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“पितृसत्ता समाज में फैला हुआ मायाजाल है, जिसमें महिलाएं भी शामिल हैं”

रेप, पीरियड क्रैम्प्स, सेक्स, फीलिंग्स, इमोशन्स, त्याग, बेड़ियां, ममता, बॉडी शेमिंग, #herchoice, #metoo, #मम्मी, #ज्योति कुमारी कितना कुछ दिया है सोशल मीडिया ने। फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम हर जगह लोग जाग उठे हैं इन मुद्दों को लेकर। जैसे अमावस्या की रात भूत-प्रेत जाग उठते हैं।

अलग-अलग नारीवादी पेजों पर, ब्लॉग्स में मर्दों को खुली गालियां, छेड़ने वालों और घूरने वालों के लिए खून भरी धमकी। मैं सोचती हूं सारे बलात्कारी और सड़क चलते छेड़ने वाले लोग शर्म से चुल्लू भर पानी में डूब क्यों नहीं मरते?

रामानंद सागर का कृष्णा सीरियल चल रहा था।, वस्त्र चुराने वाला एपिसोड। एपिसोड खत्म होने पर रामानंद सागर जी का एक छोटा सा वीडियो आया। उसमें उन्होंने बताया कि वस्त्र चुराने के बारे में जो प्रसंग मिलता है, उसका भावार्थ यग है कि आत्मा और परमात्मा के बीच कोई भी सांस्कृतिक या भौतिक पर्दा ना रह जाए, तभी उनका मिलन हो पाता है और भक्त (मोदी जी वाला नहीं) अपने ईश्वर में समा पाता है।

लेकिन दर्शक इस गूढ़ भाव को समझने में असमर्थ होते इसलिए हमने यही दिखाया कि कृष्ण और उनके साथी ग्वालिनों से नाराज़ थे। इसलिए उन्होंने बदला लेने के लिए वस्त्र चुराये और उनसे अपनी शर्तें मनवाई। आप यूट्यूब पर उस भाग को देखे सकते हैं।

सोचिए कि उस एपिसोड को बनाने वालों ने और डायलॉग के साथ-साथ स्क्रीनप्ले लिखने वालों ने इतनी सी ज़हमत क्यों नहीं उठाई कि वो वस्त्र हरण को आत्मा-परमात्मा के बीच की बेपर्दगी दिखा देते। बदला दिखाने की जगह? सिनेमा और सीरियल में यह कैसे तय कर सकते हैं कि दर्शक इस गूढ़ अर्थ को नहीं समझ पाएंगे?

लेखकों और निर्देशकों का काम तो यही है कि वे अदृश्य और गूढ़ अर्थों को सरल करें। उस दृश्य में कृष्ण के साथी कहते हैं, “कोई बात नहीं, मत मानो हमारी बात। हम जाकर तुम्हारे वस्त्र तुम्हारे पतियों को दिखा देंगे, वे भी तो जानें उनकी पत्नियां वन में निर्वस्त्र होकर घूमती हैं।”

गोपियां इस धमकी से इतनी डर जाती हैं कि कृष्ण की हर शर्त मान लेती हैं। क्या इस सीरियल को बनाने वाले रेप, ब्लैकमेलिंग और बदनामी के डर से चुपचाप सहने वाली औरतों के बारे में कुछ नहीं जानते थे?

फेसबुक पर सबसे ज़्यादा पोस्ट्स पीरियड और रेप से जुड़ी हुई आती हैं। अब यह असली फिक्र जैसा नहीं दिखता। कभी-कभी लगता है हमें बेबाक लेखकों की श्रेणी में आना है। तो ऐसे मुद्दों पर एक बार लिखना तो अनिवार्य है, वरना किस काम के लेखक। इस मुद्दे को बहुत हौव्वा बनाना और बेवजह फोकस में आने के लिए तूल देना कोई समझदारी की बात नहीं है।

रेप कल्चर इस तरह शुरू होता है। इस तरह की कहानियों और फिल्मों से फलता-फूलता है। एक अपरिपक्व लड़का अगर गैंग्स ऑफ वासेपुर-2 का वह सीन देखे; जिसमें लड़का फिल्म देखकर आता है और अपनी एक दोस्त का बलात्कार करता है।

लड़की कहती है, “ये क्या कर रहे हो? हम तो दोस्त हैं ना”? लड़का कहता है, “लड़का और लड़की दोस्त नहीं हो सकते” जो कि उसने फिल्म में सुना है। लड़की उसका प्रतिरोध नहीं कर पाती है। तो क्या वह अपनी दोस्त के साथ ऐसा करने पर उसे जस्टिफाई नहीं कर लेगा?

पीरियड्स पर वास्तव में हो खुलकर बात

पीरियड पर ‘उन दिनों स्त्री’ शीर्षक से कविता लिखने के स्थान पर आप चुपचाप कुछ सार्थक काम कर सकते हैं। जैसे- घर में छोटी बहनों के लिए चुपचाप सैनिटरी पैड खरीदकर रख देना। इसके लिए कहीं भी लिखने या फोटो खींचकर डालने की ज़रूरत नहीं है।

अगर आप इस मामले में सहज दिखने की कोशिश में अति उत्साह में आने वाले हैं, तो अपनी सहजता और उत्साह चेक करने के लिए किसी जनरल स्टोर पर जाएं, वहां एक पैक पैड का खरीदें और दुकान में सबके सामने ही एक सेल्फी लेकर सोशल मीडिया पर डाल दें। वैसे ही जैसे मैक्डोनाल्ड्स या आम के बगीचे में करते हैं। पीरियड्स को सामान्य चीज़ मानना सीखने में बहुत दूर का सफर बाकी है।

सेक्स शादी नहीं, बल्कि सहजता और समझ का प्रॉसेस है

जहां तक सेक्स की बात है, तो यह इतना बड़ा मुद्दा है कि अगर कोई इस पर लिखने की हिम्मत करे तो पढ़ने वाले, लिखने वाले की भाषा या कंटेंट पर विचार करने लगेंगे। ‘इतना अनुभव?’ सेक्स का मुद्दा हमारे समाज में शादी से काफी हद तक गुंथा हुआ है। शादी से इतर सेक्शुअल रिश्ते अलग कॉम्प्लीकेशंस लिए होते हैं। सेक्स शादी में हो या शादी से बाहर, इसकी सहजता दोनों लोगों के बीच की समझ और भरोसा ही सबसे बड़ी चीज़ है और इस पर ध्यान बहुत कम दिया जाता है।

इस बारे में सिर्फ पुरुष ही नहीं, बल्कि औरतें भी लिखती हैं दर्द भरी भाषा में! कैसे पति या प्रेमी बिस्तर पर आता है और थकी हारी साथी को घसीटकर बिना उसमें कोई भावना जगाए अपनी वासना बुझा लेता है। लिखा जाना ज़रूरी है मगर जो पुरुष ये लिखते हैं, क्या वे अपनी पत्नी या प्रेमिका का कंधा छूकर उसका इनकार या उसकी इच्छा समझ पाते हैं?

जो स्त्रियां ये लिखती हैं, क्या उन्होंने कभी गंभीरता से अपने साथी को इन बातों से अवगत कराया है? इतने वर्षों से प्रेम और सेक्स पर लिखे जाने के बावजूद ऐसा क्यों है कि आधे से अधिक लोग अपने प्रेमी या प्रेमिका से सेक्स के दौरान आत्मिक होकर नहीं जुड़ पाते?

क्या सेक्स दो आत्माओं का मिलन है?

किसी ने एक बार कहा था कि सेक्स जब अपने सुख के लिए किया जाता है, तो ना ही वह आनंदमय हो पाता है और ना ही आध्यात्मिक। सेक्स जब दोनों के सुख के लिए किया जाता है, जिसमें साथी का सुख ही वरीयता पर हो, उस सेक्स का सुख अब तक शायद ही कोई जान पाया हो। वहीं, सेक्स में अगर साथी की सुविधा और साथी के सुख का ध्यान ना रखा गया हो, तो स्त्री विरोध करे या ना करे, वह सेक्स है ही नहीं, वह रेप है।

रेप सिर्फ उतना नहीं है, जितना यह नज़र आता है। यह भी नहीं है कि केवल रेप ही एक समस्या है, जिसका हल होना चाहिए, रेप सिर्फ एक कड़ी है। दुनिया असल में एक लंबी जंज़ीर है। यहां जंज़ीर का नियंत्रण ताकतवर के हाथ में है, रेप और हिंसा के मामले में पुरुष ही ताकतवर है।

असमानता के क्षेत्र में पुरुषों की प्रमुख भागीदारी

पहले तो पुरुषों को मिसोजिनिस्ट होना इस तरह सिखाया गया कि अब यह डीएनए में शामिल हो चुका है। अब जानकारी, संवेदनशीलता और प्रगतिशीलता के नाम पर और भी विकृत तरीके से चीजे़ें पेश की जा रही हैं। जैसे यह बताया जाता है कि औरतें पुरुषों से ज़्यादा सेक्शुअल होती हैं।

लेकिन यह नहीं बताया जाता कि वो सेक्शुअलिटी फंक्शन कैसे करती हैं? जैसे फेमिनज़्म में पुरुषों से बराबरी के लिए सही-गलत सारी चीज़ों को जस्टिफाई कर दिया जाता है कि मर्द स्मोकिंग और ड्रिंकिंग करते हैं, तब तो नहीं बुरा लगता? मगर यह नहीं बताया जाता कि फेफड़ा और लिवर एक ही तरीके से काम करता है सबका।

महिलाओं को सामने आना ज़रूरी है

मैं देखती हूं पीरियड्स को जब खुले मंच पर लाया जाता है, तो उसे अपवित्रता के खांचे से निकालने की कोशिश तो की जाती है लेकिन उसे मज़ाक का विषय तब भी रहने दिया जाता है। हालांकि ये दोनों बातें आंशिक रूप से ही सही हैं। अपवित्रता वाला सिद्धांत अब भी चलता है, सिवाय उन जगहों के जहां आदमी का स्वार्थ पूरा होता हो।

अपने घर की औरत रसोई से पानी नहीं ले सकती लेकिन रेडलाइट एरिया में जाने पर पीरियड्स वाली औरतों की अलग डिमांड होती है। अजीब है कि ऐसे मर्दों को ना धर्म बहिष्कृत करता है और ना ही समाज।

आज भी रेप की रिपोर्ट नहीं की जाती है, क्योंकि इससे पीड़िता की बदनामी हो जाएगी, रेपिस्ट हमेशा खुलेआम घूमेगा। उसका परिवार, माँ-बाप, पत्नी, बच्चे, कोई बहिष्कृत नहीं करेगा। अगर वह कुंवारा निकला तो पंचायत उसी बलात्कारी से पीड़िता की शादी करवाएगी।

छेड़छाड़ के बारे में घर में अब भी नहीं बताया जाता है, क्योंकि इससे राह की दीवारों की संख्या बढ़ जाएगी। जो रेप केस दर्ज़ होते हैं, जिन पर ट्रायल होता है, उनका प्रतिशत रेप की तुलना में बहुत कम है और जिन मामलों में न्याय मिल जाता है, उन्हें तो उंगलियों पर गिना जा सकता है।

इसी तरह ‘प्रेम में स्त्री’ जैसे शीर्षक लेकर भी बहुत कुछ लिखा जाता है। कभी-कभी यह अच्छा लगता है पढ़कर और अच्छा होता अगर ये कविताएं सिर्फ कविताएं नहीं होतीं, प्रेम में स्त्री लिखने वाले पुरुष कविताओं जैसा ही प्रेम भी कर पाते।

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