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“घर के पुरुषों को भोजन बनाकर पहले खिलाने की परंपरा आखिर कब खत्म होगी?”

महिलाएं पुरुषों से पहले या उनके साथ खाना क्यों नहीं खाती हैं और नॉन वेज अधिकतर पुरुष क्यों खाते हैं, महिलाए क्यों नहीं? पोषकता से लेकर खाने की मेज तक महिलाओं का शोषण होता है। 

भारत देश में मांसाहारी भोजन खाना पसंद के हिसाब से है, कानूनी तौर पर कोई रोक नहीं है। बहुत सारे लोग मांसाहारी भोजन लेते हैं। एक समय था जब कुछ जाति या समुदाय के लोग बिल्कुल भी नहीं खाते थे मगर आजकल सब पसंद के हिसाब से खाते हैं।

कुछ परिवार ऐसे हैं, जिनमें मांसाहारी बिल्कुल भी नहीं खाते हैं मगर उनके बच्चे जब हॉस्टल में पढ़ने जाते हैं, तो वे जी भर कर खाते हैं। शराब का सेवन भी इसी समीकरण से तय होता है। ये सब साधारण बाते हैं, अब जो असाधारण है वो ये है कि ये समीकरण महिलाओं पर नहीं सिर्फ पुरुषों पर ही लागू होता है। यानि उनकी यहां कोई पसंद नहीं पूछी जाती, वे सब मजबूरी में करती हैं।

मेरा एक अनुभव

मतलब ये है कि मैं अपने रिश्तेदार के घर गया, वहां नॉन वेज लाया गया। सारी महिलाओं ने उसको धोया, मेहनत से बनाया और लाकर पुरुषों के आगे परोस दिया। उन पुरुषों में मैं भी 1 लड़का था, जो शायद 15 साल का था। मैं खाना अकेले  खाने में ज़्यादा अच्छा महसूस करता हूं, इसलिए मैं खाना लेकर बाहर आ गया।

मैंने देखा मेरी चाची जी सिल-बट्टे पर चटनी पीस रही हैं। मैंने पास जाकर पूछा कि इतनी अच्छी सब्ज़ी बनी है, तो आप चटनी के पीछे क्यों पड़ी हुई हैं? तो चाची जी ने जवाब दिया, “तो हम क्या खाएं?” यह सुनते ही मै हैरान हो गया। मैंने सीधा बोला आप ये खाइए जो हम खा रहे हैं। तो उन्होंने कहा यह सिर्फ मर्दों के लिए है, हम नहीं खाते मीट मच्छी!

उस घर में मेरी 2 चाची जी, उनकी सास, 4 लड़कियां, यानि पूरे 7 लोग उस दिन उस पत्थर पर पड़ी चटनी और रोटी से काम चलाते। फिर मैंने भी उस दिन वो सब्ज़ी नहीं खाई और सारी सब्ज़ी छोटी वाली लड़की को दे दीऔर उसने बहुत खुश होकर को सब्ज़ी खाई।

उस दिन मैंने भी चटनी ही खाई और उस दिन के बाद से चाहे मैं खुद के घर में हूं या रिश्तेदार के घर, मैं सबसे पहले यही देखता हूं कि घर की महिलाएं क्या खा रही हैंऔर कब खा रही हैं। अब मैं मर्दों की महफिल में बैठकर खाना नहीं खाता। मैं तभी खाना खाता हूं जब घर की महिलाएं खाती हैं मगर उनसे पहले कभी नहीं।

महिलाओं को पौष्टिक आहार लेना ज़्यादा ज़रूरी है

मैं यही कहना चाहता हूं कि भारत के बहुत से परिवार में नॉन वेज खाया जाता है मगर केवल मर्द लोग खाते हैं, महिलाएं या लड़कियां नहीं खाती हैं और जब भी कोई भी खाना बनता है, तो पुरुष पहले खाते हैं और महिलाएं बाद में। कई बार सब्ज़ी कम पड़ जाती है, तो महिलाएं अपने लिए दूसरा विकल्प ढूंढती हैं। जबकि होना इसके उल्टा चाहिए क्योंकि हर दूसरी महिला एनीमिया की शिकार है।

किशोरावस्था में भी लड़कियों का जब मासिक धर्म शुरू होता है, तब उन्हें ज़्यादा आयरन की ज़रूरत पड़ती है। साथ में महिलाओं को बच्चे भी पैदा करने पड़ते हैं। इसलिए उन्हें एक मज़बूत स्वस्थ शरीर की ज़रूरत है। कई बार कमज़ोरी के कारण बच्चा पैदा करने के दौरान महिलाओं की मौत भी हो जाती है मगर पुरुषों की ज़िंदगी में इस तरह के चरण नहीं हैं।

साथ में पुरुष नॉन वेज के साथ दारु भी पीते हैं, तो एक तरह से वे मांस से बने खाने का विनाश ही करते हैं। साथ में पैसों का भी क्योंकि मांसाहारी खाना भी महंगा है और दारु भी। ऐसे में महिलाओं को फिर चटनी खानी पड़ती है, यानि दोनों तरफ से नुकसान है। इससे बेहतर तो घर में नॉन वेज ही ना आए तो महिलाओं को कुछ ज़्यादा ही फायदा हो। शारीरिक रूप से लड़कियों और महिलाओं को ज़्यादा पोषण की आवश्यकता होती है।

पुरानी घिसी पिटी रूढ़िवादी प्रथा थोपी जाती है, अपनाई नहीं

कुछ लोग कहेंगे कि महिलाएं नॉन वेज इसलिए नहीं खाती हैं, क्योंकि उन्हें पसंद नहीं है, तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। उनकी पसंद नहीं होती है, बल्कि बनाई जाती है। समाज द्वारा जैसे हरियाणा में घूंघट करना एक प्रथा है। बड़ी उम्र की हर महिला घूंघट करती है। आज अगर उनसे हटाने के लिए कहें तो वे नहीं हटाएंगी, बल्कि वे आज घूंघट में ज़्यादा सहज महसूस करती हैं, क्योंकि उन्होंने इसको अपनी किस्मत मान लिया है।

मगर आज कल की युवा लड़कियां इसका विरोध करती हैं। उन्होंने इस प्रथा कोअपनाया नहीं है, इसलिए समाज ने यह प्रथा उन पर थोपी नहीं है, क्योंकि आज के समय में ज़बरदस्ती किसी के ऊपर पुरानी रूढ़ियों और प्रथाओं को थोपना पहले से मुश्किल हो गया है।

महिलाओं से भेदभाव के अनेक कारण

  1. पितृसत्तात्मक सोच या व्यवस्था। दरअसल, हमारे समाज में महिलाओं को सहनशील, शांत और सुशील होने का चरित्र ग्रहण करना होता है। इसलिए पहले ज़माने में जो हिंसक काम होते थे, जैसे- शिकार करना केवल पुरुष के पास थे। महिलाएं केवल पेड़ के फल तोड़ सकती थीं, घास काट सकती थीं या खाना बना सकती थीं। इसलिए मांस भी पुरुष ही खाते थे।
  2. मांस खाना, अपने हाथ और उंगलियो में खून लगना या मुंह में खून या मांसाहारी खाने की करी लगना, एक महिला का किसी जीव की हड्डी को फाड़कर खाना, इस तरह के दृश्य किसी भी पुरुष को पसंद नहीं आ सकते थे। एक शांत और अहिंसक महिला ऐसी तो बिल्कुल भी नही हो सकती है। अगर वे ऐसा कर सकती हैं तो किसी दिन वे उस पुरुष के ऊपर भी हावी हो सकती हैं या समानता के अधिकार के लिए आवाज़ भी उठा सकती हैं, जो कि पुरुषों को बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं था।
  3. साथ ही खाने पर पहला हक पुरुषों के पास ही होता था। तो मांस तो बहुत ज़रूरी भोजन में शामिल है, ये शाकाहारी भोजन से महंगा होता है, तो महिलाओं के हिस्से कहां से आए। पुरुषों के अनुसार, पुरुष सारे दिन काम करते हैं और महिलाएं घर पर आराम। जैसे जंगल में भी केवल शेरों के हिस्से मांस आता है, जो बच गया वो भेड़िए नोचते हैं।

सदियों से मौजूद कुछ परम्पराएं, जो पितृसत्ता को बढ़ावा देती हैं

आजकल इतना बुरा बर्ताव नहीं होता है और यहां तक कि कुछ परिवारों में महिला-पुरुष डाइनिंग टेबल पर एक साथ खाते हैं मगर ये केवल अमीर परिवारों में होता है, जहां खाना बनाना और परोसना नौकरों का काम होता है। वहीं, जहां खाना बनाना और परोसना महिलाएं करती हैं, वहां एक साथ बैठकर कैसे खाएं? और जहां घर का मुखिया काम करके ऑफिस से घर लौटे तो खाने की प्राथमिकता भी तो उसे ही मिलेगी।

जो मिडिल क्लास और उससे निचला तबका है, वहां खाना प्राथमिकता के हिसाब से मिलता है। इसलिए आप देखिएगा कि इन परिवारों में महिलाएं अंत में खाना खाती हैं। कई बार सब्ज़ी कम पड़ने पर अचार से काम चलाती हैं। महिलाएं ज़्यादातर मर्दों का झूठा भोजन ही खाती हैं।

आप खुद देखिए जवान लड़के सभी शाम को बाइक पर अपने दोस्तों के साथ बाहर घूमने निकलते हैं बिना हेलमेट के, अंडे खाते हैं, सिगरेट और कोल्ड ड्रिंक आदि पीकर लौटते हैं। ठीक उसी समय उनकी बहनें घर पर अपनी माँ के साथ खाना बना रही होती हैं या बेशक कुछ भी करती हों मगर ऐसे बाइक पर निकलकर अंडे नहीं खातीं।

जबकि उन्हें ज़्यादा ज़रूरत है, क्योंकि एक तो माहवारी  और कुछ दिन बाद उनकी शादी होगी और बच्चे भी। ऐसे में उनको हर पोषण की ज़रूरत होगी। इसलिए उन्हें एक स्वस्थ शरीर की बहुत ज़्यादा ज़रूरत है।

आंकड़े बताते हैं कि महिलाएं खाना खाने के स्तर पर भी दोयम दर्जे़ की स्थिति में हैं

इंडियन ह्यूमन डेवेलपमेंट सर्वे की तरफ नज़र डालने पर हम पाएंगे कि 40 से 60% महिलाएं, पुरुषों के बाद ही खाना खाती हैं। इन चीजों के अपवाद तो हर जगह हैं मगर महिलाओं के साथ अपवाद पैदा करने से नहीं, बल्कि सदियों से चल रही व्यवस्थित कड़ी को तोड़ने से होगा।

महिलाओं के साथ सब भेदभाव व्यवस्थित तरीके से होते हैं। वो व्यवस्था जो सदियों से पितृसत्तात्मक सोच ने बहुत ही दृढ़ता से गढ़ी है। जबकि पुरुषों के साथ भेदभाव अपवादित होते हैं, जैसे- जब कोई महिला कानून का दुरुपयोग करती है इत्यादि।

मैं समानता की बात रखना चाहता हूं। मांसाहार होना तो बस एक विकल्प है। मैं मांसाहार को प्रोत्साहित नहीं कर रहा हूं लेकिन अगर आपके घर में मांसाहार आता है, तो पहला हक महिलाओं का होना चाहिए। कुछ लोग कहेंगे कि हमारे परिवार, धर्म, समुदाय में मांस तो दूर, प्याज़-लहसुन भी नहीं खाते मगर उन्हीं परिवारों के लड़के-लड़कियां हॉस्टल में मांस, शराब को बहुत पीछे छोड़ चुके हैं।

आपके परिवार के ही अंकल लोग (मुखिया) ऑफिस से आते वक्त अपना स्कूटर होटल के पास रोकते हैं और 2 मुर्गे की टांग के साथ 2 मोटे पैग व्हिस्की के लगाते हैं। यह सब मैंने अपनी आंखो से देखा है। मेरा कहना है कि कोई भी भोजन हो शाकाहारी या मांसाहारी, महिलाएं पहले खाएं या साथ खाएं, तभी उन्हें समान समझा जाएगा।

महिलाओं को उनका हक दीजिए, कब तक वे जूठा खाना खाएंगी? तो क्या हुआ आपकी शादी 1985 में हुई थी? आज भी आप उनके साथ बाहर जाकर आइसक्रीम खा सकते हैं।


संदर्भ- द वायर –1, द वायर-2, इंफो ग्राम

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