा हो कि विश्व के सारे धर्मों को एक ही मंच में लाया जाए और उनसे डिबेट कराया जाय कि कौन सा धर्म सबसे अच्छा है ? देख लीजियेगा वह मंच ‘युद्धमंच’ बन जायेगा। “अपना ढपली अपना राग” कोई किसी से सहमत नहीं होंगे और कोई किसी से कम भी नहीं होंगे। सबके सब दिव्य ज्ञानी हैं। वे लोग सिर्फ इस ‘लोक’ की ही बात नहीं करते वरन  ‘परलोक’ तक का सफर मिनटों में करा देते हैं। ऐसे-ऐसे ज्ञानी और महान लोगों का संगठन इस पृथ्वी पर पाए जाते हैं और अकूत संपत्ति के मालिक और भंडारी बने हुए हैं आध्यात्म के नाम पर।

ऊंचे-ऊंचे सिंहासनों में विराजमान होकर प्रवचन देते हैं और महंगी गाड़ियों का आनंद लेते हैं। जो लोग वैराग्य और संसार से विरक्ति का उपदेश देते हैं उन्हीं लोगों का जीवन सांसारिक भोगविलास  में लिप्त पाया जाता है। कई बार इस प्रकार की घटनाओं का पर्दाफाश भी किया जाता है, लेकिन लोगों के अंदर से भक्ति और श्रद्धा का भूत नहीं उतरता है।

ऐसे में कई बार ऐसे ढोंगी लोगों के कारण अपने ही परिवार के सदस्यों को संकट में फंसा देते हैं। ऐसे ढोंगी गुरुओं के घटिया हरकतों का वे विरोध तक नहीं कर पाते हैं और अंत में परिवार की हानि और सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रश्न उत्पन्न हो जाता है।

मैं ऐसे किसी भी तथाकथित ‘धर्म’ को ग्रहण नहीं कर सकता जहां ‘मानवता’ का कोई स्थान नहीं।

भारत में धर्मयुद्ध पूर्व काल से होता आया है और इंसानियत की निर्मम हत्या हुई है। विश्व में भी कई धार्मिक युद्ध हुए जिसमें सिर्फ और सिर्फ इंसानियत की ही हत्या हुई, किसी धार्मिक संगठनों द्वारा या किसी धार्मिक अगुओं के द्वारा। कहीं ना कहीं मनुष्य द्वारा बनाये गए तथाकथित ‘धर्म’ ने मानवजाति को शर्मसार ही किया है।

इन तथाकथित ‘धर्म’ के कारण कई मांओं ने अपने लाल खोए हैं, कितनों ने अपना पति खोया और कितनों ने अपने माता पिता। छोटे-छोटे बच्चे अनाथ हो गए। क्या यह तथाकथित धर्म उन इंसानी छति की भरपाई कर सकता है ? क्या यह धर्म उन मांओं के कोख को पुनः जीवित कर सकता है। क्या लाभ ऐसे किसी ‘धर्म’ के अनुयाई बनकर?  इंसान का एक दूसरे से आपसी प्रेम और सौहाद्र हो यही वो कड़ी होती है जिसे ‘इंसानियत’ कहते हैं।

मैं ‘मानवता’ को सबसे सच्चा और बड़ा ‘धर्म’ समझता हूं। जिसके अंदर मानवता की भावना होती है उसके अंदर ‘प्रेम’ के सारे गुण पाए जाते हैं। अब मैं क्या कहूं, काले-गोरे, अमीर-गरीब, ऊंच-नीच में क्या रखा है।

एक बार मेरी किसी बुजुर्ग व्यक्ति से बातचीत हो रही थी। मैंने कहा कि इस पृथ्वी के सभी मनुष्य “एक ही वृक्ष के फल हैं”।

उस बुजुर्ग ने जिस प्रकार से जवाब दिया मैं सोचा तक भी नहीं कf तथाकथिक धार्मिक शिक्षा ने उस व्यक्ति के विवेक और बुद्धि को बंद  दिया है।

उस व्यक्ति ने जवाब दिया,

बेटे परमात्मा ने  इस पृथ्वी में हर एक  मनुष्य को उनके कर्मों के अनुसार अनेक जाति के अनुसार उत्पन्न किया है। जो सामाजिक व्यवस्था परमात्मा ने बनाये हैं उसको स्वीकार करना ही हम मनुष्यों की नियति है और उसका पालन करना ‘मानवधर्म’।

मैंने कहा,

मैं इस प्रकार की किसी भी व्यवस्था का समर्थक नहीं हूं जो किसी इंसान को नीच और हिराकत भरी नज़रों से देखता हो। उसे अपने बराबर या समानता का सम्मान नहीं देता हो। मैं ऐसी किसी सामाजिक या धार्मिक व्यवस्था के विरुद्ध हूं। यह सुनकर वह बुजुर्ग व्यक्ति उठकर चला गया।

‘प्रेम’ तथाकथित ‘धर्म’ में नहीं, प्रेम ‘मानवता’ की भावना में है। ‘धर्म’ तो किसी इंसान ने बनाया है लेकिन इंसानियत की भावना एक व्यक्ति के अंदर से ‘प्रकृति’ या ‘परमात्मा’ के द्वारा जन्मजात विद्यमान होता है इसे कही से विकसित नहीं किया जा सकता।

किसी विशेष स्थान में चढ़ावा चढ़ाने से अच्छा किसी ऐसे बच्चे की मदद की जाए जिसकी सुधि लेने वाला कोई नहीं। किसी विधवा और अनाथ की मदद की जाए। ज़रूरतमंद की मदद करना ही सबसे बड़ा ‘धर्म’ है। इंसानियत से बढ़कर क्या कोई बड़ा ‘धर्म’ हो सकता है ?

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