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6 दिसंबर की शाम को ट्रेन में लोग कह रहे थे, “आज मुल्लों की मस्जिद को तोड़ दिया”

वही क़ातिल वही मुंसिफ़ अदालत उस की वो शाहिद,

बहुत से फ़ैसलों में अब तरफ़-दारी भी होती है।

बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में कोर्ट के फैसले पर मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद की यह पंक्ति बिल्कुल फिट बैठती है। 28 साल बाद बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में कोर्ट ने कल अपना फैसला सुनाया है। जज एस. के. यादव ने कहा कि बाबरी मस्जिद को ढहाने की घटना पूर्व नियोजित नहीं थी, वह सब अचानक हुआ था। सीबीआई कोर्ट ने सभी आरोपियों को केस से बरी कर दिया है।

गौरतलब है कि मुख्य आरोपियों में लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, नृत्य गोपाल दास, कल्याण सिंह, विनय कटियार, राम विलास वेदांती और बृजभूषण शरण सिंह आदि शामिल थे। इनके अलावा चम्पत राय, साध्वी ऋतम्भरा, महंत धरमदास भी मुख्य आरोपियों में थे।

कोर्ट ने सभी 32 आरोपियों को बरी कर दिया है। 6 दिसंबर 1992 को मस्जिद गिराए जाने के मामले में कुल 49 आरोपी थे, जिसमें से 17 आरोपियों की मौत हो चुकी है। ऐसे में बाकी बचे सभी 32 मुख्य आरोपियों पर फैसला अपने आप में एक महत्वपूर्ण आयाम रहा।

जज ने इन पांच महत्वपूर्ण तथ्यों को आधार मानते हुए फैसला सुनाया

लखनऊ की सीबीआई की अदालत ने सीबीआई के कई सुबूतों पर भी सवाल उठाएं हैं। सरकार का कहना है सारे साक्ष्यों का अवलोकन करके निष्पक्ष जांच के आधार पर फैसला सुनाया गया है।

न्याय भी बिकने लगा

मैं यहां अगर अपने विचारों की बात करूं तो मंदिर-मस्जिद और हिन्दू-मुस्लिम विवाद से हटकर अपनी राय रखना चाहूंगा। मुझे यहां सिर्फ न्यायिक व्यवस्था पर अपने कुछ विचार सामने रखने हैं।

पिछले 5-6 सालों से हम किसी न्यायालय के फैसलों को नहीं सुन रहे हैं, बल्कि हम सरकार के फैसले सुन रहे हैं। कहीं बलात्कार का मामला है, तो देश की सबसे बड़ी न्याययिक संस्था यह देखती है कि मामला है कहां का?

क्षेत्र केंद्र सरकार के दायरे में आता है या नहीं। फिर यहां भी सियासत का खेल देखने को मिलता है। न्याय को राजनीति ने खरीद लिया है। इसके विषय में आम जनता इस बात को भलीभांति पहचानती है।

6 दिसंबर की शाम

जिस तरह कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया कि यह घटना पूर्वनियोजित नहीं थी। मैं इस बात से कोई भी सरोकार नहीं रखता हूं। 6 दिसंबर 1992 को मैं अपने मामा के घर प्रतापगढ़ से दिल्ली के लिए आ रहा था। शाम को हमारी ट्रेन थी। काशी विश्वनाथ एक्सप्रेस, जो उस समय शायद 5 बजे शाम को चलती थी और दूसरे दिन सुबह 6 बजे नई दिल्ली पहुंचती थी।

हम शाम को स्टेशन पर पहुंचे, तब तक घटना का इतना प्रचार नहीं हो पाया था। उस समय ये ऑनलाइन न्यूज़ और न्यूज़ चैनलों का दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था। मामा प्रतापगढ़ की कचहरी में एडवोकेट के पद पर थे। तो उनको फोन के ज़रिये फैज़ाबाद वाली नानी से यह खबर सुनने को मिल गई थी।

बहरहाल, मामा हमको लेकर स्टेशन पर आ गए। उसके आधे घंटे बाद हम देखते हैं कि एक ट्रेन फैज़ाबाद की तरफ से आई और उस पर लाखों लोग थे। आधे लोग अंदर ठुसे हुए रहे बाकी तो छत पर बैठे थे। यह ट्रेन बनारस जा रही थी। 20-30 आदमी प्रतापगढ़ स्टेशन पर भी उतरे।

मामा ने अम्मी से बोला, “तुम अपना बुर्का उतार लो, खाली दुपट्टा पहने रहो, ये लोग अभी गुस्से में हैं और हिन्दू-मुस्लिम का दंगा हो गया है फैज़ाबाद में।” अम्मी को इतने में कुछ समझ आता अम्मी ने बुर्का उतार लिया और मुझको और मेरी बहन को गले से लगाकर रेहड़ी के पीछे जाकर बैठ गईं।

मेरे मामा को ऐसा लग रहा था जैसे वो लोग किसी को मारने जा रहे हों। उनके हाथ में लाठियां, पन्नियों में ईंटें और पत्थर के टुकड़े थे। उन सभी उपद्रवियों ने जितना अपराध करना था वो कर लिया था मगर मामा को असुरक्षा की भावना ने कमज़ोर कर दिया था।

मुझे आज भी बहुत धुंधला सा याद है कि ट्रेन की छतों पर आदमी बैठकर “जय श्रीराम” का जयकारा लगा रहे थे। उस दिन को याद करके आज मुझे एहसास होता है कि जब देश का विभाजन हुआ होगा तो क्या हाल हुआ होगा लोगों का। हमने तो बस एक ट्रेन देखी थी।

सुबह जब हम दिल्ली पहुंचे तो पापा ने सारी खबर सुनाई। उनको हमारी फिक्र हो रही थी, क्योंकि अयोध्या और प्रतापगढ़ में 113 किलोमीटर का ही फासला है। जो लोग बनारस से अयोध्या गए थे तो उनका रास्ता प्रतापगढ़ से ही होकर गुज़रता है।

मस्जिद को बनाना या ढहाना सही था या गलत, यह तथ्य मुझे अधिक प्रभावित नहीं करता है। हमको इमोशन्स से ज़्यादा फैक्चुअल बारिकियों को समझना ज़रूरी है। हां, मगर बात अगर न्याय और अन्याय की आए तो यहां हमको आवाज़ उठाना लाज़िम हो जाता है।

वो घटना पूर्वनियोजित नहीं थी ये बात सरकार की अदालत बता रही है मगर जो मैंने अपनी आंखों से देखा उसको मैं कभी नहीं झुटला सकता। मैंने देखा था कि लाखों की तादाद में लोगों को अयोध्या बुलाया गया था। सारा सफर हमारा रास्ते में यही सुनते हुए कटा, “आज मुल्लों की मस्जिद को तोड़ दिया।”

ट्रेन हो या स्टेशन, हर जगह यही बातें थीं। अचानक हुए दंगों में पूरा राज्य उठकर नहीं आ सकता, कभी नहीं! मुझे चिंता होती है जिस संस्था को हम खुद से ज़्यादा भरोसे के काबिल मानते हैं। आज शायद वो बिक चुका है।

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